ललित निबन्ध मूलतः भावप्रधान निबन्ध होते हैं। इनमें भावुकता प्रधान होती है, पर विचारों की अन्तर्धारा भी बराबर प्रवाहित होती रहती है। द्विवेदी जी के निबन्धों में विचार और भाव का संगम होता है। ललित निबन्ध में स्वच्छन्दता, सरलता, आत्मीयता के साथ लेखक का व्यक्तित्व भी झांकता रहता है। उसमें जीवन की वास्तविकता, कहानी की संवदेना, नाटक की नाटकीयता, गद्य काव्य की भावातिशयता और महाकाव्य की गरिमा, विचारों की गंभीरता होती है। लेखक के मन का उच्छवास, उसके हृदय की आर्द्रता और व्यक्तित्व की जिन्दादिली सब मिलकर उसे एक अनुपम, मनोहर और हृदय को स्पर्श करने वाली तथा बुद्धि को प्रेरित करने वाली कृति बना देते हैं।
ललित निबन्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लेखक विषय और पाठक दोनों के साथ निकट का सम्बन्ध स्थापित करता चलता है। वह पाठकों को सम्बोधित करते हुए लिखते हैं - जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की धरती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर झंझा तूफान को रगड़कर अपना प्राप्प वसूल लो, आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।
इसी प्रकार कुटज को अपना मित्र बताते हुए मित्र की तरह बातचीत करते हुए कहते हैं - पहचानता हूं उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूं। निबन्ध के अन्त में लिखते हैं - मनस्वी मित्र, तुम धन्य हो।
कुटज की भाषा विचारों और भावों के अनुरूप प्रवाहमयी सहज भाषा है। कुटज में तत्सम प्रधान शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हुआ है, परन्तु कहीं-कही अपरिचित शब्दों-अहमहंमिक, ततकिम, गगनोत्तमावस्था, अज्ञात-नाम-गोत्र, उल्लास लोल चारुस्मित, स्फीयमान का भी प्रयोग किया है। कहीं-कहीं तो विभक्तियां तक संस्कृत के अनुरूप दी गई हैं। शुद्धतावादी न होने के कारण उनकी भाषा में देशज, उर्दू, अंग्रेजी के शब्द भी मिलते हैं। अतः उन्होंने बिना संकोच उपयुक्त शब्दों का चयन करके अपनी उक्ति को सरस तथा प्रभावपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। इसीलिए उनके निबन्धों में स्थानीय, पूर्वी हिन्दी के तथा देशज शब्द मिलते हैं। इनके प्रयोग से भाषा में मिठास आई है और उक्ति प्रभावशाली भी बन गई है। थाहना, कचारा-निचोड़ा, धरती धकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद, काहे वास्ते, बिरछ, छांह, सैलानी ऐसे ही शब्द हैं। उर्दू के बोलचाल के शब्द - काफी, इजहार, दरख्त, मस्तमौला, बेहया, अलमस्त, हाजिर, बहरहाल, कमबख्त, फकत, फक, कद्रदान, इज्जत, दरियादिल, बेरूखी, नसीब, बादशाह, मस्ती तो संख्या में बहुत अधिक हैं और उनके प्रयोग से विषय स्पष्ट तथा अभिव्यक्ति प्रभावशाली बनाने में सहायता मिली है। अंग्रेजी के शब्द, यद्यपि बहुत कम, फिर भी उनके निबन्धों में मिलते हैं; जैसे सोशल सेक्शन, हाट्स देयर इन ए नेम शब्दों की व्युत्पत्ति बताते समय वह अपने पांडित्य, मौलिक चिन्तन तथा व्याकरणशास्त्र के ज्ञान का परिचय देते हैं। शिवालिक' का अर्थ बताते हैं - शिव की अलकें, अर्थात शिव का जटाजूट। कुटज का अर्थ बताते हैं - कूट से उत्पन्न अर्थात गिरिकूट पर उत्पन्न होने वाला। उनकी भाषा के अन्य गुण हैं - लक्षणा शक्ति का प्रयोग। मुहावरेदारी; जैसे गाढ़े के साथी, मन का उड़ना, चपत लगाना, जूते चाटना, दांत निपोरना, बगलें झांकना आदि। कहीं-कहीं सूक्तियों संस्कृत सर्वग्राही भाषा है” तथा वक्रता द्वारा चमत्कार पैदा करने की भी चेष्टा की गई है। बिम्बात्मक शब्दों और पदों का प्रयोग भी दृश्य को साकार कर देता है। शिवालिक की शुष्क, नीरस, ऊबड़-खाबड़ प्रकृति का चित्र प्रस्तुत करते समय वह ऐसे ही बिम्बात्मक शब्दों-पदों का प्रयोग करता है। इनमें उपयुक्त विशेषणों का प्रयोग करके लेखक ने अपनी मेधा का परिचय दिया है - बेहया से पेड़, शुष्कता की अंतनिरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ रेती, ठिगने से लेकिन शानदार दरख्त, काली-काली चट्टानें - ऐसे ही प्रयोग हैं।
