कभी-कभी उत्तर आधुनिकवाद तथा उत्तर आधुनिकता दोनों शब्दावलियों का प्रयोग एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में किया जाता है। जब वास्तवकिता यह है कि दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। इतना अवश्य है कि ये अर्थ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उत्तर आधुनिकता शब्द का प्रयोग जहाँ समकाल, विकसित समाजों के अस्तित्व की सामाजिक स्थितियों और इन समाजों की अर्थव्यवस्था के चित्रण के लिए किया जाता है, वहीं उत्तर आधुनिकतावाद का अर्थ उस दर्शन से है, जो आधुनिकता के दर्शन के बाद तथा इसके बीच उत्पन्न हुए हैं। उत्तर आधुनिकतावाद के कुछ प्रमुख दार्शनिकों के नाम तथा विचार निम्नलिखित हैं |
मिशेल फूको (1926 1984) फूको एक फ्रांसीसी दार्शनिक था, जिसे एक जटिल विचारक माना जाता था। उसके विचारों के दायरे में विभिन्न विषय तथा विभिन्न प्रकार के विचार शामिल हैं। लेकिन फिर भी उसे एक उत्तर आधुनिक विचारक माना जाता है, क्योंकि वह प्रबोधन संबंधी विचारों और आधुनिकता का बहुत बड़ा आलोचक था। उसके लेखन से मानव विज्ञान और समाज विज्ञान बहुत ही प्रभावित हुआ जो अभी तक कायम है। उसके कार्यों विभिन्न विषयों के संदर्भ में जैसे कि इतिहास, संस्कृति संबंधी अध्ययन, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य, सिद्धान्त और शिक्षा में उल्लेख किया जाता है। उसे इस बात से बहुत प्रसिद्धि मिली थी।
उसने विभिन्न सामाजिक संस्थानों की आलोचना की। मनोचिकित्सा चिकित्साविज्ञान और जेलों जैसी संस्थाओं और क्षेत्रों में उसकी बहुत आलोचना हुई। इन बातों के अतिरिक्त उसे इस काम के लिए भी बहुत ख्याति मिली कि सत्ता और सत्ता ज्ञान के बीच उसने सामान्य सिद्धान्तों पर काम किया और साथ ही सश्चिमी विचारों के इतिहास के संदर्भ में उसने जो विमर्श प्रस्तुत किया, वह भी बहुत उल्लेखनीय है। जैक देरिदा (1930 2004 ) देरिदा एक अन्य फ्रांसीसी दार्शनिक है, जो उत्तर-आधुनिक सिद्धान्त के विकास में और विशेष रूप में इसे भाषायी मोड़ प्रदान करने में अत्यन्त महत्त्व के साबित हुए हैं। उत्तर संरचनात्मक और उत्तर आधुनिक विचारों के विकास में देरिदा का बुनियादी योगदान उनका विखंडन का सिद्धान्त है। इसके अनुसार लिखित पाठ जटिल सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का उत्पाद है। इसके अतिरिक्त इन पाठों को अन्य पाठों तथा लेखन की परिपाटियों के संदर्भ में ही परिभाषित किया जा सकता है।
देरिदा के अनुसार मनुष्य का ज्ञान पाठों तक सीमित है तथा इन पाठों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। भाषा के माध्यम से यथार्थ का निर्णय होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भाषा से बाहर कोई दुनिया नहीं है। ज्याँ फ्रांसुआ ल्योतार्द ( 1924 1998 ) ल्योतार्द एक प्रमुख विचारक है, जिन्होंने उत्तर-आधुनिक शब्दावली को प्रसारित किया है। उसने अप… पुस्तक को सरलीकृत भाषा में प्रस्तुत किया। वे इसे आत्मा का द्वन्द्व, अर्थ का व्याख्यात्मक स्वरूप, तर्कसंगतता की मुक्ति या सम्पत्ति की रचना बताते हैं। ल्योतार्द के द्वारा इन सभी चीजों के प्रति शंका व्यक्त की गई। उनके द्वारा आधुनिकतावादी सिद्धान्तों की आलोचना की जो ऐसे विचारों को समग्र और सार्वभौम रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति रखते हैं बुनियादी रूप में विचार आधुनिक यूरोप के उत्पाद हैं उनके द्वारा आधुनिकतावादी सिद्धान्तों की आलोचना की गई, जो ऐसे विचारों को समग्र और सार्वभौम रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृति रखते हैं। बुनियादी रूप में ये विचार आधुनिक यूरोप के उत्पाद हैं। उनके द्वारा आधारभूत को भी खारिज किया गया है, जिसके अंतर्गत हर प्रकार के ज्ञान को सुरक्षित सैद्धान्तिक बुनियाद पर आधारित ठहरा दिया जाता है।
