कृत्रिम भू-जल पुनर्भरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा भू-जलाशय को प्राकृतिक परिस्थितियों के अंतर्गत जल पुनर्मरण तुलना में अपेक्षाकृत उच्च दर से भरा जाता है। मनुष्यों द्वारा तैयार की गई कोई योजना या ऐसी सुविधा जिससे भू-जलाशय में कम हो गए जल की पुनर्पूर्ति होती हो, को कृत्रिम पुरर्भरण प्रणाली,/संरचना माना जा सकता है। इसे जलभर में जल को भंडारित करने के लिए खोदे गए गड्ढे अथवा कुंए या मानव क्रियाकलापों के माध्यम से अनियोजित ढंग से अथवा अचानक तैयार हुए गड्ढे का रूप दिया जा सकता है, जैसा कि यदा-कदा सतही जल सिंचाई के मामले में होता है। कृत्रिम पुनर्भरण संबंधी अधिकांश योजनाएं इस विशिष्ट उद्देश्य से नियोजित की जाती हैं कि घरेलू अथवा सिंचाई में उपयोग करने के उद्देश्य से ताजे जल को बचाया जा सके या उसे भंडारित किया जा सके।
कृत्रिम भूजल पूर्नमरण के लाभ
1) सतही जलाशयों की तुलना में उप सतही जलाशयों के पुनर्भरण की लागत कम होती है;
2) नहरों, झीलों तथा ग्रामीण तालाब जैसे सतही जल स्रोतों वाले क्षेत्रों में (जहां जल अपर्याप्त माता में है) जल समस्या का यह एक आदर्श समाधान है;
3) इससे भू-जल के तल ऊपर उतते हैं;
4) भू-जल प्रत्यक्ष रूप से वाष्पन अथवा प्रदूषण से प्रभावित नहीं होता है;
5) इससे सूखे का प्रभाव कम होता है तथा सूखे के प्रति अवरोधता प्राप्त होती है;
6) रनऑफ कम होता है जिसके परिणामस्वरूप पानी नालों में तेजी से बहकर व्यर्थ नहीं जाता है और इसके साथ ही सडढकों या पार्कों आदि में भी वर्षा के दौरान पानी नहीं भरता है;
7) भू-जल की गुणवत्ता में सुधार होता है;
8) मृदा कटाव में कमी आती है; तथा
9) भू-जल को ऊपर उठाने (लिफ्ट करनें) में ऊर्जा की बचत होती है - जल के तल में एक मीटर की वृद्धि होने से लगभग 0.40 कि.वा. बिजली की बचत होती है।
कृत्रिम मू जल पुनर्मरण की विधियां
भू-जल जलाशय के पुनर्भरण के लिए विभिन्न प्रकार की विधियों, और तकनीकों का उपयोग किया जाता है। किसी क्षेत्र की जल-भू-वैज्ञानिक स्थितियों के आधार पर अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की विधियां प्रयुक्त होती हैं। कृत्रिम पुनर्भरण की तकनीकों को मोटे तौर पर निम्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है :
क) प्रत्यक्ष सतही तकनीकें
• थाले या निच्छालन तालाब;
• गड्ढा या नाली प्रणाली; और
• चैक बांध / नाली बांध / गैबियन संरचनाएं।
ख) प्रत्यक्ष उप सतही तकनीकें
• पुनर्भरण गड्ढे;
• पुनर्भरण खाइया (खंदकें);
• पुनर्भरण शैफ्ट;
• इंजेक्शन कुंए या पुनर्भरण कुंए; और
• खोदे गए कुंए का पुनर्भरण।
ग) सतही और उप-सतही, दोनों तकनीकों का संयोग
• थाला या गड़्ढा युक्त निच्छालन तालाब, शैफ्ट या कुंए;
• नलकूपों से गड्ढों का पुनर्भरण; और
• नलकूपों से शैटों,/ खाइयों का पुनर्भरण।
शहरी क्षेत्रों के लिए कृत्रिम पुनर्मरण की विधियां
1) पुनर्भरण गड्ढे;
2) पुनर्भरण खाइयां;
3) इस्तेमाल न होने वाले नलकूपों द्वारा पुनर्मरण;
4) खोदे गए कुंओं का पुनर्भरण; और
5) नलकूपों सहित या नलकूपों रहित पुनर्भरण शैट
ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कृत्रिम पुनर्भरण की विधियां
1) नालियां रोकना (गली प्लगिंग);
2) कंटूर बांध;
3) गैबियन संरचनाएं;
4). निच्छालन तालाब;
