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बिहारी के प्रकृति चित्रण की विशेषताएं बताइए।

बिहारी ने फाग खेलते, सरोवर में स्नान करते, कंकड़ भरे मार्ग में चलते समय की नायिका की चेष्टाओं, उसके हाव-भावों का बड़ा मनोज्ञ चित्रण किया है-

नाक चढ़े, सीबी करै, चिते छबीली छेल।
फिरि-फिरि भूलि वहे गहे प्यौ कंकरीली गैल॥

संस्कत काव्य-शास्त्र में सात्विक भावों का भी उल्लेख है और कवियों ने उनका बड़ा मोहक वर्णन भी किया है । बिहारी ने भी स्वेद, कम्पन, रोमांच, वेवर्ण्य (रंग उतर जाना) के चित्र अंकित किये हैं-

स्वेद , सलिल रोमांच कुस गहि दुलही अरु नाथ।
दियो हियों संग हाथ के हथलैवे ही हाथ॥
वस्तुत: अनुभव तथा सात्विक भाव कई काम करते हें।

वे नायिका के हृदय के मनोभावों का संकेत देते हैं, उनके द्वारा वह नायक के प्रति अपना प्रणय-भाव प्रकट करती है तथा उनके द्वारा उसको उद्दीप्त करती है और बिहारी सतसई अनुभवों की चित्रशाला है। अत: उसमें वर्णित संयोग श्रंगार के चित्र अत्यंत मनोहारी हैं। हां, कभी-कभी मौन वाणी से भी अधिक अर्थ-व्यंजक हो जाता है। बिहारी भी इसे जानते थे तभी तो उनकी नायिका भोौंहों की भंगिमा तथा चितवन से अपनी बातें कह देने में सफल होती है ।

अपने विरह-वर्णन की तरह संयोग-श्रंगार के चित्रण में भी कहीं-कहीं उन्होंने अतिरंजना से काम लिया है और उनके इस प्रकार के दोहे केवल चमत्कार उत्पन्न करके रह जाते हैं, पाठक के मन में कोई भाव जाग्रत नहीं करते, संवेदना नहीं जगाते। शुक्ल जी ने लिखा है-जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी स्वच्छ भाव की निर्मल धारा में कुछ देर तक अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। पर उसे युग की मांग कहकर इस दोष को अनदेखा किया जा सकता हे।

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