गुप्तजी ने प्रबन्ध, मुक्तक और चम्पू काव्य लिखे । उन्होंने हिन्दी-साहित्य को मात्रा और नवीनता दोनों ही दृष्टि से धनी बनाया | उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं-रंग-भंग', 'जयद्रथ-वध”, 'भारत-भारती', किसान', -अनघ', पंचवटी', हिन्दू”, शक्ति”, 'झंकार', साकेत', 'यशोधरा', द्वापर', सिद्धराज', “नहुष', (विकट भट', “मंगल घट”, कुणाल”, आदि ।गुप्तजी का साहित्य स्वदेश-प्रेम, नारी उत्थान आदि भावनाओं से परिपूर्ण हैं । अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' भी इस युग के महान् कवि हैं। उन्होंने महाकाव्य और मुक्तक दोनों प्रकार की रचनायें कीं | उनकी प्रमुख कृतियाँ 'प्रिय प्रवास', वैदेही वनवास”, 'बोलचाल', चुभते चौपदे”, “कल्पना”, 'कल्पता', 'पारिजात', रस कलश', कर्मवीर', काव्य-पवन', प्रेम-प्रपंच” आदि हैं । (प्रिय प्रवास” आपकी अनुपम कृति है । आपने इस महाकाव्य में भाषा- शैली, कथा आदि दृष्टियों से अपनी मौलिकता का परिचय दिया । इस युग के रामनरेश त्रिपाठी भी विख्यात कवि हैं। आपने 'भिन्न', 'पथिक' और 'स्वप्न” खण्ड काव्यों की रचना की है। आपकी कविता में स्वदेश-प्रेम तथा स्वच्छन्दतावाद की प्रधानता है ।
इन कवियों के अतिरिक्त इस युग में श्रीधर पाठक, रामचरित उपाध्याय, राय देवीप्रसाद 'पूर्ण', नाधूराम शंकर, जगन्नाथ रत्नाकर, गयाप्रसाद शुक्ल 'स्नेही', सत्यनारायण 'कविरत्न', माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त आदि कवि हुए | द्विवेदी काल आधुनिक कविता का द्वितीय चरण है | इस युग का आरम्भ सन् 1903 से माना जाता है । इस काल के प्रवर्तक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी थे । इसी कारण इस काल को द्विवेदी काल' कहते हैं | जब द्विवेदीजी ने सरस्वती” पत्रिका के सम्पादन का भार सम्भाला, तब हिन्दी के गद्य और पद्य साहित्य की दिशा में विशेष परिवर्तन आया । कविता के वर्ण्य-वेषय में तो कोई अन्तर नहीं आया, परन्तु उनकी भाषा में बड़ा भारी आन्दोलन हुआ । खड़ी बोली को इस काल में पूर्णरूप से साहित्य की भाषा बना लिया गया । इस प्रकार इसमें भाषा का विवाद समाप्त हो गया ।
इस युग में अश्लील श्रृंगार का पूरी तरह से बहिष्कार कर दिया गया | इस युग की कविता में राजनीतिक चेतना का गहरा प्रभाव है और कविता का स्वतन्त्रता-आन्दोलन से पूर्ण सम्बन्ध है | उसी का परिणाम है कि द्विवेदी युग की कविता में कांग्रेस की प्रशंसा ही नहीं, वरन् उसके सामाजिक आदर्शों की भी सुन्दर व्यंजना है । विधवा-विवाह, बाल-विवाह, दहेज प्रथा, छुआछूत आदि सामाजिक कुरीतियों को दूर करना इस समय की कविता का मुख्य उद्देश्य रहा है ।
इस युग के प्रतिनिधि कवि मैथिलीशरण गुप्त है । उन्होंने स्वयं द्विवेदीजी का आधार स्वीकार किया-
तुलसी भी करते केसे मानसवाद ।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद ।।
ब्रजभाषा की कविता-दड्विवेदी युग के श्रीधर पाठक, राय देवीप्रसाद पूर्ण, नाधूराम शंकर शर्मा, गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही”, लाला भगवान दीन, जगन्नाथदास रत्नाकर' अयोध्याप्रसाद उपाध्याय, हरदयाल सिंह, सत्यनारायण कविरत्न आदि ब्रजभाषा के प्रमुख कवि हैं । इनमें से “रत्नाकर', 'कविरत्न' और हरदयालसिंह को छोड़कर सभी कवि दोरंगी कवि थे, जो ब्रजभाषा में तो श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित-सवैया या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को रचते थे | (रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 572)
“रत्नाकर” के उद्धव शतक में ऐसे अनेक छंद है, जिनमें गोपियों के हास्य-व्यंग्य, तर्कशीलता, बौद्धिक प्रखरता, गंभीरता, चुलबुलेपन, तटस्थता, संतुलन इत्यादि की प्रवत्तियाँ एक साथ ही है, जैसे उद्धव के द्वारा उपदेशित प्राणायाम के विरोध में गोपियाँ कहती हैं-
ओर हूँ उपाय केते सहज सुढंग ऊधो,
सॉँस रोकिबो को कहा जोग की कुढंग है ।
कुटिल कटारी है, अटारी उतंग अति,