5) चैक बांध/सीमेंट के रोक, नाला बांध; हे
6). पुनर्भरण शैट;
7) खोदे हुए कुंए द्वारा पुनर्भरण; और
8) भू-जल बांध,/उप-सतही छोटे बांध।
1. नाली और कंदूर बांध
अनियमित तथा ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में उचली, समतल तली और पास-पास स्थित नालियां / कूड़ें अथवा कंटूर बांध बनाए जाते हैं ताकि भू-जल का पुनर्भण किया जा सके। नाली की गहराई संबंधित स्थान की स्थलाकृति तथा इस तथ्य को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है कि अधिकतम नम रखा जाने वाला क्षेत्र उपलब्ध हो, तथा समान प्रवाह गति बनाए रखी जा सके। नालियों में ढलान इस प्रकार होना चाहिए कि प्रवाह की गति एक समान बनी रहे तथा तलछट कम से कम जमा हो। नालियां उथली, समतल तलीं वाली तथा प्रास-पास बनी होनी चाहिए, ताकि सर्वाधिक सम्पर्क क्षेत्र प्राप्त किया जा सके | मृदा की नमी को संरक्षित करने के लिए कंटूर बांध बनाना सर्वाधिक प्रभावी विधि है तंथा यह राजस्थान जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। कंटूर बांध बनाना उन क्षेत्रों के लिए भी उपयुक्त है जहां की भूमि हल्की ढलान वाली तथा टैरिस के बिना होती है। दो कंटूर बांघों के बीच का अंतराल उस क्षेत्र के ढलान तथा मृदा की पारगम्यता (मृदा की पारगम्यता से तात्पर्य मृदा माध्यम से प्रवाहित होने वाली जल मात्रा से है) पर निर्भर करता है।
2. निच्छालन तालाब / विस्तारित थाला
निच्छालन तालाब कृत्रिम रूप से निर्मित जल काया (वाटर बॉडी) है जिसे सतही रनऑफ रोककर जल को जमीन के अंदर रिसने तथा भू-जल पुनर्भरण के लिए बनाया जाता है। ये संरचनाएं भारत में सर्व सामान्य रूप से पाई जाती हैं क्योंकि इनसे दोनों प्रकार के अर्थात् जलोढ़ तथा कठोर चट्टान वाले क्षेत्रों में भू-जल जलाशय का पुनर्भरण किया जा सकता है। निच्छालन तालाब वे जल भंडारण तालाब हैं जिनकी तली की सतह अत्यंत सरंध्रीय बनायी जाती है, ताकि उससे होकर जल भूमि में आसानी से निच्छालित हो सके। ये निच्छालन तालाब अत्यधिक दरारों वाली तथा मौसमी प्रभाव से टूटे हुए चट्टानी क्षेत्रों या बड़े-बड़े पत्थर वाले क्षेत्र होते हैं जोकि निच्छालन तालाब के लिए सबसे आदर्श स्थान हैं। चलने-फिरने से किनारों को टूटने या क्षरित होने से बचाने के लिए सर्वोच्च जल भराव वाले तल पर ऊपर की ओर धारा पर पत्थरों की चिनाई की जाती है। पुनर्भरण क्षेत्र के निचले भाग में पर्याप्त संख्या में कुंए व खेती योग्य भूमि होनी चाहिए, ताकि भू-जल के बढ़ने से कृषि सम्बंधी लाभ पहुंच सके। निच्छालन तालाबों की भंडारण क्षमता 30-60 मिलियन लिटर रखी जाती है।
3. चैक बांघ, सीमेंट के रोक तथा नाला बांध
चैक बांध उन छोटी धाराओं के आर-पार बनाए जाते हैं जिनका ढलान बहुत हल्का (कम) होता है। इन संरचनाओं में भंडारित जल अधिकांशतः धारा के मार्ग तक ही सीमित रहता है और इन बांधों की ऊंचाई सामान्यतः 2 मीटर से कम होती है। ये धारा की चौड़ाई पर बनाए जाते हैं तथा अतिरिक्त जल को दीवार के ऊपर से प्रवाहित होने दिया जाता है। किसी नाले या धारा में ही रनऑफ का सर्वाधिक उपयोग करने के लिए ऐसे अनेक चैक बांध बनाए जा सकते हैं, ताकि क्षेत्रीय स्तर पर जल का पुनर्भरण हो सके | नाला बांध बड़े नालों के आर-पार बनाए जाते हैं। नाला बांध छोटे निच्छालन तालाब के रूप में कार्य करता है। नाले