हिंदी में प्रेमाख्यानक काव्यों की एक समृद्ध परंपरा मिलती है| सूफी प्रेमाख्यान काव्यों से पूर्व की परंपरा पर प्राकृत अपप्रंशों के चरित काव्यों की परंपरा का गहरा असर है| यह असर लोकगाथात्मक प्रेमाख्यानक काव्यों-- 'ढोला मारू रा दूहा', 'सदयवत्स-सावलिंगा', 'बीसलदेव रासो' आदि में दिखाई देता है| अपभप्रंश और अवहटू्ट के काव्य संदेश रासक', 'नेमिनाथ चडमई' आदि भी प्रेमाख्यानक काव्य ही हैं- जिनमें श्रृंगार और प्रेम की प्रधानता है| हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कुतुबन [मृगावत्ती, 1501 ई. (संकत् 1558)] का उल्लेख प्रथम प्रेममार्गी सूफी कवि के रूप में किया है | (डा. नगेंद्र द्वारा संपादित हिंदी साहित्य का इतिहास में इसका रचना काल 1503 ई. बताया गया है|) हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ईश्वरदास (सत्यवती कथा', 1501 ई.) को तथा डा. रामकुमार वर्मा मुलला दाउद (चंदायन', 1379 ई.) को प्रथम सूफी कवि मानते हैं| डा. नगेंद्र द्वारा संपादित हिंदी साहित्य का इतिहास में असाइत (हंसावली, 1370 ई.) का उल्लेख प्रथम सूफी कवि के रूप में है| इस परंपरा में जायसी की 'पद्मावत' (1540 ई.) से पूर्व की प्रमुख रचनाएँ हैं -- असाइत की 'हंसावली' (1370 ई.), मुल्ला दाउद की चंदायन (1379 ई.), दामो कवि की 'लखमसेन-पदमावती कथा', ईश्वर दास की 'सत्यवत्ती कथा' (1801 ई.), कुतुबन की 'मृगावती' (1503 ई.) तथा गणपति की 'माधवानल- कामकंदला' (1527 ई.) | इसी परंपरा में मंझन की 'मधुमालती' (1545 ई.), नारायण दास की 'छिताई वार्ता' (1590), उस्मान की चित्रावली' (1613 ई.) आदि 'पद्मावत' (जायसी, 4540 ई.) के ब्राद की रचना है| जायसी ने प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा के संदर्भ में पद्मावत' में लिखा है :
सुदेवच्छ मुगुधावति लागी| कंकतपूरि होइगा वैरागी ||
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ | मिरगावति कह जोगी भयऊ ||
साधा कुँवर मनोहर जोगू। मधुमालति कहं कीन्ह वियोगू।।
प्रेमावती कहँसरसुर साधा। उखा लागि अनिरुद्ध वर बाँधा ||
- 'जायसी ग्रंथावली' (माताप्रसाद गुप्त का पाठालोचन, दोहा 233)
जाय॑सी की सूची से (1) 'स्वप्नावती', (2) 'मुग्धावती' (3) 'मृगावत्ती', (4) 'मघुमालती, (5) 'प्रेमावती', (5) 'उषा-अनिरुद्ध' आदि प्रेम काव्यों का पता चलता है| इनमें से 'मृगावती' तथा 'मधुमालती' को छोड़कर शेष कृतियों का पता नहीं चल सका है | आत्मकथाकार बनारसीदास ने 'अर्द्धक्धानक' (सन् 1603 ई.) में 'मृगावती' तथा 'मधुमालती का उल्लेख यह कहकर किया है कि ये घर में बैठकर इन कृत्तियों में रम रहे हैं। जायसी ने मंझन कवि की कृति 'मधुमालती' का उल्लेख इसलिए नहीं किया है कि यह कृति 'पद्मावत' (सन् 1540 ई.) के बाद सन् 1545 ई. में लिखी गई है| अतः जिस 'मधुमालती' का जायसी ने संकेत किया है, वह किसी अन्य कवि की रचना है| 'विक्रमादित्य', 'उषा-अनिरुद्ध, 'सदथवत्स' आदि लोक प्रचलित प्रेम कहानियों के नाम हैं जो उस समय जनता में प्रसिद्ध रहे होंगे।
हिंदी के उपलब्ध प्रेम काव्यों में कुतुबन की 'मृगावती' या 'मिरगावती' एक प्रसिद्ध रचना है। इस प्रेमकाव्य में चंद्रगिरि के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती की प्रेम कथा है। यह रचना सन् 1503 ई. की मानी जाती है| इस रचना के बाद मलिक मुहम्मद जायसी की प्रसिद्ध रचना 'पद्मावत' का नाम आता है जिसमें राजा रत्नसेन और सिंहलगढ़ की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा है। भारतीय जमीन पर लिखी गई यह सबसे महत्वपूर्ण त्रासदी है। 'पद्मावत' के बाद मंझन कृत 'मधुमालती' का नाम है जिसमें कनेसर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर तथा महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती के प्रेम की कथा वर्णित है। इसके उपरांत उस्मान कृत 'चित्रावली' काव्य आता है जिसमें नेपाल के राजा धरनीघर के पुत्र सुजान और रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की प्रेमकथा मिलती है। तदुपरांत जान कवि के 29 प्रेमाख्यानक काव्य मिलते हैं जिनमें 'रत्नावती', 'लैलामजनूँ, 'नल- दमयंती',, 'रतनमंजरी', पहुप-वरिषा', 'कमलावती', 'छबिसागर', 'कामलता', 'कनकावती' आदि प्रमुख हैं। इन सभी रचनाओं पर 'पद्मावत' का पर्याप्त प्रभाव है| जान कवि के समकालीन शेखनवी कृत 'ज्ञानदीप' नामक प्रेमकाव्य मिलता है जिसमें रानी देवजानी तथा राजा ज्ञानवीप के प्रेम संबंध की कथा है। कुछ समय बाद कासिम शाह ने 'हंस जवाहिर' नामक प्रेमकाव्य की रचना की | तदंतर नूर मुहम्मद कृत “इंद्रावती' और 'अनुराग बाँसुरी' जैसे प्रेमकाव्य लिखे गए | इसी परंपरा में निसार कवि ने 'युसुफ जुलेखा' नामक प्रेमकाव्य लिखा| मूलकथा शामी परंपरा पर आधारित है। ख्वाजाअहमद ने 'नूरजहाँ', शेख रहीम ने 'प्रेमरस', नसीर ने 'प्रेम दर्पण, अलीमुरीद ने 'कुंवरावत', सदानंद या हुसैन अली ने 'पुहुपावती', अली सलोनी ने 'प्रेम चिनगारी' जैसे प्रेमकाव्यों को लिखकर इस परंपरा का विकास किया। मसनवी पद्धति में लिखे गए ये सभी काव्य प्रबंध काव्य हैं और 'इश्क मजाजी' से 'इश्क हकीकी' की यात्रा तय करते हैं। इन कथा रूपकों (एलीगरी) का हिंदी सूफी परंपरा में महत्व अनुभूति की सघनता और मार्मिकता के कारण भी रहा है।
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