'बघेई' कहानी के आधार पर आदिवासी जनजीवन के निम्नांकित भागों पर ध्यान देना आवश्यक है-
(1) धार्मिक जीवन-ओडिशा राज्य के कोरापुट जिले में निवास करने वाले आदिवासी समाज के आम जीवन में प्रचलित धार्मिक विश्वासों के विषय में कथाकार ने प्रसंग के अनुकूल वर्णन किया है। इस समाज में ज्ञानी और पुजारी का प्रभाव स्पष्टत: पाया जाता है। ठकुराइन, मंत्र, जड़ी-बूटी, झाड-फूँक आदि में इनकी प्रबल आस्था है। ठकुराइन के उद्देश्य में आदिवासी कभी मुर्गा तो कभी बकरा या फिर कभी भैंस की बलि चढ़ाते हैं। उनकी मान्यता है कि इस बलि प्रथा से ठकुराइन प्रसन्न होती हैं। उनकी प्रसन्नता से ही अच्छी फसल होती है, प्राकृतिक विपदाओं से ठकुराइन रक्षा करती हैं। बीमारियों से बचाती हैं। सबसे बड़ी बात है कि बाघ के प्रकोप से पूरे गाँव तथा इलाके की हिफाजत करती हैं।
“बघेई' कहानी में धनू पंडित का नामोल्लेख मिलता है। संपूर्ण आदिवासी समाज में उन्हें विशेष सम्मान प्राप्त है। धनू पंडित अवश्य है लेकिन वह ब्राह्मण जाति से संबंध नहीं रखता। ठकुराइन की पूजा के लिए कोई व्यक्ति चाहिए। अतः आदिवासियों में से सही। चूँकि वह पुजारी है, इसलिए सभी उसकी बातों का सम्मान करते हैं। आदिवासी सोचते हैं कि ठकुराइन उसके माध्यम से काम करवाती हैं मुखिया धूर्व सिंह के साथ उसकी अच्छी-खासी मित्रता भी है। लेडेंग गाँव के आदिवासियों में मूर्ति पूजा का प्रचलन था। पूजा पद्धति और धार्मिक विचार पर प्रकाश डालते हुए कहानीकार ने लिखा है-“ब्राह्मणी देवी और उनके नीचे के अनेक देवी-देवताओं को पूरे सालभर सूअरों, बकरों, मुर्गों और कबूतरों की बलि दी जाती है। इस पुण्यभूमि में जितनी निष्ठा से लोग धर्म का पालन करते हैं, दूसरी जगहों पर वैसा उग्र धर्म-भाव देखने को नहीं मिलता। लोग लंबे-लंबे बाल रखते हैं, उपवास करते हैं, कई जटाधारी बन जाते हैं, जटा में बरगद के दूध की मालिश करते हैं, पेट के बल या घुटनों या लंबे लेटकर घिसट-घिसट कर देवथान की यात्रा करते हैं, पूरे बरसभर कितनी सारी यात्राएँ! जीभ या पीठ को लोहे के काँटे से छेदकर की जाने वाली यात्रा, अपने को बिच्छू का डंक लगवाकर की जाने वाली यात्रा और आग पर चलने की यात्रा भी। गाने-बजाने की धूमधाम से तो पूरा अंचल गूँजता रहता है। लोग इतना धरम-करम करते हैं, इसी वजह से तो देवियाँ खुश रहती हैं, उनके डर से बाघ घुस नहीं पाता।"
इस कथन से स्पष्टतया ज्ञात होता है कि आदिवासी समाज में अंधविश्वास व्याप्त है, धार्मिक बाह्याचार है। पुरानी धर्म-भावना है। सड़ी-गली मान्यताएँ हैं। शरीर साधना, तंत्र-मंत्र का प्रभाव भी स्पष्ट है। कहानीकार ने कुछ छिपाया नहीं है। उसने जो देखा, उसका चित्रण किया। इससे पाठक आदिवासियों के प्रति उपेक्षा का भाव नहीं दिखाते बल्कि यह सोचते हैं कि ऐसी जर्जर मान्यता के लिए कौन-सा कारण जिम्मेदार है? अशिक्षा ही इसका मूल कारण है। फिर पाठक यह भी सोचने लगता है कि ये आदिवासी कितने भोले-भाले हैं, सीधे-सादे और निर्मल, निष्पाप हृदय-के हैं।
जिस दिन ब्राह्मणी देवी की पूजा-अर्चना का दिन निश्चित है, उस दिन गाँव के मुखिया और पुजारी ब्रत रखते हैं। किसी भी बड़े काम, जैसे-बाघ मारने का अभियान करने के पहले यह प्रथा चालू थी। ब्राह्मणी देवी के सामने सभी इकट्ठे होते थे। पूरी योजना बताई जाती है। आदिवासी समझते कि देवी की आज्ञा को मुखिया या पुजारी सुना रहे हैं।
