कवि ने ‘अछूत की शिकायत’ कविता में दलित चेतना के मुद्दों को बड़ी ही निर्भयता से प्रस्तुत किया है। कवि डोम ने इस संपूर्ण कविता में समाज व्यवस्था, जाति संरचना, धार्मिक प्रभुत्व, सामंती अन्याय व दलितों को अस्पृश्य मानकर बहिष्कृत प्रकट किए जाने की मानसिकता को उजागर किया है। वे ईश्वर अर्थात भगवान को कटघरे में खड़ा करते हैं। लगभग 100 वर्ष पूर्व इस प्रकार के मुद्दे ‘अछूत की शिकायत’ कविता में 20वीं शताब्दी के शुरुआती समय की समाज व्यवस्था का वर्णन किया गया है।
कवि कविता के प्रारंभिक के बंध में ‘हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी, हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइबि’ इसको वर्तमान न्यायिक भाषा में कह सकते हैं कि दलित समूह सरकार के समक्ष अपनी याचिका प्रस्तुत कर रहा है। कवि ने ‘सहेबे’ के साथ ‘अपना’ शब्द नहीं जोड़ा है, इसलिए ‘सहेबे’ को ईश्वर के अर्थ में प्रयोग नहीं कर सकते। कवि ‘सहेबे’ से तात्पर्य अंग्रेजी सरकार से है। कवि अंग्रेजी सरकार को यह बताना चाह रहा है कि इस देश के अछूत रात-दिन कैसे-कैसे दुख भोगते हैं, परंतु यह दुख ईश्वर नहीं देख रहा है। आगे की पंक्तियों में कवि ने भाग्यवाद और नियतिवाद को पर प्रहार किया है।
समाज में सवर्ण दबंग लोग दलितों के नाम बिगाड़कर संबोधित करते हैं, इसकी प्रतिक्रिया में कलि डोम ने भी भगवान को ‘भगवनओं’ कहकर उसके प्रति नफरत और उपेक्षा व्यक्त की है। कवि डोम करना जाता है कि तालीम वर्ग का है तो लिनों का शो करते हैं। पादरी साहब की कचहरी में जाते हैं, तो वहां उन्हें धर्मान्तरण के लिए कहा जाता है। कचहरी के इस प्रसंग से दलित व्यथित हो जाता है। कवि ने इन अवस्थाओं में उत्पन्न सामाजिक अंतर्विरोध और संघर्ष की दशाओं का वर्णन किया है। कवि को इस प्रकार के लोभ-लालच अर्थात पादरी की कचहरी में धर्मान्तरण के प्रसंग से कष्ट होता है। कवि एक ओर दलितों की मुक्ति की कामना करता है, वहीं दूसरी ओर पादरी के कचहरी में जाने पर धर्म भ्रष्ट होने से व्यथित होता है।
यहां स्पष्ट है कि कवि की चेतना में एक तरफ दलित मुक्ति की इच्छा है और दूसरी तरफ अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का लालच भी। इस अंतद्वंद्व को कवि ने बड़े ही स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया है। कविता की आगे की पंक्तियों में कवि ने इस सामाजिक वास्तविकता से परिचय कराया है कि सवर्ण हिन्दू दलितों को अछूत मानते हैं व उनका शोषण करते हैं, जबकि हिन्दुओं के ईश्वर के लिए सवर्ण हो या दलित- सभी समान होने चाहिए। अतः आगे के बंध में कवि ने ईश्वर को ही कटघरे में खड़ा करते हुए प्रश्न किया है कि जिन्हें रक्षक और दयालु माना जाता है, उस भगवान ने खंभा फाड़कर प्रहलाद को बचाया। गजराज की पुकार सुनकर उसे मगरमच्छ के मुंह से बचाया।
दुर्योधन जब द्रौपदी का चीरहरण कर रहा था, तब प्रकट होकर उन्होंने द्रौपदी के लिए वस्त्र को बढ़ा दिया। राम ने विभीषण को शरण दी और रावण का वध किया। कनिष्ठ अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया। अब वह भगवान कहां सो गया और हमारी पुकार क्यों नहीं सुनता? क्या मुझे ‘डोम’ समझकर छने से भयभीत हो रहे हो? यहां कवि यह कहना चाहता है कि भगवान भी अस्पृश्यता का व्यवहार करता है, क्योंकि भगवान जिन लोगों की पुकार सुनकर दौड़े-दौड़े आए, उनमें से कोई भी अस्पृश्य नहीं था, फिर भगवान किसी अस्पृश्य की पुकार क्यों नहीं सुनता ? कवि कहता है कि डोम केवल अछूत ही नहीं, शोषित भी हैं।