जगुना तरंग है, तिहारी सतसंग है ।।
सत्यनारायण कविरत्न ने तो अपनी सारी कविता ब्रजभाषा में ही लिखी है । उनकी सरलता का एक उदाहरण देखिए-
सदा दारु-योषित सम बेबस्र आज़ा मृदित ग्रसमाने ।
कोरो सत्य ग्राम की बासी कहा तकल्लुफ जाने ।
खड़ी बोली की कविता-द्विवेदी युग की कविता की सबसे बड़ी देन खड़ी बोली की कविता को माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना रहा |
देश-भक्ति द्विवेदी युगीन काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति है। भारतेन्दु युग में तो देश-भक्ति केवल भाषा, भोजन तथा वेश तक ही सीमित थी, लेकिन द्विवेदी युग में देश-भक्ति को एक व्यापक आधार मिला । डॉ० केसरी नारायण शुक्ल ने द्विवेदी युग को राष्ट्रीय जागरण काल की संज्ञा दी है । वे कहते हैं-/इससे इस समय जो राष्ट्रीय जागरण हुआ, वह एक प्रकार से हिन्दू जागरण था, क्योंकि उस जागरण में हिन्दू इतिहास और परम्परा का अवलम्ब या आश्रय प्रधान था । इस युग में देश-भक्ति विषयक अनेक लघु कविताएँ लिखी गईं | इस काल के प्रबन्ध-कार्ब्यों में देश-भक्ति को सुन्दर अभिव्यक्ति मिली हे |
द्विवेदी युगीन कविता में सामाजिकता का भाव प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है । इस काल की कविता समाज-सापेक्ष है । उसमें अनेक सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों पर तीखे प्रहार किए गए हैं । इस युग की कविताओं में एक ओर तो अतीत का गौरव है, तो दूसरी ओर सुखद और सुन्दर भविष्य की कामना । प्राचीन और नवीन का सुन्दर समन्वय डिवेदी युगीन काव्य की प्रमुख विशेषता है ।
द्विवेदी युग की कविता में रीतिकालीन श्रृंगार रस का कोई स्थान नहीं है | द्विवेदीजी एक आदर्शवादी व्यक्ति थे । इसी कारण इस काल की कविता भी श्रृंगारिकता को आत्मसात् न कर सकी | इस काल में श्रृंगार की कमी का कारण, इस पर आर्यसमाज का प्रभाव भी है । इस काल की कविता वर्णनप्र६ गन है, इसी कारण इसमें लाक्षणिकता नहीं आ पाई । द्विवेदीजी मराठी की वर्णन प्रधान शैली से प्रभावित थे । उसी प्रकार की शैली को उन्होंने हिन्दी में भी स्थान दिया ।
इस काल के कवियों की धार्मिक भावना भारतेन्दु युग से अधिक व्यापक हो चुकी थी | मानवतावाद की भावना के कारण इन्होंने शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई और शोषित और दलित के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की । इन कवियों को दु:खियों के करुणा भरे ऑसूसिक्त चेहरों में भगवान् के दर्शन होने लगे | इस प्रकार कवि का अलौकिक प्रेम मानव-प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह कह उठा-
जग की सेवा करना ही बस है सब सार्रें का सार ।
विश्व प्रेम के बन्धन में ही मुझको मिला मुक्ति का दार ।।
इस काल में इस प्रकार सामन्तवादी दृष्टिकोण की कटु निन््दा करने वाले कवियों का प्रादुर्भाव हुआ । इनकी कविता में बुद्धि का तत्त्व बहुत अधिक मात्रा में था, इसी कारण राम और कृष्ण एक साधारण मानव के रूप में हमारे सामने आए | ईश्वर इस संसार एवं प्रकृति में वर्तमान है, इसी बात को स्पष्ट करते समय इस काल के कवि में रहस्य-भावना आ गई है । इसी रहस्य-भावानायुक्त कविता का एक रूप देखिए -
तेरे घर के दार बहुत हैं किससे होकर आऊँ में ।
सब दारों पर भीड़ बहुत है, केसे भीतर जाऊँ में ।।
डॉ. केसरीनारायण शुक्ल का इस काल की धार्मिक कविता के विषय में विश्वास है, भारतेन्दु युग की कविता से यह निस्संदेह अधिक उन्नत है। उपदेशात्मक प्रवृत्ति को छोड़कर कवियों ने मानवतावाद को ग्रहण किया । उदारता और व्यापक मनोदृष्टि उस समय की धार्मिक कविता के विशेष लक्षण हैं, अन्योक्ति सौन्दर्य पूर्ण है और उसमें काव्यत्व है । इन कवियों की यह सफलता साधारण नहीं है | विश्व-प्रेम और जन-सेवा की भावना के द्वारा तृतीय उत्थान के कवियों ने धार्मिक कविता को अधिक उनन्नतशील बनाया ।” इस प्रकार इस युग की कविता में धार्मिक सहिष्णुता थी और सभी धर्मों के प्रति प्यार के साथ-साथ मानव-मात्र की भलाई भी |
