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अज्ञेय का काव्यचिंतन

 भरतमुनि के रससूत्र के परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय' की उक्त स्थापना को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है कि- प्रतिभा आश्रय का सम्प्रेषण नहीं करती, उसका स्थायीभाव सम्प्रेषित करती है और वह साधारण (युनिवर्सल) होता है। प्रतिभा आलम्बन विभाव को सम्प्रेष्य नहीं बनाती, उसके क्रिया व्यापारों को सम्प्रेषित करती है। वह क्रिया व्यापार अद्वितीय (यूनिक) होना चाहिए।

इससे स्पष्ट है कि अज़ेय की उक्त स्थापना वस्तुतः भरत मुनि द्वारा नाटक के सन्दर्भ में प्रतिपादित रससूत्र का काव्य रचना प्रक्रिया के सूत्र के रूप में रूपांतरण है। इस रूपांतरण के दो स्तर है- पहला, नाटक का काव्य के सन्दर्भ में और दूसरा, आस्वादक का सर्जक के सन्दर्भ में अर्थात्‌ यह विधा और दष्टि परिवर्तन का रूपांतरण है- विधात्मक और दइष्टिगत। लेकिन इस बात को इस रूप में रखना संगत होगा कि अजेय ने भारतीय साहित्यशास्त्र की मान्यता को आधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हुए उसकी पुनर्स्थापना की है। और इस पुनस्थीपना में उनकी टृष्टि एक सर्जक रचयिता की है, जिसके कारण उक्त स्थापना मौलिक रूप में सामने आती हैं।

वस्तुतः भारतीय साहित्यशास्त्र के ऐतिहासिक विकास का सर्वेक्षण किया जाय तो लक्षित होता है कि भारत के रस सूत्र की युगानुरूप पुनस्थापना ही होती आयी है। भट्टलोल्लट का उत्पत्तिवाद (उत्पादक-उत्पादय), शंकुक का अनुमितिवाद (अनुमापक-अनुमाप्य), भ्रन्‍्टनायक का भोगवाद (भोजक-भोज्य) और अभिनव गुप्त के अभिव्यक्तिवाद के (व्यंजक-व्यंग्य) रूप में। ओर हिन्दी में प्रथम रीतिकाल में वह प्रासंगिक हुआ, जहाँ मानो रचना का उद्देश्य लक्षण-प्रतिपादन ही रहा। इस स्थिति को पहचान कर आचार्य केशवदास ने पहली बार हिन्दी को एक शास्त्र दिया। वस्त॒ृतः हिन्दी कविता उस जगह पहुँच गयी थी, जहाँ उसे एक शास्त्र की आवश्यकता थी। आचार्य केशवदास ने उस आवश्यकता को "कवि प्रिया' दवारा पूरा किया। फिर द्विवेदी और छायावाद युग के संधिस्थल पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पुनः एक नये शास्त्र की आवश्यकता अनुभव की। पर अब संस्कृत शास्त्र के साथ-साथ टी.एस. इलियट और आई. एस. रिचड्स भी आधार बन गये। परिणाम स्वरूप आचार्य शुक्ल ने रस को एक और भक्ति साहित्य के आधार पर 'भावयोग' के रूप में निरूपित किया तो दूसरी ओर उसे मनोविज्ञान की दीप्ति भी दी। और फिर छायावादोत्तर युग में डार्विन, फ्रायड और माक्र्स की विचारधारा के परिणाम स्वरूप जीवन और जगत संबंधी धारणाओं में मूलभूत परिवर्तन उपस्थित होता है। इस परिवर्तन के कारण अज्ेय और नये रचनाकार एक बदली हुई संवेदना से जीवन और जगत को देखने लगते हैं इसी बदली हुई, नई तथा उलझी हुई संवेदना के सन्दभ्॑ में अज्ञेय पहली बार रचना-कर्म की मौलिक समस्या साधारणीकरण और सम्प्रेषण की समस्या को उपस्थित करते हैं कि - “जो व्यक्ति का अनुभूत है, उसे समष्टि तक कैसे उसकी पूर्णता में पहँचाया जाय- यही पहली समस्या है जो प्रयोगशीलता को ललकारती है।”५ इसी बिन्दु पर आकर भरत मुनि का 'रस सूत्र' पूरी तरह घूम जाता है और वह रचना कर्म” का सूत्र बन जाता है।

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