जब हम हिंदी साहित्य के इतिहास के कालविभाजन पर विचार करते हैं तो हमारे सामने कई समस्याएँ उपस्थित होती हैं।
सबसे पहले तो इस बात का निर्णय
करना कठिन है कि हिंदी साहित्य का इतिहास कब से आरंभ होता है; क्योंकि इसके बारे में भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध
इतिहास लेखक जार्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ में हिंदी साहित्य का आरंभ सातवीं
शताब्दी से ही माना है, परंतु दूसरे इतिहासकार इस मत को
स्वीकार नहीं करते। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि पुरानी हिंदी का जन्म तो
सातवीं शताब्दी के आसपास हो गया था तथा उसमें सिद्धों, जैनियों
और नाथपंथियों ने काव्य भी लिखा था, पर उनके काव्य में
अपने-अपने धर्म-संप्रदाय की शिक्षाएँ दी गई हैं। इसीलिए उनमें काव्य के गुण कम मिलते
हैं। इसलिए आचार्य शुक्ल इन कवियों के द्वारा रचे हुए काव्य को कोरी सांप्रदायिक
शिक्षा' मानकर उसे काव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते |
उनका विचार था कि हिंदी का वास्तविक काव्य वह है जो कि विक्रम संवत्
1050 (993 ई.) के बाद से लिखा गया। कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्य शुक्ल के
मतानुसार हिंदी साहित्य के इतिहास का आरंभ संवत् 1050 या 993 ई. से ही मानना
चाहिए। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आरंभ
दसवीं शताब्दी से मानते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा और डॉ. नगेंद्र इसका आरंभ सातवीं शताब्दी
से मानते हैं।
हिंदी साहित्य का आरंभ कब से
माना जाए, इसके बारे में एक समस्या और भी है। वह है हिंदी
भाषा और अपभ्रंश भाषा के पारस्परिक संबंध की | भाषा विज्ञान
के विद्वान कहते हैं कि प्राकृत भाषा से अपप्रंश भाषा का और अपम्रंश भाषा से
आधुनिक भारतीय भाषाओं जिनमें हिंदी भी एक है, का विकास हुआ।
इस दृष्टि से अपभ्रंश भाषा हिंदी का प्रारंभिक रूप है। परंतु कुछ विद्वान अपभ्रंश
को हिंदी से अलग न मानकर हिंदी का ही एक रूप मानते हैं। उदाहरण के लिए आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने अपश्रंश को 'प्राकृताभास हिंदी' (ऐसी हिंदी जिसमें प्राकृत का आभास हो) माना है, तो
राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश को (पुरानी हिंदी' की संज्ञा
देते हुए अपभ्रृंश के सारे कवियों को हिंदी के कवियों के रूप में स्वीकार किया है।
अगर राहुल सांकृत्यायन के मत को स्वीकार कर लेते हैं तो हिंदी साहित्य का आरंभ
सातवीं शताब्दी से ही माना जाएगा और उस स्थिति में अपभ्रंश के सबसे पहले कवि
सरहपाद ही हिंदी के पहले कवि सिद्ध होते हैं। डॉ. नगेंद्र द्वारा संपादित इतिहास
में भी सरहपाद को हिंदी का पहला कवि माना गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि
हिंदी के विद्वानों के मुख्यतः दो वर्ग हैं :
1.
एक वर्ग में वे विद्वान आते हैं जो हिंदी और अपभ्रंश को एक मानते
हुए हिंदी का आरंभ सातवीं शताब्दी से स्वीकार करते हैं।
2.
दूसरे वर्ग में वे विद्वान आते हैं जो कि अपभ्रंंश को हिंदी से अलग
मानते हुए दसवीं शताब्दी के बाद से हिंदी साहित्य का आरंभ मानते हैं।
परंतु अब इस बात का निर्णय हो
गया है कि अपभ्रंश और हिंदी दोनों एक भाषा नहीं हैं। अपभ्रंश हिंदी के पूर्व की
भाषा है। उससे न केवल हिंदी, अपितु भारत की और भी कई अन्य भाषाएँ
जैसे पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि विकसित हुई हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी इस मत का
दृढ़ता से खंडन किया है कि हिंदी और अपश्रंश एक हैं, अस्तु
अब भाषा विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र के प्रायः सभी विद्वानों ने यह मत स्वीकार
कर लिया है कि अपभ्रंश और हिंदी एक नहीं है, अपितु अलग-अलग
भाषाएँ हैं। अत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस मत
को स्वीकार कर लेना चाहिए कि हिंदी भाषा और साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से हुआ
है। दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का साहित्य अपभ्रंश से भिन्न भाषा का साहित्य
है। वस्तुतः इसमें हिंदी की आधुनिक बोलियों के पूर्वरूप की झलक मिल जाती है। इसी
कारण हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक दसवीं शताब्दी से हिंदी साहित्य का आरंभ
स्वीकार करते हैं।
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