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कहानी विधा का परिचय देते हुए 'पूस की रात'” कहानी के संरचना-शिल्प पर प्रकाश डालिए।

 कहानी की रचना भाषा में होती है और भाषा का कलात्मक उपयोग कहानी के कथ्य और प्रतिपाद्य को संप्रेष्य बनाता है। इसलिए कहानी रचना के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि कहानी का कथ्य और प्रतिपाद्य उत्कृष्ट हो वरन्‌ यह भी जरूरी है कि वह उत्कृष्टता कहानी में अभिव्यक्त भी हो। यह अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से ही होती है। कहानी का कथ्य अलग-अलग शैलियों को संभव बनाता है। इस प्रकार शैली और भाषा कहानी की संरचना के मुख्य अंग हैं।

शैली : पूस की रात' प्रेमचंद की अत्यंत प्रौढ़ रचना मानी जाती है। यह कहानी जितनी कथ्य और प्रतिपाद्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उतनी ही भाषा और शैली की दृष्टि से भी। यह कहानी ग्राम्य जीवन पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों में जिस तरह का आदर्शवाद दिखाई देता था, वह इस कहानी में नहीं है। इसका प्रभाव कहानी की शैली पर भी दिखाई देता है। प्रेमचंद ने इस कहानी में अपने कथ्य को यथार्थपरक दृष्टि से प्रस्तुत किया है इसलिए उनकी शैली भी यथार्थवादी है। यथार्थवादी शैली की विशेषता यह होती है कि रचनाकार जीवन यथार्थ को उसी रूप में प्रस्तुत करता है जिस रूप में वे होती हैं, लेकिन ऐसा करते हुए भी उसकी दृष्टि सिर्फ तथ्यों तक सीमित नहीं होती। इसके विपरीत वह जीवन की वास्तविकताओं को यथार्थ रूप में इसलिए प्रस्तुत करता है ताकि उसके बदले जाने की आवश्यकता को पाठक स्वयं महसूस करे। दूसरे, यथार्थवादी रचनाकार यथार्थ के उद्घाटन द्वारा पाठकों को, समस्या का हल नहीं देता पर उन्हें प्रेरित करता है कि वह स्वयं स्थितियों को बदलने की आवश्यकता महसूस करे और उसके लिए उचित मार्ग खोजे। इस कहानी में प्रेमचंद की दृष्टि यथार्थ के उद्घाटन पर टिकी है। वे न तो हल्कू को नायक बनाते हैं न खलनायक। वे इस समस्या का कोई हल भी प्रस्तुत नहीं करते। कहानी की रचना वे इस तरह करते हैं कि जिससे कहानी में प्रस्तुत की गई समस्या अपनी पूरी तार्किकता के साथ उभरे।

   'पूस की रात' का अगर हम विश्लेषण करें तो इस बात को आसानी से समझ सकते हैं। कहानी का आरंभ एक छोटी-सी घटना से होता है। हल्कू के यहाँ महाजन कर्ज माँगने आया है। हल्कू तीन रुपए उसको दे देता है जो उसने केवल कंबल खरीदने के लिए जोड़े हैं। इसके बाद कहानी इस प्रसंग से कट जाती है। दूसरे भाग से कहानी में एक नया प्रसंग आरंभ होता है। पूस का महीना है। अंधेरी रात है। अपने खेत के पास बनी मंडैया में वह चादर लपेटे बैठा है और ठंड से कॉप रहा है। सर्दी में ठंड से काँपना पहले प्रसंग से कहानी को जोड़ देता है जब हल्कू को मजबूरन तीन रुपये देने पड़े थे। यहाँ पहले प्रसंग में उठाया गया सवाल भी उभरता है कि ऐसी खेती से क्‍या लाभ, जिससे किसान की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं होती? यानी लगातार शोषण और उससे मुक्ति की संभावना का अभाव अंततः किसान को ऐसी मानसिक स्थिति में पहुँचा सकता है जहाँ कहानी के अंत में हल्कू पहुँच जाता है। कहानी के अंत में नीलगायों द्वारा खेत नष्ट होते देखकर भी हल्कू अगर नहीं उठता तो इसका कारण केवल ठंड नहीं है। यहाँ हल्कू में अपनी उपज को बचाने की इच्छा ही खत्म हो चुकी है। इस तरह समस्या की भयावहता का चित्रण करता हुआ कहानीकार कहानी को समाष्त कर देता है। 'पूस की रात' की शैली की यही विशेषता है और इसी यथार्थवादी शैली ने उनकी इस रचना को श्रेष्ठ बनाया है।

भाषा : प्रेमचंद की कहानियों की भाषा बोलचाल की सहज भाषा के नजदीक है। उनके यहाँ संस्कृत, अरबी, फारसी आदि भाषाओं के उन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है जो बोलचाल की हिंदी के अंग बन चुके हैं। प्रायः वे तद्भव शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे कहानी के परिवेश के अनुसार शब्दों का चयन करते हैं, जैसे ग्राम्य जीवन से संबंधित कहानियों में देशज शब्दों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का अधिक प्रयोग होता है। वाक्य रचना भी सहज होती है। लंबे और जटिल वाक्य बहुत कम होते हैं। प्राय: छोटे और सुलझे हुए वाक्य होते हैं ताकि पाठकों तक सहज रूप से संप्रेषित हो सकें।

   'पूस की रात' कहानी ग्रामीण जीवन से संबंधित है। इसलिए इस कहानी में देशज और तदभव शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है। जैसे; तद्मव शब्द: कम्मल, पूस, उपज, जनम, ऊख।

