Recents in Beach

माँझी ! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता माँझी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता

 माँझी ! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता

   मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता

   जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता

   माँझी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता

   मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन दूटता

   तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता

   मॉँझी! न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता

   मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता

   मेरा तन तेरा लन एक बन झूमता।

उत्तर – सन्दर्भ और प्रसंग

'माँझी न बजाओ बंशी... शीर्षक कविता 'फूल नहीं रंग बोलते हैं! (1965) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। यह उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। कवि का विचार है कि कला माध्यमों में इतनी क्षमता होती है कि वह दूसरों को आत्मसात कर लेती है। माँझी की वंशी की आवाज के साथ कवि का आत्मसातीकरण इस कविता की विशेषता है।

व्याख्या

इस कविता में केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं कि माँझी, तुम जब वंशी बजाते हो तो मेरा मन डोलने लगता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम वंशी न बजाओ!

   तुम जब वंशी बजाते हो तो उसका प्रभाव सबसे पहले मेरे मन पर पड़ता है। तुम्हारी धुन पर मेरा मन धीरे-धीरे डोलने लगता है। मेरा मन वैसे ही डोलता है जैसे गहरे पानी में हलचल होती है। हिलता हुआ पानी इतने बड़े जहाज को भी डोलने को विवश कर देता है। इस दोलन में जहाज पल-पल झूमता ही जाता है।

   माँझी, मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी वंशी की आवाज से अप्रभावित रहूँ। तुम लोक के कलाकार हो और गवई शैली की कला तुम्हारी पहचान है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी कला से एकाकार हो जाऊँ।! मगर क्‍या करूँ, तुम जब वंशी बजाते हो तो मेरी प्रतिज्ञा टूटने लगती है। मेरी प्रतिज्ञा उतनी ही आसानी से टूटती है जैसे घास टूट जाती है या घास-फूस से बनी हुई झोपड़ी टूट जाती है। बार-बार झोपड़ी बनाने की तरह मैं भी बार-बार कसम खाता हूँ, मगर मेरी कसम झोपड़ी की तरह बार-बार टूट जाती है।

   मॉझी, तुम वंशी मत बजाओ! मेरा मन तो डोल ही रहा था, अब तन भी डोल रहा है। मन का डोलना शायद कोई देख न पाए मगर तन का डोलना तो सबके द्वारा देख लिया जाता है। मैं चाहता नहीं कि तुम्हारी वंशी की धुन के साथ मेरी एकात्मकता को लोग चिह्नित करें! लेकिन क्‍या किया जाए! अब तो मेरा शरीर वैसे ही झूम रहा है. जैसे तुम्हारा तन झूम रहा है। थोड़ी ही देर में मेरा और तेरा तन मानो एकाकार होकर झूमने लगा है।

काव्य सौष्ठव

·         यह कविता लोक कला की शक्ति को प्रकट करती है।

·         सभ्य समाज लोक कला से दूरी रखना चाहता है, मगर उसकी शक्ति से अप्रभावित नहीं रह सकता।

·         आज भी लोक धुन पर आधारित गीतों को व्यापक लोकप्रियता मिलती है। कई बार तो शहरी समाज जानता भी नहीं है कि वह जिस धुन को पसंद कर रहा है उसके मूल मे कोई लोक धुन है।

·         6 25, 24 और 21 मात्राओं की तीन-तीन पंक्तियों के क्रम से इस कविता का निर्माण हुआ है। पूरी कविता में तीन-तीन पंक्तियों के कुल तीन चरण हैं।

विशेष

केदारनाथ अग्रवाल ने लोक जीवन के संगीत की शक्ति को मनोहर रूप में व्यक्त किया है। उनका ख्याल है कि प्रकृति के करीब रहने वाला जन-जीवन अपने स्वभाव से इतना आत्मीय होता है कि वह दूसरों के मन तक पहुँचने की अपार क्षमता रखता है।

Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE

For PDF copy of Solved Assignment

WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

Post a Comment

0 Comments

close