बाघ को मौत की नींद सुलाने के लिए चले अभियान में लोगों ने-सामूहिक रूप से भाग लिया। इस. अभियान में जंगली सूअर ने धनू पंडित कौ दायीं जाँघ को घायल कर दिया। मुसीबत के क्षण में आदिवासी भला ब्राह्मणी देवी के अलावा किसका स्मरण करते? देवी के इन उपासकों ने सोचा और तय भी कर लिया-“जरूर गाँव के मुखिया और धनू पंडित ने कोई अन्याय किया था।” यह है आस्था देवी के. प्रति आदिवासियों की। माँ क़ी इच्छा से सब कुछ होता है। माँ की दया से सुख ही नहीं, दुख भी मिलता है।
निष्कर्ष के तौर पर यह माना.जाता है कि. बघेई' कहानी में वर्णित धार्मिक विश्वास जनजातियों के आम जीवन चरित्र के अलग-अलग पक्षों को उद्घाटित करता है। वे सहज हैं, सहजता. सेकैकिसी -बात को स्वीकार कर लेते हैं। कुसंस्कारों से ग्रसित हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि संस्कार क्या होता है?. मूर्तिपूजक हैं क्योंकि परंपरा से मूर्ति पूजा चली आ रही है। सुख हो या दुख, वे निर्मल हृदय से अपनी आत्माभिव्यक्ति देवी के सामने करते हैं, उनकी धार्मिक चेतना की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह उन्हें ऐक्यबद्ध करती है। सामूहिक जीवन शक्ति के महत्त्व से रू-ब-रू कराती है। आपसी भाईचारा और प्रेम को दर्शाती है, बढ़ाती है।
(2) सामाजिक जीवन-'बघेई' कहानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पृष्ठभूमि पर आधारित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी आदिवासियों की जीवन शैली और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ। उनकी स्थिति परतंत्र भारत के जैसी ही बनी रही। उनके रोजमर्रा जीवन में कोई बदलाव नहीं आया। उनमें से कुछ थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर जो नगराभिमुखी होते हैं, वे अपनी जड़ से कट जाते हैं। अपना नाम-पता तक बदलकर बाबू बन जाते हैं। अपने आदिवासी भाइयों की शोचनीय स्थिति से उदासीन रहने लगते हैं।
अर्थ के अभाव से वे पीड़ित नहीं पाए जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं। उनके पास जो कुछ भी है, उससे वे संतुष्ट हैं। अधिक पाने का लोभ उनमें नहीं है। जो है, उससे सदा संतुष्ट रहते हैं। अत्यधिक परिश्रमी होने के नाते उन्हें अपने तथा परिवार के सदस्यों का पेट भरने में असुविधा नहीं होती। साहूकार, महाजन, पुलिस, अधिकारी उनके श्रम का खूब शोषण भी करते हैं। लेकिन जहाँ तक हो सके, वे सर्वहारा बनकर झेलते रहते हैं। कष्ट सहिष्णुता का उत्कृष्ट उदाहरण बनकर वे दूसरों के हित का अधिक ध्यान रखते हैं। अपने को संकट में डालकर भी दूसरों का कुछ भला हो जाए तो इसके लिए वे पीछे रहना पसंद नहीं करते।
कहानीकार की रचना बघेई के अनुसार प्रकृति की रम्य वनस्थली में अपनी पर्ण कुटीर बनाकर रहने वाले आदिवासी जल, जंगल और जमीन को सर्वोच्च मानते हैं। आदिवासी के लिए इससे ऊपर और कुछ नहीं है। उनके सपने इन्हीं तीन तत्त्वों के इर्द-गिर्द घूमते नजर आते हैं। पानी की समस्या से पीड़ित आदिवासियों का मुखिया कहता है-“हमारी इस नदी पर अगर एक बाँध बन जाता तो ढेर खेतों की सिंचाई हो सकती है। बड़े-बड़े तालाब, पोखर खुदवा देने पर उसमें पानी रहता। गर्मियों में पीने तक को पानी नहीं मिलता। धान, चावल और हर दिन तीन रुपए कर्ज में मिल जाते तो कितना उपकार होता। क्या करें कि थोड़ी अच्छी फसल हो, थोड़ा ज्यादा खाने को मिले, यह बात कौन समझता है और हमारे किस दादा-परदादा का कौन दादा-परदादा कोई महान योद्धा था, वह सब जानकर क्या हमारा पेट भरेगा?”