वे केवल अछूत होते, तो कोई बात नहीं थी, पर दुर्भाग्य यह है कि उनका आर्थिक रूप से शोषण भी होता है। कवि न भाग्यवादी है और न ही नियतिवादी । वह दलित समूह के दुःखों के लिए भगवान की सत्ता तक को चुनौती देते हैं। उनका रचनाकार बहुत ज्यादा भावुक है, लेकिन उसका बौद्धिक विमर्श अत्यंत तार्किक है। उनके इस कथन के प्रयुत्तर में कोई तर्क ही नहीं है कि प्रहलाद और द्रौपदी की रक्षा करने वाला भगवान दलितों की पुकार क्यों नहीं सुनता? कवि कहना चाहता है कि जो लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हैं व उच्च श्रेणी में आते हैं, नैतिकता के स्तर पर उनके कार्य एवं व्यवहार गलत हैं। पैसे के बल पर जिनका सामाजिक स्थान दलितों से श्रेष्ठ माना जाता है, वे ईमानदारी से मेहनत नहीं करते। यह लोग दलित मजदूरों को झूठे आरोपों एवं मुकदमों में फंसाकर जेल भिजवाने में दक्ष रहे हैं।
कवि ने मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए श्रम को प्रमुखता दी है। हम समाज में भाईचारा एवं साहचर्य होने की आकांक्षा रखते हैं, जबकि यहां का सामाजिक वास्तविकता पूर्णतः इसके विपरीत है। यहां कवि कविता की अंतिम पंक्तियों में सामाजिक विषमता से युक्त वर्तमान व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न अंकित करते हुए कहता है कि जो हाड़-मांस का शरीर हम मेहनती मजदूरों का है, वही शरीर ब्राह्मणों का भी है, किंत सामाजिक जीवन में ब्राह्मणों को ही श्रेष्ठ माना जाता है। ब्राह्मणों की तो घर-घर पूजा होती है तथा संपूर्ण क्षेत्र में उनकी जजमानी चलती है। किंतु दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी लेने की इजाजत भी नहीं है, उन्हें कीचड वाले गंदे तालाब का पानी पीना पड़ता है। इन सबके बावजूद भी सवर्ण लोग दलितों को मारते-पीटते हैं। अन्ततः दलितों को ही इतना कष्ट क्यों दिया जाता है?
कवि सामाजिक जीवन के अंतर्विरोध व दलितों के साथ होने वाले छुआछूत के व्यवहार को बड़ी ही स्पष्टता से प्रस्तुत करता है। कवि समझ ही नहीं पाता कि यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है, जिसकी आर्थिक विषमताएं तो ज्ञात होती हैं, लेकिन समाज ऊँच-नीच की क्रूर असमानता पर क्यों प्रतिष्ठित है। कवि अपने अनुभवों के आधार पर समाज जीवन के यथार्थ से परिचित कराता हैं। वह तुलनात्मक एवं तार्किक पद्धति से मानवता का वर्णन करता है।
यदि कोई दलित सार्वजनिक कुएं या तालाब से पानी लेने का प्रयास करता है, तो उस पर सवर्ण जातियों एवं प्रभुत्वशाली वर्गों द्वारा प्रहार किए जाते हैं। सामाजिक रूढ़ियों और परंपराओं को वैज्ञानिक आधार पर निरस्त करने के बावजूद भी उनको दोषी माना जाता है। सामाजिक विधान बताकर उन्हें मार दिया जाता है। इस प्रकार कवि ने सामाजिक जीवन में श्रमिक दलितों पर होने वाले अत्याचार, भेदभाव और शोषण के मुद्दों को प्रकट किया है।
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