श्रक्ति एक सदियों पुरानी अवधारणा है | वेदों के संकलन के समय से ही भ्राक्ति शब्द प्रचलन में आया है| ऋग्वेद संहिता, बृहदारण्यक उपनिषद, छांदुयोग उपनिषद, कथा और कौशिकी उपनिषद में शक्ति शब्द का कई बार उल्लेख किया गया है | इस बिंदु पर श्रीमद्भगवद्गरीता का भक्ति योग अधिक वर्णनात्मक है | यह ज्ञान (ज्ञान), कर्म (क्रिया) और भ्रक्ति (सर्मपण) को, भौतिक संसार के बंधनों को तोड़ने और सर्वशक्तिमान भगवान की सेवा करने के लिए,तीन आवश्यक विशेषताओं के रूप में निर्धारित करता है| इस प्रकार भ्रक्ति मोक्ष प्राप्त करने के तीन मान्यता प्राप्त साधनों में से एक है| यह आंदोलन 9वीं शताब्दी ईस्वी में शंकराधार्य द्वारा शुरू किया गया था जो 16वीं शताब्दी ईस्वी तक कई हिंदू भक्तों, प्रचारकों और धार्मिक सुधारकों द्वारा जारी रहा।
ग्राक्ति आंदोलन का उदय, तत्कालीन,
हिंदू समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों में निहित है| भारत में मुस्लिम शासन के समय में हिंदू समाज जाति व्यवस्था की कठोरता,
अप्रासंगिक अनुष्ठानों और धार्मिक प्रथाओं, अंध
विश्वासों और सामाजिक हठधर्मिता जैसी कई सामाजिक विसंगतियों से भरा हुआ था। समाज
मी बहुदेववाद, अलगाव, जातिवाद के कारण
गंभीर आर्थिक असमानत्ता, अस्पृश्यता आदि से पीड़ित था|
धर्म पर स्वयं, ब्राह्मणों का एकाधिकार
था जो कभी-कभी एक अधर्मी और भ्रष्ट नैतिक जीवन जीते थे | सामान्य
तौर पर, आम लोगों ने, इन सामाजिक
बुराइयों के प्रति एक प्रतिकूल रवैया विकसित्त किया था और उन्हें धर्म के एक उदार
रूप की आयश्यकता थी जहां वे खुद को सरल धार्मिक प्रथाओं के साथ पहचान सकें|
अत: उस समय मौजूद सामाजिक-धार्मिक बुराइयों के खिलाफ फैलतें असंतोश
ने, लंबे समय तक, पूरे भारत में
ब्रक्ति आंदोलन के प्रधार-प्रसार के पीछे एक प्रमुख उत्रेरक का काम किया|
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