उपर्युक्त कथन से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति का अंदाजा तो मिलता ही है, साथ ही उनके सपनों का संबंध नित्य-प्रति की आवश्यकता से है, इसका भी आभास मिलता है। पुनः शासन की ओर से, सरकार की ओर से उनकी प्रयोजनीय वस्तुओं की ओर नजरअंदाज किए रहने की स्थिति का संकेत है।
केंचुआ मृदा में रहकर अंत में उसी में मिल जाता है। केंचुए से प्रेरणा लेकर लेडेंग के निवासी स्वयं को केंचुआ ही मानते हैं। धनू पंडित कहते हैं-“केंचुआ माटी के साथ रहता है, माटी को बनाता है, खाता है, खोदता है। मर जाने पर मिट्टी की शक्ति बढ़ाता है, हम भी वहीं हैं। किसी राजा की या युद्ध की बात हमारी बात नहीं है।” संघर्षशील मानव रूप में जन्म लेकर मनुष्योचित जीवन-यापन करना आदिवासी अपना धर्म समझते हैं। अपने “धर्म और अधिकारों की पूर्ति हेतु वे सम्मिलित रूप से आगे बढ़ते हैं। विज्ञान और तकनीक के निरंतर विकास के बारे में वे सुना-करते तो कतई उसमें विश्वास नहीं करते। कारण कि इनकी दुनिया भिन्न है। यहाँ अनुभव को सर्वप्रथम स्थान, दिया गया है। 'आँखों देखी' में उनकी आस्था प्रकट होती है। निम्नलिखित पेक्तियाँ दृष्टव्य -हैं-अगर कहो कि अमुक जंगल में हाथियों के भी पंख होते हैं और वे उड़ते हैं, तो क्या हम विश्वास करेंगे। जरूर उस देश में औरेकोई. जड़ी-बूटी मिलती होगी, जिसे शराब में मिलाने पर नशा और तेज हो जाता होगा।"
“बघेई' कहानी के पात्र लेखक के परिवेश से जुड़े हैं। कहानीक़ार गोपीनाथ जमीन से जुड़े लेखक हैं, इसीलिए वे ऐसी उत्कृष्ट रचना करने में सक्षम हों सके। अपने चरित्रों के नख-शिख चित्रण करना वे नहीं भूलते। इससे वे जीवंत भी प्रतीत होते हैं। 'बघेई” के साजार्थिक संदर्भों में गोपीनाथ बाबू के..पात्र खास किस्म के हैं। वे पारंपरिक प्रोटागोनिस्ट नहीं हैं।
जीवन की क्षणभंगुरता भले ही यहाँ वर्णित है लेकिन खोती जो-रही है, संवेदना और मूल्य-संकट के बारे में भी रचनाकार सावधान प्रतीत होता है।पराजय में भी जीवन संघर्ष से मुक्ति नहीं मिल सकती।
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