इन कवियों ने प्रकृति का रमणीक वर्णन किया है । भारतेन्दु युग में प्रकृति का वर्णन बंधी-बंधाई परिपाटी पर हुआ था, किन्तु द्विवेदी-युगीन कवियों ने प्रकृति का ज्यों-का-त्यों चित्रण करके एक नयी परिपाटी को आरंभ किया । इसमें प्रकृति के लिए निम्नलिखित पंक्तियां देखिए- ग्रकति जहाँ एकांत बैठी निज रूप संवारति ।
पल पल भेष छनिक छवि छिन छिन धारति ।।
रामनेश त्रिपाठी ने अपने खण्डकाव्य 'पथिक' और 'स्वप्न! में इसी प्रकार की प्रकृति की प्रतिष्ठा करते हुए देश-भक्ति के गीत गाए हैं। उन्होंने प्रकृति का सुन्दर रूप से मानवीकरण किया है-
अतुलनीय जिनके ग्रताप का साक्षी है ग्रत्यक्ष विवाकर
घूम घूमकर देख चुका है जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर ।
जिनका वैभव देख चुके हैं नभ के यह अनन्त तारयागण ।
अग्रणित बार चुन चुका है नभ जिनका विजय घोष रण गर्जन ।।॥
इसमें प्रकृति के मानवीकरण के साथ-साथ अतीत के गौरव की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की गई है । दूसरी ओर “पंचवटी” के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने भी प्रकृति का सुन्दर एवं मनोरम रूप हमारे सामने रखा है-
“'चारू चन्र की चंचल किरणें खेल रहीं थीं जल थल में”
इन पंक्तियों में कवि ने प्रकृति का ज्यों-का-त्यों सुन्दर चित्र प्रस्तुत कर दिया है । द्विवेदी युग से पहले राजा, महाराजा, ईश्वर, ईश्वरावतार, वीर योद्धा आदि ही काव्य के नायक-पद को सुशोभित करते थे, लेकिन द्विवेदी युग में हजारों वर्षों के बाद मनुष्य की सच्ची प्रतिष्ठा पहली बार इस देश में आंकी गई | मानव ने मानव को समझा । इन्सान-इन्सान के बीच की बनावटी दीवारें ढहने लगीं | दीन-हीन कृषकों तथा जन्म लेने से पूर्व ही विधवा हो जाने वाली युवतियों के कष्टमय जीवन की जैसी मार्मिक झांकी इस युग के काव्य में मिलती है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है | इस प्रकार द्विवेदी युग में जन-साधारण को काव्य विषय के रूप में पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली है । द्विवेदी युग के हास्य-व्यंग्य काव्य के विषय राजनीतिक शोषण, सामाजिक कुरीतियां, विदेशीयता का अन्धानुकरण, फैशनपरस्ती तथा व्यभिचार आदि हैं | बालकुकुन्द गुप्त द्विवेदी युग के सशक्त व्यंग्य लेखक हैं । लॉर्ड कर्जन पर उन्होंने अत्यन्त तीखे और चुभते हुए व्यंग्य किये हैं ।
द्विवेदी युग में काव्य के क्षेत्र में प्रचलित प्रबन्ध, मुक्लक तथा गीत आदि सभी काव्य-रूपों में रचनाएँ लिखी गई हैं । 'प्रिय-प्रवास', 'साकेत” तथा “रामचरित चिन्तामणि' द्विवेदी युग के प्रसिद्ध प्रबन्ध-काव्य हैं । खण्ड-काव्य की दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त कृत 'जयद्रथवध', प्रसादकृत प्रेमपथिक', सियारामशरण गुप्त कृत 'मौर्य-वेजय” उल्लेखनीय हैं । जगन्नाथदास रत्नाकर द्वारा रचित उद्धवशतक'” इसी युग के प्रबन्ध-मुक्तक हैं | द्विवेदी युग में प्रगीतों की भी रचना हुई ।
द्विवेदी युग के काव्य की मुख्य भाषा खड़ी बोली है | द्विवेदी युगीन खड़ी बोली सरल, सुबोध, शुद्ध और रसानुरूप है । जगन्नाथदास रत्नाकर जैसे कवि को भी खड़ी बोली की काव्योपयुक्तता पर संदेह था, लेकिन 'जयद्रथवध' तथा 'भारत-भारती” ने इन सभी संदेहों को समाप्त कर डाला । द्विवेदी युगीन काव्य में विविध छंदों का प्रयोग किया गया | इस युग के कवि दोहा, चौपाई या पद के प्रयोग तक ही सीमित नहीं रहे । उन्होंने रोला, छप्पय, गीतिका, हरिगीतिका नाटक आदि छंदों का भी सुन्दर प्रयोग किया है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'द्विवेदी युगीन काव्य सांस्कृतिक पुनरुत्थान, उदार राष्ट्रीयता, सामाजिक सुधार एवं उच्चादर्शों का काव्य है।” इसमें विषयों की विविधता तथा प्रचलित काव्य रूपों का सफल प्रयोग है । खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाने का श्रेय द्विवेदी युग को ही जाता है ।
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