प्रसंग के अनुरूप वह अधिकतर प्रसादगुण सम्पन्न भाषा का प्रयोग करते हैं, परन्तु कहीं माधुर्य गुण तथा कहीं ओजगुण सम्पन्न भाषा का प्रयोग हुआ है। ओजगुण सम्पन्न भाषा का उदाहरण है-
दुनिया में त्याग नहीं हे, प्रेम नहीं है, परमार्थ नहीं है - है केवल प्रचण्ड स्वार्थ।
भावुक होने पर वह भावप्रवण भाषा-शैली का प्रयोग करते हैं - अपने आपको वे दलित द्राक्षा की भांति निचोड़कर जब तक सर्व” के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता, तब तक स्वार्थ खण्ड सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है। तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय, कृपण बना देता है। जब वह विषय को आत्मिक दृष्टि प्रदान करते हैं, तो भाषा में प्रवाह, लालित्य तथा काव्यात्मकता का सन्निवेश हो जाता है-
“बहरहाल यह कुटज-कुटज है, मनोहर कुसुम-स्तवकों से झबराया, उल्लास लोल चारुस्मित कुटज। कालिदास ने “आषाढ़स्य प्रथम दिवसे” रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया, तो कम्बख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा - चम्पक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, अरविन्द नहीं - फकत कुटज के फूल।” कालिदास के मेघदूत के उल्लेख से भाषा के माध्यम से कितने ही बिम्ब बन जाते हैं। ये बिम्ब चाक्षुष या दृश्य बिम्ब भी हैं और मानस बिम्ब भी।
काव्यात्मक, भावात्मक, आलोचनात्मक शैली का प्रयोग निबन्ध को लालित्य प्रदान करता है, उसे विचारात्मक निबन्धों से अलग कर देता है। कुटज के फूलों पर मुग्ध हो वह कहता है - “मैं भी इन पुष्पों का अर्ध्य उन्हें चढ़ा दूं? पर काहे वास्ते? लेकिन बुरा भी क्या है?” यहां लेखक के मन की भावुकता, सहदयता एवं अन्तर्द्धन्द झलकता है। भावात्मक शैली का ही एक भेद है आवेग शैली। प्रशंसा, संवेदना और आक्रोश भी लेखक इस शैली का प्रयोग करता है।
कवि हृदय सम्पन्न तथा संस्कृत काव्य का गहन अनुशीलन करने वाले लेखक के विषय में काव्यात्मक शैली का प्रयोग स्वाभाविक है- “चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद अज्ञात जलग्नोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी कवि के सूखे गिरि कांतर में मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है। कितनी कठिन जीवनी शक्ति है प्राण को प्राण पुलकित करता है, जीवनी शक्ति ही, जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है।”” यह उद्धरण अपराजेय जीवनी शक्ति की पूरी-पूरी व्याख्या समर्थ भाषा में करता है।
कहीं प्रश्नात्मक वाक्यों द्वारा तथा कहीं व्याख्यान शैली अपनाकर वह निबन्ध को सजीव बना देते हैं। भाषण शैली की भी प्रभावोत्यादकता प्रदान करते हैं, और पाठक उन स्थलों में रम जाता है - इन्हें क्या कहूं? सिर्फ जी नहीं रहे हैं, हंस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या? या मस्तमौला हैं? व्याख्या शैली का प्रयोग निम्नलिखित पंक्तियों में देखिए-
“जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं, वह बुद्धिहीन है। कौन किसका अपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है, अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए बहुत अच्छी बात है, नहीं मिल सका, तो कोई बात नहीं, परन्तु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुंचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुंचाने का अभिमान तो नितांत गलत है। ” इस उद्धरण में व्याख्यान शैली के सभी गुण विद्यमान हैं। इस उद्धरण में सहजता के साथ आकर्षित करने वाली भाषा है, जिसमें निजता भी है। इसमें चिंतन भी है, जो विचार करने की प्रेरणा देता है।
