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दलित साहित्य आंदोलन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें।

वैसे तो साहित्य में दलित वर्ग का उदय बौद्ध काल से माना जाता रहा है, लेकिन एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में। दलित साहित्य 20वीं शताब्दी की देन माना जाता है। हिन्दी साहित्य के पुरोधा माने जाने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक पुस्तक में साहित्य के सरोकारों को दर्शाने की कोशिश की है। परन्तु दलित चिंतक ओम प्रकाश बाल्मीकि जब यह कहते हैं कि हिन्दी साहित्य में ढूंढने पर भी हमें अपना चेहरा कहीं दिखाई नहीं देता, तब निश्चित तौर पर कचोटने वाला यह प्रश्न स्थापित साहित्य और समाज को कटघरे में खड़ा करने वाला है।

दलितों की परेशानी, दासता, दु:ख, गरीबी और उपेक्षापूर्ण जीवन का वास्तविक चित्रण करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। कष्ट और आह का उदात्त स्वरूप है दलित साहित्य । अंबेडकर के विचारों से दलितों को अपनी दासता महसूस हुई। उनकी वेदना को स्वर मिला, क्योंकि मूक समाज को अंबेडकर के रूप में अपना नायक मिल गया। दलितों की यह वेदना ही दलित साहित्य की जन्मदायिनी है। विमल थोरात के अनुसार दलित साहित्य में विद्रोह और नकार दलितों की वेदना से ही उत्पन्न हुए हैं। ये विद्रोह और नकार अपने ऊपर हिन्दू धर्म द्वारा थोपी गई अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ है।

जिस प्रकार दलित साहित्य में वेदना सामूहिक रूप से व्यक्त होती है, वैसे ही नकार और विद्रोह भी सामाजिक एवं सामूहिक है। जिस विषम व्यवस्था ने दलितों का शोषण किया, उसी व्यवस्था के प्रति यह विद्रोह और नकार है। इनका स्वर विषम व्यवस्था को नकारते हुए समता और आजादी, न्याय और बंधुत्व की मांग करता है- ‘मैं मनुष्य हूं, मुझे मनुष्य के सभी अधिकार प्राप्त होने चाहिए’ इस बोध से यह विद्रोह उत्पन्न हुआ है।

मराठी लेखक नारायण सुर्वे के अनुसार, दलित साहित्य की अपनी अलग पहचान है। वह पूरी तरह से समाजाभिमुख है। माजिक समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का भाव एवं वर्ण-व्यवस्था का विरोधी स्वर ही उसकी जड़ है तथा उसका प्रमुख लक्ष्य सामाजिक बदलाव है। वर्तमान में दलित साहित्य अखिल भारतीय स्वरूप धारण कर चुका है। लगभग साहित्य की समस्त विधाओं में दलित साहित्य की अभिव्यक्ति मुखरित हुई है। अस्मिता और आत्मसम्मान के लिए हीनता के भाव को छोड़कर अनेक भाषाओं में दलित आत्मकथाएं अपने वेदनामय जीवन के अनुभवों के आधार पर प्रकट हई हैं।

मराठी में दया पवार की ‘अछत’, शरण कुमार लिंबाले की ‘अक्करमाशा’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपनेअपने पिंजरे’, ओम प्रकाश बाल्मीकि की ‘जूठन’, बेबी कांबले की ‘जीवन हमारा’, सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’ एवं कौसल्या बैसत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ आदि आत्मकथाओं ने हिन्दी क्षेत्र में स्थापित परंपरागत हिन्दी साहित्य के सामने नई चुनौती प्रस्तुत की है। ये आत्मकथाएं हीनता बोध से दलित को बाहर ला रही हैं। दलित कथा – साहित्य से दलित संवेदना को व्यापक दृष्टि मिल रही है। दलित कहानियां पारंपरिक कथा साहित्य के धरातल और अवधारणाओं को नकारकर मुक्त संसार की रचनाधर्मिता को निर्मित करके उसे सामाजिक सरोकारों से जोड़ रही हैं। दलित आत्मकथा लेखन ने साहित्य और समाज को झकझोर कर रख दिया है। इससे साहित्य जगत में भूकम्प-सा आ गया है।

मराठी तथा अन्य अहिंदीभाषी दलित आत्मकथाओं की हिन्दी में सुलभता ने दलित आंदोलन को तीव्रता प्रदान की है। मराठी से अनूदित दलित आत्मकथाओं ने वर्ण-व्यवस्था का भयानक चित्र प्रस्तुत किया है तथा हिन्दू संस्कृति की महानता पर सवाल खड़े किए हैं। मूलत: मराठी भाषी कौसल्या बैसत्री ने हिन्दी में अपनी पहली दलित आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ लिखी है। इसमें कौसल्या बैसत्री ने जो भी उनके जीवन में उनके परिवार घटा, बिना किसी लाग-लपेट के साधारण भाषा में समाज के सामने प्रस्तुत कर दिया है, साथ ही यह बताने का प्रयास भी किया है कि शोषण करने वाले सिर्फ बाहर से ही नहीं, अपितु अपने भी होते हैं।

लेखिका ने संदेश दिया है कि मक्ति की इच्छा रखने वाले को यह लड़ाई स्वयं लड़नी होगी तथा इसमें डरकर चुपचाप बैठ जाना नहीं, बल्कि दोगुने साहस से, उत्साह के साथ अपनी मंजिल को प्राप्त करने का स्वप्न साकार करना है, तभी दलित आंदोलन, दलित साहित्य और साहित्यकारों की सार्थकता सिद्ध हो सकती वरना सभी कोशिशें बेकार हो जाएंगी। इस प्रकार से दलित साहित्य का स्वरूप व्यापक होता जा रहा है। विश्व दलित साहित्य सम्मेलनों का । आयोजन तथा विदेशों में उक्त विषय पर अनुसंधान इस बात के साक्ष्य हैं कि दलित साहित्य की प्रासंगिकता किस प्रकार आगे बढ़ रही है।

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