‘चंदायन’ में मध्यकालीन परिवार में सास, ननद और बहू के रिश्ते की झलक देखने को मिलती है। सास बहू को हमेशा सीख देती थी। परिवार में बहू की कठिनाई को सास दूर करती थी। बावन चाँदा से दूर है तो उस समय सास ही उसे समझाने जाती है। मैना की सास खोलिन भी अपनी बहू को समझाती है। सास का काम घर में लगी आग को पानी देने का था। ननद, सास और बहू के बीच सूत्रधार का काम करती थी। चाँदा अपने मन की बात सास और ननद को बताती है पर उल्टे उसे ही ताना मिलता है।
परिवार में नवविवाहिता वधू का किसी प्रकार के अत्याचार के खिलाफ बोलना सम्मान के योग्य नहीं माना जाता था। चाँदा अपने ससुराल से रूठ कर नैहर चली आती है। नारी के सामने तीन ही विकल्प थे ससुराल, नैहर अथवा वैश्यालय। लड़की अपने मन की बात से परिवार में किसी की सहानुभूति नहीं प्राप्त कर सकती थी। उसे अपनी सहेलियों का सहारा होता था। परिवार में सौत के बीच भयकर लड़ाई होती थी। जब लोरिक को मैना की खबर मिलती है तो वह गोवर लौटने की तैयार करने लगता है, तब उस समय चाँदा का मुंह लटक जाता है जिसका वर्णन निम्न पद में देखा जा सकता है
मैना बात जो सिरजन कही। सुनत चाँवा राहु जनु गही।। पूने जइस मुख दीपत अहा । गयी सो जोति खीन होइ रहा।।
किसी पुरुष का परस्त्री से संबंध बनते ही वह समाज में चर्चा का विषय हो जाता था। कितना भी छिपाने का प्रयल हो लेकिन घर से बात बाहर निकल ही जाती थी। फिर प्रेमिका और पली के बीच कैसा द्वंद्व छिड़ता है इसका उदाहरण ‘चंदायन’ में मैना और चाँदा के विवाद के प्रसंग में अनुभूत किया जा सकता है। मैना और चाँदा की लड़ाई में एकदम ग्रामीण जीवन की अनगढ़ता को दाऊद ने उसी रूप में रख दिया है। यहाँ मर्यादा, संयम और अनुशासन नहीं है।
गाली गलौज वाले प्रसंग में गाँव के सामान्य नारी के लड़ाई के दृश्य को ज्यों का त्यों रख दिया गया है। दोनों अपने गरूर को बखानती है। मैना को अपने पति के पराक्रम का अभिमान है और चाँदा को अपने सामंती वैभव की शान का अभिमान है। चाँदा अपनी शान का वर्णन निम्नानुसार करती है
गाय चरावइ करै दुहावा । सिंह से तै यहें अगरग लावा। जिंह धौराहर मोर बासेरा। सीस टूटि जे ऊपर हेरा।।
भारतीय जीवन में रीति-रिवाज का भी विशेष नहत्त्व रहा है। सूफियों ने रीति-रिवाज को भी नजरअंदाज नहीं किया । ऋतु के साथ पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं। उसकी एक-एक विशेषता को दाऊद ने रेखांकित किया है। कार्तिक में दीवाली के त्योहार का उल्लेख है। मकर संक्रांति के पर्व से दिन बड़ा होने की बात की गई है। फागुन में होरी के हुड़दंग का वर्णन है ।
किस ऋतु में क्या भोजन होता था, किस तरह से त्योहार के उल्लास लोगों के मन में उमंग भर देते थे, उससे कैसे शृंगार और सौंदर्य का रूप बदलता था इन सबका वर्णन ‘चंदायन’ में किया गया है। जैसा कि निम्न पंक्ति में देखा जा सकता
मुंख तँ बोल चख काजर पूरहि। अंग माँग सिर चीर सिंदूरहि।। नाचहि फागु होइ मनकारा। तिह रस भई नई सय सारा ।।
इस प्रकार हमें ‘चंदायन’ में लोक जीवन के व्यापक दर्शन होते हैं।
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