मानव-प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध एक लम्बे ऐतिहासिक काल तक विभिन्न स्तरों पर क्रियाशील रहे हैं। आदिकाल में मानव-प्रकृति के अन्तर्सम्बन्धों का निर्धारण प्रकृति द्वारा हो रहा था। आरम्भ में मानव को प्रकृतिप्रदत्त साधनों के आधार पर अपना जीवनयापन करना पड़ता था। कालान्तर में इसमें बदलाव आया तथा मानव प्रकृति को अपने हेतु सुलभ बना सकने में सक्षम हुआ। अत: मानव और प्रकृति के सन्दर्भ में पारिस्थितिकी का अपना अलग महत्त्व रहा है। इसने मानवीय विकास के इतिहास को निर्धारित किया।
19वीं शताब्दी में चार्ल्स डार्विन ने मानवीय विकास के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला था। उन्होंने स्पष्ट किया कि नई प्रजातियों के अनुकूलन ने इनकी उत्तरजीविता को भी प्रभावित किया। इसको उसने “योग्यतम की उत्तरजीविता' की संज्ञा दी है। प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेने की मानवीय विशेषता को आदिमानव द्वारा विभिन्न कालों में उपयोग में लाये गये औजारों के आधार पर देख सकते हैं।
प्रकृति के अन्य जीवों की तरह मानव भी अपना जीवनयापन आदिकाल में शिकार व कंदमूल संग्रह से करता था। पत्थर के औजारों का प्रयोग मुख्य रूप से वृक्षों को काटने, कंदमूलों को खोदने, लकड़ी चीरने व शहद की प्राप्ति के लिए करता था। पत्थर के औजारों के आधार पर आदिकाल को मुख्यतः दो भागों में विभाजित करते हैं--पहला, मूल औजार, जो पाषाण काल से सम्बन्धित था तथा दूसरा, शुल्क औजार, जो मध्य पाषाण से सम्बन्धित था। पत्थर के औजार मानव चिन्तन के प्रयोग का वह स्पष्ट साक्ष्य हैं, जिससे प्रकृति के साथ अनुकूलन व स्थानीय संसाधनों के समुचित व क्रियात्मक उपयोग की अवस्था उसमें निहित है।
इसके आधार पर कहा जा सकता है कि इस काल तक मानव अन्य जीव-जन्तुओं के बारे में अधिक जानकार एवं जागरूक हो चुका था। अब वह गुफाओं, कंदराओं, झीलों व अन्य प्राकृतिक स्थलों में शरण लेने लगा था। इसे मानव-प्रकृति अन्तर्सम्बन्धों के विकास में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है। हालाँकि मानव अभी भी अपने तात्कालिक पर्यावरण की दया का पात्र था। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति-प्रदत्त सुलभ चीजों पर ही निर्भर था।
मानव को आखेटक संग्रहकर्त्ता स्थिति से कृषि की स्थिति तक आने में काफी समय लगा। आरम्भिक काल में मानव का जीवन केवल प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सामग्री पर निर्भर था। उस पर मानव का कोई नियन्त्रण नहीं था, लेकिन कृषि के कारण उसकी दक्षता में काफी बढ़ोतरी हुई। अब मानव अनाज को फलों व मांस की अपेक्षा ज्यादा समय तक सुरक्षित रख सकता था। अनाज के इस गुण ने जहाँ एक ओर सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ाया, वहीं दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि के कारण स्थानांतरण की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इस प्रकार कृषि के आगमन के कारण मानव-प्रकृति के मध्य सम्बन्धों में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया।
कृषक समाज में बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की एक ऐसी श्रृंखला आरम्भ हो गयी, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से श्रेणीबद्ध समाज का उदय हुआ। ये सभी वर्ग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु प्रकृति का दोहन अलग-अलग तरीके से करने लगे। इस तरह मानव-प्रकृति के बिगड़ते अन्तर्सम्बन्धों का परिणाम तत्कालीन मानव पुरास्थलों एवं सभ्यताओं को भुगतना पड़ा। उदाहरण के लिए, सिन्धु सभ्यता के पतन में पारिस्थितिक परिस्थितियों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। इससे स्पष्ट होता है कि मानव-प्रकृति के बीच सामंजस्य टूट रहा था।
इसके बावजूद मानव प्रकृति के मध्य सम्बन्ध लगभग मित्रवत् बना रहा, परन्तु मानव-प्रकृति के सम्बन्धों में गुणात्मक तथा युग-प्रवर्तक परिवर्तन औद्योगिक युग के साथ आरभ्भ होता है। अब प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व के सम्बन्धों के स्थान पर मानवीय प्रयत्न प्राकृतिक संसाधनों के पूर्ण शोषण तथा दोहन की ओर उन्मुख हो गए। आधुनिक औद्योगिक युग में ऊर्जा की निरन्तर बढ़ती माँगों के कारण ही कोयला व पेट्रोलियम जैसे नए ऊर्जा स्रोतों की खोज की गयी, परन्तु ऊर्जा के जीवाश्म रूपों के लापरवाही से उपयोग के कारण यह संकट की स्थिति में पहुँच गया है। सभी प्रकार के उद्योगों में अन्धाधुन्ध वृद्धि ने पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को उत्पन्न किया। इसके परिणामस्वरूप आज हम गम्भीर पर्यावरण संकट का सामना कर रहे हैं, जैसे कि “ग्रीन हाउस प्रभाव'।
इसके अलावा 1330 व 1340 के मध्य की रासायनिक क्रांति ने ऐसी कृत्रिम वस्तुओं को विकसित किया, जो प्राकृतिक रूप से विघटित होने वाली नहीं थीं। इसी तरह नाभिकीय ईंधन का उचित तथा प्रभावी अवशिष्ट अपघटन करने की कठिनाइयाँ वैज्ञानिक व तकनीकी असफलता के स्पष्ट प्रमाण हैं।
इसके बावजूद हम देखते हैं कि वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास ने मानव को जो दृष्टि दी, उसमें तकनीक को ऐसे प्रस्तुत किया गया कि मनुष्य की सारी समस्याओं को सुलझाने का यह एकमात्र साधन है। हम यह भूल जाते हैं कि मानव का अस्तित्व पर्यावरण या प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार पर निर्भर करता है, जबकि उत्तर आधुनिक काल से मानव प्रकृति के साथ पूर्णतया सौतेला व्यवहार कर रहा है। अत: आज मानव को प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों एवं व्यवहार पर फिर विचार करने की आवश्यकता है।
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