छायावाद की मूल प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं -
मूल्य केन्द्रिकता-वैयक्तिकता छायावादी काव्यधारा की एक प्रमुख प्रवृत्ति है । छायावादी कवि अपने में (अहं) के प्रति अधिक सजग हैं | डॉ० शिवदानसिंह चौहान के शब्दों में-कवि का में” प्रत्येक प्रबुछ भारतवासी का मैं? था ।” इस कारण कवि की विषयगत दृष्टि ने अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत योजना शैली अपनाई, उसके संकेत तथा प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज प्रेषणीय बन गए । इसीलिए तो निराला जी ने लिखा है-
मैंने में? शैली अपनाई
देखा एक दुखी निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में,
झट उमड़ वेदना आई ।/”
विषयिनिष्ठता-छायावाद की विषयिनिष्ठता का अंकन करते हुए डॉ० सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अन्निय” ने 'पुष्करिणी” की भूमिका में लिखा है- “िषयी प्रधान दृष्टि ही छायावादी काव्य की प्राणशक्ति है ।”
इस विषयीनिष्ठता की झलक स्पष्ट रूप से छायावाद के सभी रूपों में देखी जा सकती है ।
अनुभूति की प्रतिष्ठा-कविवर पंत ने काव्य-सृजन के विषय में अनुभूति की प्रधानता देते हुए कहा है-
“वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान ।
निकलकर नयनों से चुपचाप
बहि होगी कबिता अनजान ।।”
इसी प्रकार महादेवी वर्मा सहित छायावाद के प्रायः सभी कवियों ने कोरे वस्तु वर्णन के स्थान पर अनुभूति को महत्त्व प्रदान किया है ।
कल्पनाशीलता-छायावादी कविता में यह भी एक प्रवृत्ति है कि उसमें कवियों ने मूर्त को अमूर्त रूप में अंकित किया है और अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान किया है | पंत और प्रसाद के काव्य में यह विशेषता दृष्टिगोचर होती है । एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें कवि ने 'मादकता' और 'संज्ञा' अमूर्त उपमानों को 'प्रेयसी' के रूप में मूर्त रूप प्रदान किया है-
मादकता से आये तुम,
संज्ञा से चले गये थे ।
हम व्याकुल पड़े बिलखते,
थे उतरे हुये नशे से ।!
बेदना की विवृत्ति-छायावादी कविता में वेदना और निराशा का स्वर प्रमुख रूप से सुनाई देता है । छायावादी कवि की वेदना में ककणा और निराशा के दर्शन होते हैं । वह जीवन के संघर्षों से निराश होकर कल्पना लोक में विचरण करता है | उसके गीतों में पीड़ा, टीस और व्यथा का साम्राज्य रहता है | महादेवी वर्मा की वेदनानुभूति का एक उदाहरण प्रस्तुत है । वे दुःख से ही अपना श्रृंगार करना चाहती हैं,
प्रिय / जिसने दुःख पाला हो,
बर दो यह मेरा आस ।
उसके उर की माला हो,
में दुःख से श्रृंगार करुगी ।”
प्रेमानुभूति-छायावादी कविता में सौन्दर्य-भावना की भाँति प्रेम-भावना का विकास भी प्रकृति, नारी, मानव, शिशु आदि के रूप में हुआ है। प्रकृति से कवि को अनेक पारिभाषिक स्पष्टीकरण अनन्य प्रेम है । वह उसे किसी भी मूल्य पर त्यागना नहीं चाहता है । इस भावना के दर्शन पंतजी की निम्न पंक्तियों में होते हैं,
छोड़ डुगों की मद छाया,
तोड़ ग्रकरति से थी माया ।
बाले / तेरे बाल जाल में,
कैसे उलझा दूं लोचन ?
भूल अभी से इस जग को ।/”
सोन्दर्य बोध-छायावादी काव्य में सौन्दर्य भावना मुख्यतः नारी-सौन्दर्य, प्रकृति-सौन्दर्य तथा अलौकिक प्रेम के रूप में उभरी है | इस सीन्दर्य चित्रण में मांसलता तथा अश्लीलता का सर्वथा अभाव है | यदि सौन्दर्य में कहीं मांसलता की गंध आती भी है, तो कवि अलौकिक उपमानों के द्वारा उस सीन्दर्य को अस्पृश्य बना देता है । यथा-
“नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग ।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, गेघ-वन बीच गुलाबी रंग /?