ज्याँ बौद्रिआ बौद्रिआ भी फ्रांस के विचारक थे, जिनका आधुनिकतावाद से घनिष्ठ संबंध था। बौद्रिआ के अनुसार उत्तर आधुनिक स्थिति को पैदा करने वाली तीन परिघटनाएँ हैं-छद्म रूप, अति यथार्थ और अंतः स्फोट। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस नए युग में मीडिया अथवा टेलीविजन की तस्वीरों ने वास्तविकता का स्थान ले लिया है, ये छद्म रूप दिनोंदिन इतने शक्तिशाली होते जा रहे हैं कि इनसे ही सामाजिक जीवन के आदर्श तय होने लगे हैं। बौद्रिआ ने उत्तर आधुनिक जगत को एक अंत:स्फोट के रूप में परिभाषित किया है, जहाँ वर्गों समूहों और पुरुषों-महिलाओं की परम्परागत सीमाएँ धराशायी हो रही हैं। इस उत्तर-आधुनिक दुनिया का न तो कोई अर्थ है, न कोई लय है और न इसका कोई तर्क है, इनमें न कोई केन्द्र है यह नकारवाद की दुनिया है। इसमें न कोई केन्द्र है और न कोई उम्मीद है। जिस तरह आधुनिकता की उत्तर आधुनिक आलोचना पूर्ण इन्कार से लेकर आंशिक स्वीकार्यता तक है, उसी तरह उत्तर आधुनिकतावाद की आलोचना का क्षेत्र भी जबरदस्त प्रहार तथा पूर्ण रूप में इसे नकारने से लेकर कुछ हद तक इसकी स्वीकार्यता तक फैला हुआ है।
आलोचकों के द्वारा यह बात उठाई गई है कि उत्तर आधुनिकता सापेक्षतावाद के कुछ अतिवादी रूप में निहितार्थ यह हो सकता है कि सब कुछ चलता है लेकिन इस प्रकार की बात यथास्थिति को उचित ठहरा सकती है, जहाँ सब कुछ कायम रहता है। पूर्ण सापेक्षतावाद और नकारवाद समाज के रूपांतरण से इन्कार करता है और दमनकारी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था को परिवर्तित करने की दिशा में कुछ नहीं करता है। ज्ञान को अलग-अलग खानों में बांटकर और सामाजिक-सांस्कृतिक चोहद्दियों को अत्यंत लघुस्तरों तक चिन्हित कर यह उत्पीड़ितों के बीच एकता का निर्माण असंभव बना देता है। इसके अलावा समाज और संस्कृति का उत्तर आधुनिक विश्लेषण असंतुलित है, क्योंकि यह बिखराव की प्रवृत्तियों पर आधारित बल देता है और संश्लेषीकरण तथा व्यापकतर संगठन की दिए में काम कर रहे समान रूप से महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों की पूर्ण रूप में अनदेखी करता है।
एक अन्य स्तर पर असंख्य छोटी और बड़ी प्रणालियों, और संगठनों में विपरीत सत्ता की संकल्पना को ठोस रूप प्रदान करते हुए उत्तर आधुनिकतावाद सत्ता के केन्द्रीकरण को धूमिल बनाता है और दमन तथा प्रतिरोध के बुनियादी संबंधों को धूमिल बनाया है। प्रभुत्व और दमन के अस्त्र के रूप में यह राज्य सत्ता की भूमिका को भी नजरअन्दाज करता है। कुछ आलोचकों के द्वारा उत्तर आधुनिकतावाद पर यह भी आरोप लगाया कि यह बहुत ही इतिहासवादी है, क्योंकि वह यह वर्तमान तथा वर्तमान के उत्तर आधुनिक चरित्र की अनिवार्यता को स्वीकार करता है। अगर दुनिया आज उत्तर आधुनिक है तो इसमें रहने के लिए हम अभिशप्त हैं लेकिन पश्चिमी जगत ने जिस तरह की उत्तर आधुनिकता को आज जन्म दिया है। वह पहले की उस सामाजिक संरचना से किसी भी मामले में बेहतर नहीं है, जिसे लांघते हुए उत्तर आधुनिकता के आगमन को माना जाता है।
इसके अतिरिक्त यह भी बहुत निश्चित नहीं है कि क्या आधुनिकता का सचमुच अंत आ गया है। वस्तुतः पूर्व औपनिवेशिक तथा अर्द्ध औपनिवेशिक समाजों और पूर्व यूरोपीय देशों के अधिकांश हिस्से आज खुद के आधुनिकीकरण में समस्या है। यहाँ तक कि पश्चिम में भी आधुनिकता की मुख्य विशिष्टताएँ अभी भी विद्यमान हैं, जैसे कि औद्योगिक अर्थव्यवस्था, राजनीतिक पार्टियाँ और राजनीतिक समूह बाजार, यूनियन, राज्य के नियम, कानून, विषय आधारित ज्ञान इत्यादि इसलिए, उत्तर आधुनिकता की अवधारणा अधिकांशत: बौद्धिक और शैक्षणिक स्तर पर ही आधारित है। आलोचकों का यह भी कहना है कि उत्तर संरचनावाद से निकले अनेक उत्तर आधुनिकतावादी तथ्यों तथा यथार्थ जानने की संभावना से इन्कार करते हैं, इसके परिणामस्वरूप किसी भी घटना को दूसरी घटना की तुलना में महत्त्व नहीं दिया जा सकता है।
अतीत की सभी घटनाएँ समान महत्त्व की मानी जाती हैं। इस प्रकार सिद्धान्त रूप में महान जन संहार (होलोकॉस्ट) या इस तरह की किसी भी तरह की बर्बरता को चाहे वह दुःख हो या पहचानमुक्त। इसी तरह की किसी अन्य घटना के बराबर रखा जा सकता है। वह हमारे लिए घटनाओं और इतिहासों का निमाण करती है।
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