Recents in Beach

'गिल्लू अथवा' - 'ये है प्रोफेसर शशांक' का कथासार लिखिए।

 गिल्लू महादेवी वर्मा की "मेरा परिवार" नामक कृति से लिया गया एक भाग है जिसमें लेखिका ने एक गिलहरी का मनुष्य के प्रति प्रेम भाव का वर्णन किया गया है यह उनके एक निजी जीवन के असल घटना पर आधारित है।महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में सन्‌ 1907 ई. में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद इन्होंने क्रास्थते ट गर्ल्स कालेज (इलाहाबाद) में शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता गोविन्दप्रसाद वर्मा व माता श्रीमती हेमरानी देवी है। इनका विवाह अल्पायु में ही हो गया था। श्वसुर के कारण इनकी शिक्षा रुक गयी। जिनके मरणोपरान्त इनकी शिक्षा पूर्ण हुई। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है। इनका देहावसान 7 सितम्बर 1987 को प्रयाग में हुआ।

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। उसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही करणे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राणी की खोज है।

परन्तु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने उपर आ गया हो।

अचानक एक दिन सवेरे कमरे के बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौए एक गमले के चारों ओर चॉंचों से छुवा-छुवौवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह कागभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है-एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।

हमारे बेचारे पुरखे न गरुड़ के रुप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु सन्देश इनके कर्कश स्वर ही में देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौआ और कॉँव-काँव करने की अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।

मेरे काऊपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की सन्दि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रुक गयी। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है, जो सम्भवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौए जिसमें सुलभ आहार खोज रहें हैं। काकद्‌वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे। अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले में चिपटा पड़ा था।

सबने कहा कि कॉए की चॉंच. | घाव लगने जादू हूँ बच ही उवता, , अत: इसे ऐसे ही रहने दिया जाये।

परन्तु मन नहीं माना, उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में ले आयी, फिर रूई से रक्त पॉंछकर घावों पर पेन्सिलीन का मरहम लगाया।

रूई की पतली बत्ती दूध में भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हैं-से मुँह में लगायी, पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनो ओर लुढ़क गयीं।

कई घण्टे के उपचार के उपरान्त उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हें पंजों से पकड़कर, नीले कॉाँच की मोतियों -जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।

तीन-चार मास मैं उसके स्निम्ध रोंएँ, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको 'विस्मित करने लगीं।

हमने इसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे "गिल्लू" कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया।

वही दो वर्ष "गिल्लू" का घर रहा। वह स्वंय हिलाकर अपने घर में झुलता और अपनी काँच के मनकों-सी आंखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था, परन्तु समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।

जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।

कभी मैं "गिल्लू" को पकड़कर एक लम्बे लिफाफे मैं इस प्रकार रख देती कि अगले दो पंजे और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बन्द रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी- कभी घण्टों मेज पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता है और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफाफे से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता।

फिर "गिल्लू" के जीवन का प्रथम वसन्त आया। नीम-चमेली की गन्ध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियाँ खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं।

"गिल्लू" को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है।

Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE

For PDF copy of Solved Assignment

WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

Post a Comment

0 Comments

close