की चौड़ाई कम से कम 5 मीटर तथा अधिक से अधिक 15 मीटर होनी चाहिए और गहराई 1 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए। नाले की तली पर्याप्त रूप से पारगम्य होनी चाहिए। चुने गए स्थान की पारगम्य पर्त पर्याप्त मोटी होनी चाहिए तथा इसे स्वतः निर्मित होना चाहिए। ताकि भंडारित जल अत्यंत कम समय में पुनर्भरित हो सके। ये चैक बांध उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र के भावर व कांडी क्षोत्रों में सर्वाषिक लोकप्रिय व व्यावहारिक हैं। नाले से रनऑफ की सर्वाधिक मात्रा एकत्र करने के लिए चैक बांधों की श्रृंखला बनाई जानी चाहिए, ताकि क्षेत्रीय स्तर पर जल का पुनर्भरण हो सके।
4. गैबियन संरचना
यह एक प्रकार का चैक बांध है जो सामान्यतः: छोटे नाले के आर-पार बनाया जाता है। स्थानीय रूप से उपलब्ध पत्थरों को लोहे के तार की जाली से बांध कर रोक दिया जाता है। पत्थर युक्त इस जाली को नालों के आर-पार रख दिया जाता है, ताकि नालों के किनारों पर छोटा बांध बन जाए। गैबियन संरचना की ऊंचाई सामान्यतः: 0.5 मीटर रखी जाती है और इसका उपयोग लगभग 10 से 15 मीटर चौड़े नालों के लिए किया जाता है। आगे चलकर जल में उपस्थित बालू नाले के निचले भाग में तलछट के रूप में जमा हो जाती है जो पत्थरों के बीच मौजूद खाली स्थान में भर जाती है और इस प्रकार, पत्थरों की यह रोक और अपारगम्य हो जाती है जिससे सतही रनऑफ जल को वर्षा के पश्चात् पुनर्भरण हेतु रोकने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। अतिरिक्त जल संरचना के ऊपर होते हुए बह जाता है और कुछ जल मात्रा भंडारित होती है जो पुनर्भरण के लिए आवश्यक स्रोत की भॉति कार्य करता है।
5. पुराने कुंओं का पुनर्भरण
पुराने कुंए चौड़े व्यास वाले कुंए होते हैं जिनका उपयोग घरों और कृषि वाले खेतों में जल की आपूर्ति के लिए किया जाता है। भारत के जलोढ़ तथा कठोर चट्टानी क्षेत्रों में ऐसे अनेक पुराने कुंए हैं जो या तो सूख गए हैं या जिनमें जल का तल बहुत नीचे चला गया है। इन कुंओं का उपयोग पुनर्भरण हेतु संरचनाओं के रूप में किया जा सकता है। वर्तमान तथा सूख गए, दोनों प्रकार के कुंओं को भली प्रकार साफ करने के पश्चात् पुनर्भरण संरचनाओं के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। भूजल जलाशय, बहकर आने वाले जल तालाब के जल, नहर के जल आदि को इन संरचनाओं में मोड़ा जा सकता है, ताकि सूखे जलभरों का प्रत्यक्ष पुनर्भरण हो सके। जिस जल का पुनर्भरण किया जाना है उसे पाईप के सहारे कुंए की तली में जल के तल के नीचे पहुंचाया जाता है, ताकि तली को किसी प्रकार की क्षति न हो और जलभर में वायु के बुलबुले फंस जाने के कारण जल का प्रवाह अवरुद्ध न हो। तलछट सहित स्रोत जल की गुणवत्ता इस प्रकार होनी चाहिए कि भू-जल जलाशय की गुणवत्ता को उससे कोई क्षति न पहुंचे। पुराने कुओं के माध्यम से पुनर्भरण सामान्यतः तेजी से होता है। पुनर्भरण किया जाने वाला जल गाद या तलछट से मुक्त होना चाहिए और इस जल को तलछट से मुक्त करने के लिए प्रवाहित होने वाले जल को या तो निथारन कक्ष से या छनन कक्ष से होकर गुजारा जाना चाहिए। जीवाणुओं द्वारा होने वाले संदूषण को नियंत्रित करने के लिए समय-समय पर क्लोरीनीकरण किया जाना चाहिए।
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