ठकुरी बाबा भाट वंश में उत्पन्न होने के कारण सहज-प्रसूत कवित्व-प्रतिभा के धनी थे, किन्तु यह प्रतिभा उनके व्यक्तित्व के विकास की साधिका न बनकर गतिरोध करने वाली ही सिद्ध हुई है।
“सिर का अग्रभाग खल्वाट होने के कारण चिकना, चमकीला था; पर पीछे की ओर कुछ सफेद केशों को देखकर जान पड़ता था कि भाग्य की कठोर रेखाओं से सभीत होकर वे दूर जा छिपे हैं। छोटी आंखों में विषाद, चिन्तन और ममता का ऐसा सम्मिश्रित भाव था, जिसे एक नाम देना सम्भव नहीं। लम्बी नाक के दोनों ओर खिंची हुई गहरी रेखाएं दाढ़ी में विलीन हो जाती थीं। होठों में व्यक्त भावुकता को विरल मुंछे छिपा लेतीं थीं और मुख की असाधारण चौड़ाई को दाढ़ी ने साधारणता दे डाली थी। सघन दाढ़ी में कुछ लम्बे सफेद बालों के बीच में छोटे काले बाल ऐसे लगते थे जैसे-चांदी के तारों में जहां-तहां काले डोरे उलझकर टूट गये हों । स्फूर्ति के कारण शरीर की दुर्बलता और कुछ झुककर चलने के कारण लम्बाई पर ध्यान नहीं जाता था। नंगे पांव और घुटनों तक ऊंची धोती पहने जो मूर्ति सामने खड़ी थी, वह साधारण ग्रामीण वृद्ध से विशेषता नहीं रखती थी। ”
आन्तरिक व्यक्तित्व-ठकुरी बाबा के आन्तरिक व्यक्तित्व का चरित्र लेखिका ने बड़े आकर्षक ढंग से चित्रित किया है। वे नेसर्गिक कवि होने के कारण प्रकृति से भावुक थे, जिस कारण लौकिक जीवन-संग्राम में वे असफल रहे।
ठकुरी बाबा का जन्म भाट वंश में हुआ था। भाटों का व्यवसाय अपनी कविता के द्वारा राजा-महाराजाओं की वंश-परम्परा, उनके पूर्वजों का यशोगान करते हुए उनकी प्रशंसा करना रहता था, इसके बदले उन्हें राजाओं से अच्छा पुरस्कार मिलता था। परन्तु अंग्रेजी राज्य की स्थापना के पश्चात भाटों की वृत्ति मारी गई। उनकी कवित्व शक्ति का उपयोग केवल मनोविनोद रह गया। वे धनीमानियों के पास जाते, उन्हें अपनी कविता सुनाकर प्रसन्न करते और दो-चार आने जो वहां से मिलता, उसी से सन्तुष्ट होते। जो लोक-व्यवहार में निपुण होता है, वही जीतता है। पर कविता करने वाला भावुक होता है, उससे व्यावहारिकता दूर भागती है। इस कारण ठकुरी पिता के चाहने पर भी नीतितन्त्र में दक्ष न हो सके |
सौतेले भाई बड़े थे, घर-द्वार उनके अधिकार में था। फलस्वरूप ठकुरी एक प्रकार से उनके अवैतनिक दास हो गये। बदले में केवल भोजन-वस्त्र पाते थे।
पति का पत्नी के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है, इसके प्रति वे जागरूक न थे। घर में उनकी दशा एक दास की सी थी। विवाह हो जाने पर पत्नी भी दासी की भांति जेठ-जेठानियों की चाकरी करने लगी। वैवाहिक जीवन असफल ही रहा।
ठकुरी विवाह होने के पश्चात गृहस्थ हो गये थे। उन पर पत्नी का भी उत्तरदायित्व आ गया था। इसलिए प्रयत्न करके अथौपार्जन करना चाहिए था। उन्हें लोग विरहा गाने आमन्त्रित करते, पर सौ-पचास रुपया देने की शर्त पर नहीं। न ठकुरी ने इस प्रकार का पारिश्रमिक कभी मांगा। भावुकतावश उन्हें जो भी बुलाता, उसके यहां चले जाते। कभी किसी के खेत की रातभर रखवाली करने, कभी बारह मासा सुनाने, कभी आल्हा-ऊदल की कथा गाने मीलों पैदल जाते, होली के अवसर पर कबीर सुनाते। पर मिलता क्या था? कोई सत्तू बांध देता, तो कोई तिल-गुड़ ।