गंभीर विवेचन के बीच-बीच यह हास्य-व्यंग्य की पिचकारी से पाठकों को एक ओर रससिक्त करते हैं और दूसरी ओर समाज की कुरीतियों, रढ़ियों पर प्रहार करते हैं, ढोंगियों तथा स्वार्थी लोगों की पोल खोलकर उन्हें अनावृत्त करते हैं। “वह दूसरे के द्वार पर भीख मांगने नहीं जाता. ----भेय के मारे अधमरा नहीं होता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अपमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्मोननति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अंगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दांत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झांकता। ” कुल मिलाकर द्विवेदी जी की भाषा-शैली सरस, प्रवाहपूर्ण है। उस पर उनकी निजी छाप लगी है। पढ़ते ही पता चल जाता है कि यह द्विवेदी जी की लेखनी का कमाल है। गहनता के साथ सहजता, प्रवाह के साथ सशक््तता, स्पष्टता और स्वच्छंदता उनकी शैली के गुण हैं। उनका गंभीर और प्रखर व्यक्तित्व उनके निबन्धों में सर्वत्र झांकता है।
कुटज निबंध में गप्प मूलकता भी है। यह कथा कहने की शैली है। गप्प मारना कृत्रिम शैली में वार्तालाप करना है। सहजता और स्वाभाविकता के साथ सत्यता की झंकृति इस शैली की विशेषता है। इस निबंध में गप्प शैली का प्रयोग न्यूनाधिक मात्रा में किया गया है। ललित निबंध में यह शेली आत्माभिव्यक्ति के साथ सहजता प्रदान करती है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत है कुटज का एक अंश-“यान्नवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब-कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्ती प्रिय नहीं होती - सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं - आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!” विचित्र नहीं है यह तर्क? संसार में जहां कहीं प्रेम है सब मतलब के लिए है।”
सारांश यह है कि कुटज हिन्दी के ललित निबन्धों में अप्रतिम है। भाव और चिन्तन का समन्वय, भाषा की सरलता, प्रसादगुण, लालित्य और प्रवाह है। इसमें शास्त्र ज्ञान है, दर्शन है, चिंतन है, साहित्य है। इसकी प्रस्तुति ललित है, प्रिय है, सुन्दर है। इसमें कहानी की रोचकता भी है, गद्य काव्य की सरसता भी है, महाकाव्योचित औदात्य भी है।
ललित निबन्ध में लेखक का व्यक्तित्व जगह-जगह झांकता है। कुटज में द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के जिन पक्षों की झांकी मिलती है, वे हैं-
1. पांडित्य, विद्धत्ता, बहुपठित होना, शास्त्र ज्ञान। निबन्ध में संस्कृत और हिन्दी काव्य-ग्रन्थों से उद्धरण अनेक दिये गये हैं। 'कुटज' शब्द की व्युत्पत्ति तथा उसका आग्नेय परिवार से संबंध बताना उनके भाषा शास्त्र के ज्ञान का परिचायक है। मेघदूत, याज्ञवल्क्य और महाभारत से उद्धृत उक्तियां उनके संस्कृत ग्रन्थों के ज्ञान का प्रमाण हैं।
2. द्विवेदी जी संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत॒ और अपभ्रृंश भाषाओं के भी पंडित थे तथा उन्होंने इन भाषाओं के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था।
3. वह कवि नहीं थे, परन्तु कवि हृदय सम्पन्न व्यक्ति थे। अतः भावुकता, संवेदनशीलता और सहृदयता के गुण “कुटज” में मिलते हैं।
4. वह विनोदप्रिय थे। अतः यत्र-तत्र हास्य-व्यंग्य के छीटे भी निबन्ध में मिलते हैं।
5. उनका मनुष्य की जिजीविषा में अटूट विश्वास था। कुटज के माध्यम से वह पाठकों को कठिनाइयों और संघर्षों के बीच से जीते रहने मुस्कराते रहने का संदेश देते हैं।
6. उनकी दृष्टि मानवतावाद और लोकमंगलविधायिनी थी। अतः वह स्वार्थ त्याग कर परमार्थ में प्रवत्त होने तथा दलित द्वाक्षा की तरह स्वयं को निचोड़कर दूसरों का हित करने पर बल देते हैं।
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