दलितों के प्रति अन्याय-अत्याचार, उनके उत्पीड़न-शोषण की करुण कथा कहने के संकेत तो प्रेमचन्द के उपन्यासों (कर्मभूमि) . ‘ कहानियों (ठाकुर का कुआँ) में ही मिलने लगते हैं, पर उनमें इस वर्ग की दीन दशा दिखाकर उसके प्रति सहानुभूति, दया, उदारता का भाव दिखाया गया है । शोषकों से सविनय आग्रह किया गया है कि वे क्रूर न बनें, अत्याचार न करें । उनमें विद्रोह का स्वर नहीं है, यदि है भी जैसे ‘ठाकुर का कुआँ’ की गंगी में तो वह मानसिक है, मुखर नहीं है, कथनी में है, करनी में नहीं है । दलित साहित्य लिखने का श्रेय मराठी साहित्यकारों को है ।
मराठी लेखकों ने पहली बार दलितों के जीवन की करुण गाथा ही नहीं लिखी, वर्तमान समाज-व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करने, उसमें परिवर्तन लाने और उसके लिए संघर्ष करने की बात भी कही। महाराष्ट्र में पहले सामाजिक विद्रोह के रूप में हुआ और उसके संचालक थे बाल शास्त्री जांमेकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर तथा विचारक, चिंतक और लेखक डा. ताराचन्द खांडेकर ।
इन महापुरुषों ने संस्थाएं स्थापित की जैसे अनार्य दोष परिहार, आंदोलन चलाये जैसे सत्यशोधक आंदोलन, पत्र-पत्रिकाएं निकाली जैसे विराल विध्वसंक, पुस्तकें लिखीं जैसे जाति भेद, विवेक सार, दलित वर्ग के लड़कों-लड़कियों के लिए पाठशालाएं खोली ।
हिन्दी साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी से दलित कहानी का आविर्भाव हुआ । दलित जीवन में व्याप्त दारिद्रय, दीन-हीनता, विवशता और दुख के दृश्य इनकी कहानियों में कई बार बड़ी सफलता से अंकित किए गए हैं । इस दृष्टि से इनकी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’, ‘सलाम’, ‘कमीन’, ‘अम्मा’, ‘शवयात्रा’ कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हैं । हिन्दी साहित्य में जिस स्वत्वबोध की भावना के कारण दलित कहानी ने अपनी विशिष्टता सिद्ध की है, वह सर्वप्रथम ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में ही व्यक्त हुई है।
दलित कहानियों के विषय हैं – दलित समाज की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याएं, उनकी गरीबी, उनको अस्पृश्य समझ कर उनका अपमान और तिरस्कार करना, दलित स्त्रियों को भोग की वस्तु समझ कर उनका खिलौनों की तरह उपयोग करना, सामंतीय मनोवृत्ति तथा ब्राह्मणवादी या मनुवादी प्रवृत्तियों की क्रूरता तथा अमानवीयता का पर्दाफाश करना ।
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