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पृथ्वीराज रासो की भाषा पर प्रकाश डालिए।

 ‘पृथ्वीराज रासो’ की भाषा के संबंध में दो मत प्रमुख हैं । एक मत के अनुसार ‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना एक निश्चित भाषा में हुई है | इस मत में भी विद्वानों के दो वर्ग हैं-एक वर्ग डिंगल को रासो की काव्य-भाषा मानता है, तो दूसरा वर्ग पिंगल को । अधिक बल पिंगल पर ही दिया गया है ।

अपभ्रंश के बाद पश्चिमी भारत में दो मुख्य भाषाएँ प्रचलित हुईं-दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में डिंगल तथा पूर्वी राजस्थान और ब्रजमंडल में पिंगल । चन्दबरदाई पूर्वी राजस्थान के भाट थे । राजस्थान की अनुश्रुति या परम्परा के अनुसार ‘पृथ्वीराज राजो’ की रचना पिंगल में हुई है।

डा0 उदयनारायण तिवारी का कहना है कि लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी में सुरक्षित ‘पृथ्वीराज रासो’ की हस्तलिखित प्रति के ऊपर फारसी में लिखा है- ‘चन्दरबरदाई लिखित पिंगल भाषा में पृथ्वीराज का इतिहास।’ इस अनुश्रुति की पुष्टि फ्रांसीसी विद्वान् गार्सा द तासी ने भी की है।

उन्होंने रासो की रचना कन्नौजी बोली (ब्रज) में मानी है । रासो की भाषा संबंध में बीम्स ने जो कुछ कहा है, उसका सारांश देते हुए डा0 धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है-(यद्यपि) शब्द-समूह में अपभ्रंशाभास और डिंगल रूपों का प्रयोग रासो, बहुत हुआ है।

यह एक शैली मात्र थी जिसका प्रयोग वीर रस संबंही स्थलों पर अनेक समकालीन कवियों ने किया है। युद्ध-प्रहान ग्रंथ होने के कारण ही रासो में इनका प्रयोग आद्योपान्त और अहिक मात्र में मिलता है ।

इस शब्दावली के कारण ही रासो की भाषा के डिंगल अथवा अपभ्रंश होने का संदेह पाठकों को होने लगता है।

वस्तुतः किसी ग्रंथ की भाषा का निर्धारण शब्द समूह के आधार पर न होकर व्याकरण के ढाँचे के आधार पर होता है और इस दृष्टि से रासो की भाषा पिंगल ही है।

दूसरे मत के अनुसार चन्दबरदाई उन्मुक्त प्रकृति के कवि थे और उन्होंने छन्द-योजना और भाषा के प्रयोग में उन्मुक्त दृष्टि अपनाई । इसी उन्मुक्त दृष्टि के कारण रासो की भाषा में कई भाषाओं के शब्द आ गये हैं

विकसनशील महाकाव्य होने के कारण भी उसमें भाषा के स्तर-भेद स्वभावतः आ गये हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों ने रासो की भाषा को पंचमेल या खिचड़ी भाषा कहा है । अपने मत की पुष्टि के लिए ये विद्वान् चन्द की इस पंक्ति को उद्धृत करते हैं- ‘षटभाषा पुरानं च कुरानं च कथितं मया ।

“चन्द की इस उक्ति में छः भाषाओं की ओर संकेत है-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पेशाचो, मागधी और शौरसेनी । इन भाषाओं के अतिरिक्त रासो में प्राचीन राजस्थानो, गुजराती, पंजाबी आदि भारतीय आर्य भाषाओं के तथा अरबी, फारसी और तुर्की जैसी विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं ।

उसमें देशज शब्दों की भी संख्या पर्याप्त है।

यद्यपि ‘षट्भाषा’ वाला पद्य किसी न किसी रूप में सभी रूपान्तरों में प्राप्त होता है, लेकिन मध्ययुग में संस्कृत आलंकारिकों, प्राकृत वैयाकरणों तथा कवियों में ‘षट्भाषा’ शब्द साल हो चला था।

भिखारीदास ने षिभाषा का उल्लेख करते हुए लिखा है ।

ब्रज मागही मिलै अमर नाग यवन भाषान ।
सहज फारसी हू मिलै षङ् विहि कहत बखान ।।

षड्भाषा का अर्थ है जीवित भाषा, जिसमें सर्जनात्मक सम्भावनाएँ हों और जो जन बोली का स्पर्श लिए हो । इसके अतिरिक्त रासो के उक्त छन्द में : वैविध्य की ओर संकेत नहीं है, बल्कि षड्भाषा में रचित साहित्य के सार-ग्रहण करने की घोषणा है । 

उक्ति में प्रयुक्त पुराण और कुरान के उल्लेख का भी यह। प्रयोजन है। कोई भी काव्य एक निश्चित भाषा में लिखा जाता है, कोई कवि अपनी रचना को भाषाओं का अजायबघर नहीं बनाना चाहता,

