ललित निबंध निबंध का एक प्रकार है। ललित निबन्ध विधा की उपस्थिति का आभास आधुनिक काल और गद्य विधा के आरम्भ के साथ ही मिलने लगता है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुन्द गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी आदि के निबन्धों में इस विधा के पूर्वाभास दिखाई पड़ने लगते हैं, लेकिन एक व्यवस्थित और महत्वपूर्ण विधा के रूप में इसकी पहचान पहले-पहल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्धों में दिखाई पड़ती है।
“अशोक के फूल', 'कुटज *और “'कल्पलता' संकलनों के निबंध पहले-पहल इस विधा के प्रतिदर्श बने। अतः उनके ये निबन्ध ही इस विधा के वास्तविक प्रस्थान बिन्दु हैं। आगे चलकर कुबेर नाथ राय, विद्या निवास मिश्र, विवेकी राय , परिचय दास आदि निबन्धकारों ने इसे और समूद किया।
निबन्ध गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबंध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबंध ही है।
इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद दविवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है।
हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में भारतेन्दु और उनके सहयोगियों से निबंध लिखने की परम्परा का आरंभ होता है। निबंध ही नहीं, गद्य की कई विधाओं का प्रचलन भारतेन्दु से होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि गद्य और उसकी विधाएँ आधुनिक मनुष्य के स्वाधीन व्यक्तित्व के अधिक अनुकूल हैं।
मोटे रूप में स्वाधीनता आधुनिक मनुष्य का केन्द्रीय भाव है। इस भाव के कारण परम्परा की रूढ़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। सामयिक परिस्थितियों का दबाव अनुभव होता है। भ्वविष्य की संभावनाएँ खुलती जान पड़ती हैं। इसी को इतिहास-बोध कहा जाता है। भारतेन्दु युग का साहित्य इस इतिहास-बोध के कारण आधुनिक माना जाता है।
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