प्रकृति की ओर वापसी-छायावादी काव्य अपने प्रकृति-चित्रण के लिए प्रसिद्ध है । इस धारा के कवियों ने प्रकृति के माध्यम से अपने मनोभावों की अत्यन्त सजीव अभिव्यक्ति प्रदान की है । प्रकृति छायावादी कवियों की सहचरी है । उसके सौन्दर्य के सम्मुख इन कवियों को किशोरी का रूप-सौन्दर्य भी फीका-सा लगता है ।
छायावादी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण शैली में अत्यन्त हृदयग्राही चित्रण किया है । प्रकृति-चित्रण का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
वह स्न्ध्या सुन्दरी, परी-सी
धीरे, धीरे, धीरे ।
छायावादी कवियों ने प्रकृति के कोमल और कठोर रूपों के अत्यन्त प्रभावी और सजीव चित्र उतारे हैं ।
राष्ट्रीय चेतना, लोकमंगल ओर मानव करुणा-इन कवियों में अपने देश के अतीत गौरव की बड़ी तीव्र भावना है, विशेषतः प्रसाद में । उन्होंने देश के प्राचीन गौरव का बड़ी ओजस्वी एवं प्रेरणादायक वाणी में गायन किया है-
अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ।।
इसी तरह इन कवियों ने लोकमंगल और मानव करुणा की भावना को अंकित व चित्रित किया है ।
विश्व मानवतावाद-छायावादी कविता में मानवतावादी भावना को प्रधानता दी गई है । छायावादी कवियों के मानवतावादी दृष्टिकोण का विकास विवेकानन्द, अरविन्द, गाँधी, टैगोर आदि के विचारों से अधिक व्यापक रूप में हुआ है । इस कविता में मानव को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है । इसीलिये प्रकृति-प्रेमी कवि पंत का हृदय मानव के प्रति आस्था प्रकट करते हुये पुकार उठा,
'पुन्दर है विहय सुमन सुन्दर”
मानव तु सबसे सुन्दरतम ।॥”
सांस्कृतिक गरिमा-यों तो छायावादी काव्यधारा ने प्राचीन रूढ़ियों के विरुद्ध अपना बिगुल बजाया, फिर भी इसने अपनी सांस्कृतिक गरिमा को न केवल अक्षुण्ण रखने की दृढ़ता दिखायी, अपितु उसके उत्थान के लिए भी अपनी आवाज बुलन्द की । निराला” की “यमुना” के प्रति 'तुलसीदास' और “राम की शक्ति-पूजा” एवं प्रसाद की 'कामायनी” इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं ।
इस प्रकार स्वातंत्रय भावना से प्रेरित होकर छायावादी काव्यधारा ने परम्परागत रूढ़ियों से स्वयं को न केवल मुक्त ही किया, अपितु नए ढंग से उसका फिर से आविष्कार भी किया । फिर आधुनिक संदर्भ में उसका फिर से सृजन करके उसे नई अर्थच्छायाओं से संवलित कर प्रस्तुत किया । इससे इस काव्यधारा के आधुनिक बोध को एक नया सांस्कृतिक आवास मिल गया ।
भाव अभिव्यंजना-छायावादी काव्यधारा की उच्चतम उपलब्धियों में भाव अभिव्यंजा नामक उपलब्धि को नकारा नहीं जा सकता है । यह सच है कि द्विवेदी युगीन खड़ी बोली की काव्य भाषा के परिमार्जन के बाद उसकी काव्यात्मक संभावनाओं को पहचान कर उसके उपयोग करने के शेष कार्य को छायावादी काव्यधारा ने ही सम्पन्न किया । मुकुटधर पाण्डेय ने छायावादी काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
“उसका एक मोटा यह लक्ष्य है कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है । कहीं-कहीं तो इन दोनों का परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता । लिखा कुछ और ही गया है, पर मतलब कुछ और ही निकलता है | इसमें ऐसा कुछ जादू भरा है । अतएव यदि यह कहा जाए कि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । तात्पर्य यह है कि छायावाद के शब्द प्रतीक होते हैं और वे जादू का-सा असर पैदा करते हैं | इसके लिए शब्द को उसके प्रचलित अर्थ से अलग करके नए अर्थ से युक्त करता है |
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