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पार्वती अम्माँ का चरित्र

 पार्वती अम्माँ ‘मानस का हंस’ उपन्यास के प्रारंभ में आने वाली महत्त्वपूर्ण स्त्री चरित्र हैं। उपन्यास के प्रमुख चरित्र तुलसीदास को रचने और गढ़ने का दायित्व निभाने वाली पार्वती अम्मा निश्चय ही एक विशिष्ट पात्र हैं। उपन्यास में पूर्वदीप्ति पद्धति के माध्यम से तुलसीदास, पार्वती अम्माँ का स्मरण करते हैं। ज्योतिषी पिता के घर में जन्मे बालक तुलसी के आगमन पर पत्नी के निधन से नवजात को अनिष्ट की आशंका मानकर पिता ने एक दासी को उसे सौंप दिया। दासी ने अपनी सास पार्वती अम्माँ को बालक सौंप दिया। जन्म से ही उपेक्षित और स्नेहहीन बालक को स्नेह का अवलंब देने वाली चरित्र गावती अम्माँ हैं।

गगतागगी-अपने घर से निष्काषित बालक को सहारा और ममता देने वाली पार्वती अम्मा एक विलक्षण पात्र हैं। बाल्यावस्था में तुलसी जैसे अनाथ बालक का दायित्व पार्वती अम्माँ भिक्षा से उदरपृर्ति करते हुए भी ममता से भरपूर थी। उन्होंने बालक तुलसी का स्नेह और ममता से दुलराया और ईश्वर भक्ति की और भी प्रवृत्त किया। प्रयास भनेक अंशों में तुलसी पार्वती सामाँ का कल्पी दिखाई देते हैअपनी कथा सुनने का कहते हैं-“मेरी आदि गुरु परम तपस्विनी पार्वती अम्माँ ही थीं। मानो शकर भगवान ने मुझे जिलाए रखने के लिए ही जगदम्बा पार्वती को भिखारिन बनाकर भेज दिया था।”

विरुद्धों के सामंजस्य वाले गुणों से भरपूर-उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने तुलसी के जीवन का रचने की प्रक्रिया में पार्वती अम्माँ को सर्वोपरि रखा है। जाति में होन. समाज में स्त्री और विपन्न आर्थिक स्थिति वाली पार्वती अम्माँ के प्रसंग में हर बार तुलसी आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं। इसका प्रमुख कारण है पार्वती अम्माँ अपनी साधारण स्थिति में भी अपने विचारों, अपनी आस्थाओं और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि के कारण असाधारण चरित्र हैं। पार्वती अम्माँ को चर्चा आते ही तुलसीदास उनके चारित्रिक गुणों को बताते हैं-“दरिद्रता में इतना वेभव, दुर्बलता में इतनी शक्ति और कुरूपता में इतनी सुंदरता मैंने पार्वती अम्माँ के अतिरिक्त औरों में प्रायः कम ही देखी।”

तुलसीदास ने अपने जीवन में अनेक स्त्रियों को निकट से देखा-जाना था। उनमें से वे पार्वती अम्माँ को यदि दरिद्रता में वैभवसम्पन्न कहते हैं तो यह वैभव उनके अनूठे संतोषी व्यक्तित्व का है। दुर्बलता में शक्ति है तो यह उनकी मन का अटूट साहस है। कुरूपता में सुंदरता है तो यह उनके सदचरित्र और उदात्त जीवन का सौंदर्य है। इस तरह विरुद्धों के सामंजस्य से बना उनका व्यक्तित्व आकर्षित भी करता है और प्रेरित भी।  वास्तविक माता न होते हुए भी पार्वती अम्माँ ने न सिर्फ तुलसी का भरण पोषण किया बल्कि बालक को निष्ना और सुरुचिपूर्ण तरीके से पाला। जिस बालक को जन्म से ही अपने घर से उपेक्षा मिली उसे जीते जी पार्वती अम्माँ ने कभी उपेक्षित नहीं किया।

भक्तकवि तुलसी को भक्ति का मंत्र देने वाली पार्वती अम्माँ ही थीं। माँ बच्चे के जीवन की पहली गुरु होती है और तुलसी पार्वती अम्माँ को इसी रूप में सदा मानते रहे। एक निरक्षर स्त्री ने गुरु बनकर उन्हें भक्ति का मंत्र दिया। उपन्यास में राजा भगत द्वारा पार्वती अम्माँ के पढ़ाने-लिखाने के बारे में पूछे जाने पर तुलसी बतलाते हैं-“पार्वती अम्माँ तो बेचारी मुझे इतना ही पढ़ा गई कि जब-जब भीर पड़े तब-तब बजरंग बली को देगे। कहो कि हे हनुमान स्वामी, तुम हमें राम जी के दरबार में पहुंचा दो जिससे कि हम अपनी भली-बुरी निवेदन कर लें।” यही नहीं बाल्य अवस्था से ही भिक्षाटन से अपमान अनुभव करने वाले बालक तुलसी को समझाते हुए पार्वती अम्माँ कहती हैं-“यह दुख नहीं तपस्या है बेटा। 

पिछलं जनमों में जे पाप किए हैं वो इस जनम में तपस्या करके हम धो रहे हैं कि जिससे अगले जनम में हमें सुख मिले।” जीवन की प्रतिकुलताओं और पीड़ा को सहने का पार्वती अम्माँ का बतलाया. यह दर्शन विफल नहीं जाता। पार्वती अम्माँ की मृत्यु के बाद संघर्षों से जूझने में यह मत्र सफल होता है। जीवन के अंतिम समय में इस दर्शन को तुलसी इस प्रकार समझते-समझाते हैं “पार्वती अम्माँ सच हो कहती थी कि जससे यम जी तपस्या कराते हैं उसे ही दुख-दुर्भाग्य के अथाह समुद्र में भयंकर क्रूर तिमि-तिमिगलों के बीच में छोड़ देते हैं। उनसे अपनी रक्षा करना ही अभागे की तपस्या कहलाती है। अब सोचता हूँ राम जी ने मुझ पर अत्यंत कृपा करके ही यह सारे दुख डाले थे। इन्हीं दुखों की रस्सी का फंदा डालकर मैं राम-नाम की ऊँची अटारी पर आज तक चढ़ता चला आया हूँ।”

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