उसमें शैली-भेद तो हो सकता है, पर भाषा-भेद नहीं । अतः रासो की भाषा खिचड़ी भाषा न होकर एक सुनिश्चित भाषा है और वह है-पिंगल।

‘पृथ्वीराज रासो’ को पिंगल की कृति मानते हुए भी विद्वानों के सम्मुख यह आरोप आड़े आता है कि उसमें व्याकरण की कोई व्यवस्था नहीं है और उसकी भाषा का रूप बिखरा हुआ है ।

पर यदि ध्यान से देखा जाए तो रासो में व्याकरण की व्यवस्था है। यदि उसमें थोड़ी-बहुत कमजोरी है भी, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि रासो काव्य-ग्रन्थ है, व्याकरण ग्रन्थ नहीं ।

जब रससिद्ध कवि गोस्वामी तुलसीदास के धर्म-ग्रन्थ की तरह पूज्य तथा सुरक्षित ‘रामचरितमानस’ में भी एक शब्द के अनेक रूप मिलते हैं, तो मौखिक परम्परा में रूपान्तरित इस राजप्रशस्ति-मूलक रचना में शब्द-रूपों की किंचित् अव्यवस्था स्वाभाविक ही है।

रासो में एक ही शब्द के विभिन्न रूपों को देखकर बीम्स ने उसके दो कारण बताये हैं-छन्दानुरोध और भाषा की संक्रमणशीलता।

वस्तुतः रासो ऐसे की भाषा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें तद्भव शब्दों का रूप स्थिर नहीं हो सका था । फलतः एक शब्द के अनेक रूप प्रचलित थे ।

व्याकरणिक दृष्टि से संज्ञा शब्दों की कारक-रचना में निर्विभक्तिक रूप, सविभक्तिक विहारी रूप तथा स-परसर्ग रूप तीनों ही विधियाँ दिखाई पड़ती हैं; जैसे-चंद, चंदु, चंदहि, चंदह ।

परसर्गों में ने को छोड़कर एक-एक कारक के लिए कई कारक चिह्नों का प्रयोग हुआ है। जैसे अपादान कारक के चिह्नों हैं-सम, सौं, सों, से ।

क्रियापद सामान्यतः ब्रजभाषा के हैं। अनेक स्थलों पर क्रिया नहीं प्रयुक्त की गई है और बहुधा धातु में हस्व इकार लगाकर उसको इच्छानुसार भूत, भविष्य और वर्तमानकालों के अर्थ में व्यवहार किया गया है-सुनाइ, जाइ । भूतकाल में करिग, चलिग, झरिग जैसे विशिष्ट रूप भी मिलते हैं ।

‘पृथ्वीराज रासो’ में जहाँ श्लोक आये हैं वहाँ संस्कृत शब्द और संस्कृत वाक्य-विन्यास भी मिलता है

उक्ति कर्म विशालस्य राजनीति नवं रसं ।
षट्रभाषा पुरानं च कुरानं च कथितं मया।।

गाहा या गाथा छन्द में प्राकृत, अपभ्रंश या अपभ्रंश-मिश्रित हिन्दी का प्रयोग है । शेष छन्दों में भाषा की कोई रोक-टोक नहीं है । 

रासो की भाषा को अपभ्रंश से भिन्न करने वाली हिन्दी की तीन व्यावर्तक प्रवृत्तियाँ हैं-क्षतिपूरक दीर्धीकरण, परसर्गों का प्रयोग और संस्कृत शब्दों का प्रयोग । उदाहरण- अज्ज का आज ।

शब्द-भण्डार की दृष्टि से रासो में तत्सम और तद्भव शब्दों के अतिरिक्त देशज शब्दों का भी अपरिमित भण्डार है। इनका प्रयोग अब नहीं होता; अतः उनक प्रयोग से रासो काव्य कुछ दुरूह हो उठा है ।

जैसे-जूक, गुदरन, बिसाहन। रासो में प्रयुक्त विदेशी शब्दों का भी बाहुल्य है । उसमें फारसी (मस्त, जवानी), तुर्की (तोप, सौगात) और अरबी (कैद, हाल, नूर) के शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

हिन्दी इतर भारतीय भाषाओं में पंजाबी के शब्द भी खुलकर प्रयुक्त हुए हैं-रहंदी, हनंदे । इस प्रकार शब्द-भण्डार की दृष्टि से रासो में प्राचीन भारतीय भाषाओं, मध्यकालीन भारतीय भाषाओं के शब्द-समूह के अतिरिक्त विदेशी शब्दों और देशज शब्दों का अपार भण्डार मिलता है।

संक्षेप में भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से पिंगल को ही रासो की काव्य-भाषा कहा जा सकता है जिसमें नवोदित भारतीय आर्य-भाषा हिन्दी की विशेषताएँ लक्षित होती हैं ।

रासो की भाषा परवर्ती काल में मध्यदेश की सामान्य काव्य-भाषा का पूर्व रूप है. जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश की प्रवृत्तियाँ भी सुरक्षित हैं ।

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