देशज : हार, डील, आले, धौंस, खटोले, पुआल, टप्पे, उपजा, अलाव, दोहर। तदभव और देशज शब्दों के प्रयोग से कहानी के ग्रामीण वातावरण को जीवंत बनाने में काफी मदद मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने उर्दू और संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया है। उर्दू के प्रायः ऐसे शब्द जो हिंदी में काफी प्रचलित हैं, ही प्रयोग किए गए हैं। जैसे, खुशामद, तकदीर, मजा, अरमान, खुशबू, गिर्द, दिन, साफ, दर्द, मालगुजारी आदि। उर्दू के ये शब्द भी उन्हीं रूपों में प्रयुक्त हुए हैं, जिन रूपों में वे बोलचाल की भाषा में प्रचलित हैं जैसे दर्द को दरद, मजदूरी को मजूरी आदि। इस कहानी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त हुआ है, लेकिन वे भी ज्यादातर हिंदी में प्रचलित हैं और कठिन नहीं माने जाते। जैसे, हृदय, पवित्र, आत्मा, आत्मीयता, पिशाच, दीनता, मैत्री आदि। श्वान, अकर्मण्यता अणु जैसे अपेक्षाकृत कम प्रचलित तत्सम शब्द भी हैं, लेकिन वे कहानी में खटकते नहीं। तत्सम शब्दों का प्रयोग प्रायः ऐसी ही जगह हुआ है, जहॉ कथाकार ने किसी भावप्रवण स्थिति का चित्रण किया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित अंश को देखिए:

   जबरा शायद समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी। अपने किसी अभिन्‍न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था जिसने आज उसे इस दशा में पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी-मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उसका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।”

   उपर्युक्त वाक्‍्यों में आप देखेंगे कि एक भावात्मक स्थिति का चित्रण किया गया है। इन तत्सम शब्दों में जो कोमलता है वह इस आत्मीय पूर्ण स्थिति को जीवंत बनाने में सहायक है। लेकिन प्रेमचंद ने यह ध्यान रखा है कि उन्हीं तत्सम शब्दों का प्रयोग करें जो हिंदी भाषा की स्वाभाविकता के अनुकूल हो। प्रेमचंद की रचनाओं में शब्दों का प्रयोग अत्यंत सत्तर्कता के साथ होता है। कोई भी शब्द फालतू नहीं होता तथा उनमें अर्थ की अधिकतम संभावनाएँ व्यक्त होती हैं। जैसे निम्नलिखित वाक्‍्यों को देखिए:

मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें।

   उपर्युक्त वाक्य में "मजूरी” और "मजा” शब्द शोषण की पूरी प्रक्रिया को व्यक्त करने में समर्थ हैं। विशेष बात यह है कि इस तरह के गहरे अर्थ वाले वाक्यों में भी ऐसी सहजता होती है कि उसे कोई भी आसानी से समझ सके। प्रेमचंद की भाषा जटिल भावना, विचारों या स्थितियों को व्यक्त करने में पूरी तरह समर्थ है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्‍यों को देखें:

हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानों एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था।

कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट पर, जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाए हुए था।

कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।

ऊपर के तीन उद्धरणों में मोटे अक्षरों वाले वाक्यों से पूर्व के वाक्यांशों में व्यक्त किए गए भावों की तीव्रता या अर्थवत्ता अधिक स्पष्ट रूप से और प्रभावशाली ढंग से उजागर हुई है। इससे भाषा में जीवंतता भी आती है।

संवाद : प्रेमचंद की कहानियों में संवाद की भाषा उनके कथ्य की तरह यथार्थ परक होती है। संवादों की भाषा का निर्धारण पात्रों के परिवेश और उनकी मनः:स्थिति से तय होता है। इस कहानी में अधिकांश संवाद हल्कू के हैं, कुछ उसकी पत्नी मुन्नी के हल्कू के संवादों में भी स्वकथन वाले संवाद या ऐसे संवाद जो जबरा (कुत्ते) को संबोधित हैं, अधिक हैं। हल्कू और मुन्नी गरीब किसान हैं। इसीलिए उनकी भाषा भी उसी परिवेश के अनुकूल ग्राम्यता लिए हुए हैं।

   हल्कू और मुन्नी की बातचीत का अंश देखिए : हल्कू ने आकर स्त्री से कहा – सहना आया है। लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे। मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली- तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा। माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी उससे कह दो, फसल पर दे देंगे अभी नहीं। ये कहानी के आरंभिक संवाद हैं। इनमें आप पायेंगे कि दोनों व्यक्तियों की भाषा बहुत ही सरल है इनमें एक भी कथन जटिल नहीं है। कम्मल, पूस, हार जैसे शब्द उनके ग्राम्य पृष्ठभूमि को व्यक्त करते हैं। गला तो छूटे, मुहावरा वाक्य को और अधिक स्वाभाविक बनाता है, साथ ही कहने वाले की मानसिक स्थिति का संकेत भी करता है। वाक्य बहुत छोटे-छोटे हैं, उनमें भी छोटे-छोटे उपवाक्यों का प्रयोग किया गया है।

   लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे” इस वाक्य में कहीं उलझाव नहीं है। छोटे-छोटे उपवाक्यों के कारण पूरी बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है। प्रेमचंद ने पात्रों की मन:स्थिति का विशेष रूप से ध्यान रखा है। हार पर हल्कू के संवादों में उदारता, सरलता, समझदारी, चतुराई सभी झलकती है और भावनाओं के सूक्ष्म अंतर के अनुकूल भाषा में भी अंतर आता गया है।

इस तरह शैली, भाषा और संवाद तीनों दृष्टियों से प्रेमचंद की यह कहानी उत्कृष्ट है।

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