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सूर के काव्य की नयी उद्भावनाओं की संक्षिप्त चर्चा कीजिए।

सूरदास मूलतः भक्त थे। वह दार्शनिक-वाद-विवाद में पड़ना नहीं चाहते थे। पुष्टिमार्ग में वह दीक्षित अवश्य हुए थे, पर सिद्धांत-प्रतिपादन करना, तर्क-वितर्क की शैली में शास्त्रार्थ करना उनका अभीष्ट न था। पर सच्चे भक्त होने के नाते उनका अखंड विश्वास था कि भक्ति-मार्ग सरल है और सामान्य जन उसी पर चलकर अपना तथा समाज दोनों का कल्याण कर सकता है। भागवत पुराण को, जो उनके काव्य का प्रेरणास्नोत तथा आधार-ग्रंथ है, पढ़कर तथा उसमें गोपियों की सरलता, प्रगाढ भक्ति-भावना, उनकी वियोग-पीड़ा को देख उनका भक्त हृदय अवश्य ही द्रवित हुआ और ' भ्रमरगीत' में उनकी इस अनन्य भक्ति, दृढ़ निष्ठा, प्रेम-विहलता दिखाकर उन्होंने ज्ञान-योग मार्ग का खंडन किया, या कहिए यह खंडन स्वत: हो गया।

' भ्रमरगीत' में उद्धव को गोकुल भेजने से पूर्व कृष्ण का आत्मचिंतन इसका प्रमाण है कि उन्होंने उद्धव को गोपियों का हृदय-परिवर्तन करने, उन्हें भक्ति मार्ग छोड़कर ज्ञान-मार्ग अपनाने के लिए नहीं भेजा था बल्कि उनका ज्ञान-गर्व तोड़ने के लिए भेजा था।

याहि और नहिं कछू उपाय,
मेरो प्रकट कहयौ नहि बदिहै ब्रजही देऊं पठाइड॥
गुप्त प्रीति जुबतिन की कहिके याकौं करों महंत।
गोपिन के परबोधान कारन जैहे सुनत तुरंत।
अति अभिमान करेगो मन में जोगिनि की यह भांति।
सूर स्थाम यह निहचे करिके बैठत है मिली पांति॥

कृष्ण के इस आत्म-कथन से स्पष्ट हे कि सूर का उद्देश्य निर्गुण ब्रह्म तथा ज्ञानयोग का खंडन करना था। ' भ्रमरगीत' में उद्धव की ज्ञान-दृष्टि पूर्व पक्ष हे।

उद्धव अपने इसी ज्ञान-गर्व में पुलकित ब्रज में प्रवेश करते हैं । उद्धव गोपियों की विरह-पीड़ा को उनके अज्ञान का परिणाम मानते हैं:

ज्ञान बिना कहवे सुख नाहीं।

उन्हें विश्वास है कि वह अपने पांडित्य, तत्व-चिंतन, तर्कों तथा ज्ञानोपदेश से गोपियो के हृदय का अज्ञनान्धथकार मिटाकर उनके हृदय को ज्ञान के आलोक से दीप्तिमान कर देंगे और उनकी पीड़ा मिट जायेगी। अतः वह कहते हैं :

तत्त्व भजें वेसी ही है जेहों पारस परसे लोह।
और वह निर्गुण ब्रह्म का निरूपण करते हैं :
अविगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई
नेन नासिका-अग्र है तहां ब्रह् कौ वास
अविनासी विनसे नहीं, हो, सहज ज्योति-परकास।

उद्धव का यह ब्रह्म-निरूपण तथा इस ब्रह्म के चिंतन का परामर्श गोपियों को तनिक भी नहीं सुहाता। पहले तो वे उद्धव की बातों को गूढ़, जटिल, सामान्य बुद्धि से परे की बात कहकर उन्हें न समझने की बात कहती हैं। उनकी समझ में ही नहीं आता कि जिस निर्गुण-निराकार ब्रह्म की चर्चा उद्धव कर रहे हैं, वह कौन है :

हमसौं कहत कोन की बातें?
सुनि ऊधो! हम समुझत नाहीं फिर पूंछति हैं तातें।

लोकनीति तथा जीवनानुभव-गोपियां कहती हैं कि प्रेम करने वाला प्रेममार्ग पर चलते समय न भयभीत होता है और न प्रलोभन में पड़ता है। प्रेम की यही रीति रही है और प्रकृति के प्राणी-चातक, मृग, मछली इसके साक्षी हें:

सब जग ततजे प्रेम के नाते।
तऊ स्वांति चातक नहिं छांड्त प्रकट पुकारत नाते।
समुझत मीन मोर की बातें तऊ प्रान हठि हारत।
सुनत क्रंग नादरस पूरन जदपि व्याध सर मारत।

शास्त्र-वे पूछती हें कि अबलाओं के लिए कहीं तपस्या, कच्छ साधना बतायी गयी है जिसका उपदेश उद्धव गोपियों को दे रहे हैं:

मधुकर! कहां पढ़ी यह नीति।
लोक वेद सुति ग्रंथ रहित सब कथा कहत विपरीत।
वेद पुरान स्मृति सब ढूंढो जुबतिन जोग कहुंधो।

उद्धव को निरुत्तर करने के लिए वे कभी उनका उपहास करती हैं, उन्हें मूर्ख, पागल, सिरफिरा तथा गलती से गोकुल आया बताती हैं। वे कहती हैं कि अपने को ज्ञानी, सर्वज्ञ तथा सज्जन कहने वाले उद्धव अज्ञानी हैं, मूर्ख हैं, विभ्रमित तथा धूर्त हैं।

सूर सगुण भक्ति के समर्थक थे। उन्होंने ' भ्रमरगीत' में उद्धव को ज्ञान-योग का प्रतीक तथा गोपियों को प्रेम-भक्ति का प्रतीक मानकर, उनके वाद-विवाद में उद्धव को निरुत्तर तथा पराजित दिखाकर योग के ऊपर प्रेम, ज्ञान के ऊपर भक्ति की तथा निर्गुण के ऊपर सगुण की विजय दिखायी है। ज्ञान, योग, निर्गुण भक्ति का संदेश भेजने वाले कृष्ण तथा अपने ज्ञान पर गर्व करने वाले इस संदेश के वाहक उद्धव दोनों को गोपियों के प्रेम-रंग में निमज्जित दिखाकर सूरदास ने ज्ञान से भक्ति को अधिक महत्त्व दिया है।

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