कन्या का जन्म होने पर प्रसूति-ज्वर से पीड़ित पत्नी का ठीक उपचार न होने से देहान्त हो गया। इसने ठकुरी के हृदय को हिला दिया था। वे पत्नी वत्सल तो न बन सके, पर पुत्री वत्सल अवश्य बन गये।
इस प्रकार ठकुरी बाबा के व्यक्तित्व के मुख्य पक्ष रहे - उनकी भावुकता, अपने-पराये का विचार न कर सबसे स्नेह करना, धन की ओर से निरपेक्षता, भावुक होने पर भी पत्नी को प्रेम-प्रदान करने में असमर्थता।
घर व कृषि की देखरेख के लिये अपनी बूढ़ी मौसी को लाने से ज्ञात होता है कि वे अपने सगे-सम्बन्धियों पर भरोसा रखते थे तथा असहायों को संरक्षण देना उनका स्वभाव था। पुत्री को मौसी के सुपुर्द न कर स्वयं उसकी देखरेख करना बताता है कि वे इस सम्बन्ध में कितने सावधान थे।
काम के समय कन्या को पीठ पर बांधे रखना तथा लोगों के मजाक की चिन्ता न करना, उनकी साहसिकता का बोध कराता है कि वे लोक की चिन्ता नहीं करते थे।
ठकुरी बाबा का एक विशेष गुण है उनकी उदारता। वे अपने खर्च पर भी लोगों को कल्पवास के लिये साथ ले आते हैं। अपनी बूढ़ी मौसी के अतिरिक्त ठकुराइन, सहुआइन व पण्डित-पण्डिताइन सभी को साथ ले आते हैं। लोगों की चालाकी और स्वार्थभरी वृत्ति की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती।
उनके हृदय में सबके लिये ममता है। वह निकट जाकर सबको आत्मीय बना लेते हैं। जब लेखिका की कुटिया पर आश्रय की आशा से पहुंचते हैं, तब भी उनका आमन्त्रण ममता से भरा है - बिटिया रानी, का हम परदेसिन का ठहरै न दैहों?...
--ई तो रेन बसेरा है - भोर भये उठि जाना रे ! का झूठ कहित हैं?........”
इस प्रकार के सरल और आत्मीयता भरे वचन सुनकर कोन आश्रय के लिये मना कर देता? पुनः उनकी वत्सलता व उदारता संक्रान्ति के दिन प्रकाश में आती है, जब वे लेखिका के लिये तिल के लड्डू, घी, आम का अचार व दही लाते हैं।
ठकुरी बाबा कन्या के सम्बन्ध में व्यावहारिक दिखते हैं। उसको देखरेख के लिये मौसी के भरोसे भी नहीं छोड़ते, काम के समय भी साथ रखते हैं। लोगों के मजाक करने पर सहज उत्तर देते हैं - “मजदूर मां यदि बच्चे को पीठ पर बांध कर काम करती है, तो मेरे ऐसा करने में क्या बुराई है?”
कन्या के छः-सात वर्ष की होने पर उसका भविष्य सुस्थिर करने के लिये बिरादरी के किसी अनाथ, किन्तु सुशील बालक को अपने घर ले आते हैं और उसके साथ सगाई कर देते हैं।
ठकुरी भावुक होने के साथ-साथ धार्मिक वृत्ति के भी हैं। इसलिए प्रतिवर्ष माघ के महीने में कल्पवास के लिये समुद्र कूप आते हैं। इस धर्म का लाभ औरों को भी हो, इस भावना से अपनी मौसी, बुआ, दामाद, बेटी, पण्डित दम्पति, सहुआइन सभी को साथ ले आते हैं। भक्तिभावना भी उनके हृदय में कूट-कूट कर भरी है। भजन कीर्तन में तन््मय हो जाते हैं।
वे संसार की नश्वरता के प्रति जागरूक हैं, उसे एक रैन-बसेरा से अधिक नहीं मानते। इसलिए जीवन के प्रति अधिक मोह नहीं है। वह बहुश्रुत हैं। उन्हें सूर, कबीर आदि भक्त कवियों के पद कण्ठस्थ हैं और वह सस्वर गाते हैं। वह सरलता, अपरिग्रह, सज्जनता, उदारता, स्नेह, ममता की प्रतिमूर्ति थे।
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