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6-13वीं शताब्दियों के दौरान उत्तर भारत में शिल्प उत्पादन के संगठन के स्वरूपों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य गांव में शिल्प उत्पादन की मूल इकाई शिल्पकार और उसका परिवार होता था। वह कृषक समुदायों के बीच रहता था। शिल्पकारों में कुम्हार, बुनकर, लुहार, बढ़ई, गुड़-निर्माता, तेली, चर्मकार, शराब-निर्माता इत्यादि शामिल होते थे।

इनमें से कुछ समूहों के साथ अछूतों की तरह बर्ताव किया जाता था और वे व्यापक जातिभेद से ग्रस्त थे। वे गाँव से बाहर रहते थे। अछूत शिल्पकार मुख्य बस्ती से दूर रहते थे। एक जैन उद्धरण में उन्हें नारूआ नामक व्यावसायिक समूहों की श्रेणी में रखा गया है। नारूआ अर्थात्‌ अनाछूत, करूआ यानी अछूतों की श्रेणी से भिन्न थे। नारू-कारू के रूप में इन व्यावसायिक समूहों का द्विआधारी विभाजन आधुनिक काल तक चलता आया है। अन्य समूहों के स्तर में इसी प्रकार का वैषम्य समकालीन स्रोतों में भी देखा जा सकता है। शिल्पकारों और उनके ग्रामीण ग्राहकों के बीच एक विशिष्ट संबंध था। इसे बाद में जजमानी व्यवस्था कहा गया। ये शिल्पकार कृषि फसल के एक नियत भाग के बदले कृषक परिवार को सेवाएं प्रदान करते थे। समय और क्षेत्र के अनुसार इस व्यवस्था में भिन्नताएं दिखाई पड़ती हैं, परन्तु यह स्पष्ट है कि इसमें न तो समस्त ग्रामीण शिल्पकार और न ही किसी एक शिल्पकार का सम्पूर्ण उत्पादन ही आता था।

गांवों में जजमानी और शिल्प उत्पादन के विपणन का यह मिला-जुला रूप संभवत: राज्य द्वारा धार्मिक कार्यकर्त्ताओं अथवा संस्थाओंको दिए गए इनमें से कुछ गाँवों के दान से गंभीर रूप से व्याप्त संतुलन को प्रभावित नहीं करता था। सैद्धान्तिक रूप से, इसका सामान्यतः अर्थ था-अनुदान प्राप्तकर्त्ताओं को राज्य द्वारा शिल्पकारों के दायित्वों का हस्तांतरण।

कुछ धार्मिक संस्थानों में, हालांकि शिल्प उत्पादन एक ऐसे पैटर्न पर विशेष उपायों द्वारा संगठित होने लगा, जो जजमानी व्यवस्था से मिलता-जुलता था, परन्तु जजमानी के सामान्य बंधन की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक हो सकता था। इसका एक संकेत उड़ीसा के एक बारहवीं-शताब्दी के अभिलेख में मिलता है, जब एक कुम्हार को धार्मिक सेवाओं के लिए एक मंदिर को दैनिक आधार पर खाना पकाने के बर्तन भिजवाने के लिए भूमि दी गई।

गांवों में विरल रूप से फैले शिल्पकारों से बिल्कुल भिन्न कुछ स्थानों पर भिन्न-भिन्न मात्रा में उनका संकेन्द्रण था। उनकी वृहद विद्यमानता प्रमाणतःउनके उत्पादों हेतु एक वृहत्तर माँग के आधार पर थी, और ये स्थान आमतौर पर विशेष केन्द्रीय बिन्दुओं पर होते थे।

इस प्रकार के स्थान को खर्वत के नाम से जाना जाता था। एक समकालीन लेखक ने इसे “ग्राम से बड़ा, परन्तु नगर से छोटा' के रूप में परिभाषित किया, जबकि एक अन्य विद्वान ने इसे एक ऐसे गाँव के रूप में देखा, जो शिल्पकारों और कृषकों से भरा पड़ा था।

किसी खास शहरी अर्थव्यवस्था में, शिल्पकारों का एक वृहत्तर समूह देखा जा सकता था। दसवीं शताब्दी के दौरान, उदाहरण के लिए, ललितपुर घाटी स्थित सियादोनी के फलते-फूलते नगर (पत्तन), जो उत्तर भारत को मालवा पश्चिम और दक्षिण भारत से जोड़ता था, में शिल्पकारों की अच्छी-खासी विद्यमानता दिखाई पड़ती है। इनमें शामिल थे कुम्हार, शराब-निर्माता, बुनकर, चीनी-निर्माता, ठठेरे, तेली और संगतराश। यहां राजस्थान की ही भांति ये शिल्पकार धार्मिक अनुदान के प्रसंग में नजर आते हैं। उन सभी शिल्पकलाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो नगर में नियमित रूप से अस्तित्व में थीं।

कभी-कभी शहरी अर्थव्यवस्था में पड़ोस के गाँवों में रहने वाले शिल्पकार भी सहयोग करते थे। प्राचीन वाराणसी का उदाहरण हमारे सामने है।

'जजमानी व्यवस्था, मंदिर संस्थाओं, आदि से बाहर इन उत्पादकों के प्रसंग में ही शिल्पियों की श्रेणियों का उल्लेख किया जाता है। इनके लिए प्रयुक्त आम शब्द था श्रेणी (जैसे ग्वालियर क्षेत्र में गोपगिरि में स्थित तेलियों की श्रेणी), परन्तु उन्हें अन्य नामों से भी जाना जाता था, जैसे देशी (जैसे मध्य भारत से प्राप्त करितलई अभिलेख में शराब-निर्माताओं की देशी) और गोष्ठी (जैसे बंगाल में वरेन्द्र क्षेत्र के शिल्पियों की गोष्ठी) किसी शिल्प श्रेणी के सदस्य प्राय: एक ही जाति के हुआ करते थे। शिल्पकलाएं परिवार के भीतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती थीं और विवाह-बंधन एक जाति के रूप में ऐसे परिवारों को एक जगह ले आते थे। परन्तु कार्य विशेषज्ञता के ऐसे तमाम घटते-बढ़ते स्तर मौजूद थे, जहां उस्तादों को आचार्य के रूप में पहचान प्रदान की जाती थी, जिनके पास दूसरे लोग प्रशिक्षु की भांति आते थे। किसी शिल्प में महारत हासिल करने की चार अवस्थाएं होती थीं, और प्रशिक्षु वास्तव में जीविकोपार्जन करते हुए अपना काम सीखते थे। श्रेणियों के मामले उनके प्रभावशाली सदस्यों के एक छोटे-से समूह द्वारा निपटाए जाते थे। ये श्रेणियां परस्पर-सहायक संस्थाएं थीं, जिनकी सदस्यता का अर्थ था विपत्ति, प्राकृतक आपदा, और उत्पीड़न से रक्षार्थ बीमा प्रदान करना।

इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में बहुत-से शिल्पकार व्यापारियों पर निर्भर काम करते थे, हालांकि अधिकांश शिल्पकारों तथा उनके समूहों की इस प्रकार की निर्भरता का कोई संकेत नहीं मिलता है।

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