स्रोत-भाषा में लिखित साहित्य का लक्ष्य-भाषा में अनुवाद करने को साहित्यिक अनुवाद कहते हैं। साहित्य की विधाओं में कविता,लघुकथा, कहानी, उपन्यास, एकांकी, नाटक, प्रहसन (हास्य), निबंध, आलोचना, रिपोर्ट, डायरी लेखन, जीवनी आत्मकथा, संस्मरण, गल्प (फिक्शन), विज्ञान तथा कथा (साइंस फिक्शन), व्यंग्य, रेखाचित्र, पुस्तक समीक्षा या पर्यालोचन तथा साक्षात्कार शामिल हैं। साहित्यिक कृतियों का अनुवाद, सामान्य अनुवाद से उच्चतर माना जाता है।
साहित्यिक अनुवादक कार्य के सभी रूपों जैसे भावनाओं, सांस्कृतिक बारीकियों, स्वभाव और अन्य सूक्ष्म तत्त्वों का अनुवाद करने में भी सक्षम होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि साहित्यिक अनुवाद वास्तव में संभव नहीं है। दो संस्कृतियों के बीच अनुवाद रूपी पुल के निर्माण में साहित्यिक अनुवाद की भूमिका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। इसका सीधा सा कारण यह है कि किसी भौगोलिक क्षेत्र का साहित्य उस क्षेत्र की संस्कृति, कला और रीतियों का प्रतिनिधित्व करता है। कहा भी गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। बस यही वह चीज है जो साहित्यिक अनुवाद को बेहद उत्तरदायी और कठिन कर्म बना देती है। किसी भी एक साहित्यिक कृति का उसकी मूल भाषा से लक्ष्य-भाषा में अनुवाद करते समय कितनी ही सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं।
ये सभी सावधानियाँ सांस्कृतिक भिन्नताओं के चलते समस्याओं का रूप ले लेती हैं क्योंकि सांस्कृतिक भिन्नता को समाप्त करने के लिए भाषा को मूल रचना की भाषा में व्यक्त प्रतीकों, भावों और उन अनेक विशेषताओं को सटीक तरीके से लक्ष्य-भाषा में उतारना होता है और साथ ही यह ध्यान रखना होता है कि लक्ष्य-भाषा में उतरी कृति पढ़ने वाले को सहज और आत्मीय लगे। साहित्य की विभिन्न विधाओं में से किसी एक भाषा में रचे गए सर्जनात्मक साहित्य को जब किसी दूसरी भाषा में अंतरित किया जाता है तो वह ‘साहित्यानुवाद’ कहलाता है। साहित्यानुवाद’ को ‘साहित्यिक अनुवाद’ भी कहा जाता है। जिस प्रकार किसी एक भाषा में साहित्य सृजन अलग-अलग विधाओं में किया जाता है, उसी आधार पर सर्जनात्मक साहित्य के दूसरी भाषा में अनुवाद को भी विधावार अलग-अलग नामों से भी संबोधित किया जाता है।
इस आधार पर, गद्य साहित्य के अनुवाद को ‘गद्यानुवाद’, पद्य (कविता) साहित्य के अनुवाद को ‘पद्योनुवाद (काव्यानुवाद) तथा नाटक के अनुवाद को नाट्यानुवाद’ कहते हैं। साहित्य की कथा और कथेतर (अन्य) विधाओं में रचित साहित्य को भी इसी प्रकार संबोधित किया जा सकता है। साहित्यानुवाद के संदर्भ में विशेष ध्यान रखने योग्य यह भी है कि साहित्य की प्रत्येक विधा का अपना अलग वैशिष्ट्य होता है। इसी तरह, विभिन्न विधाओं में रचित साहित्य का अनुवाद भी अपनी अलग विशिष्टता लिए हुए होता है। अगर अनुवादक को प्रत्येक विधा विशेष की विशिष्टता और उसे लक्ष्य भाषा में ढालकर प्रस्तुत करने की अल्पज्ञता (कम ज्ञान) है तो वह मलतः अनवादक की सीमा कही जाएगी.न साहित्यानुवाद कर्म की असंभाव्यता।
वस्तुतः अनुवादक को विधा-विशेष की विषयवस्तु और अंतर्वर्ती भावना को ग्रहण कर कलात्मक अनुभूति तक पहुँचते हुए उसके कथानक, वर्णन, चरित्र, शैली आदि की विशिष्टता को लक्ष्य भाषा में उबुद्ध कर अभिव्यक्त करने में सफलता प्राप्त करनी होती है। अनुवादक को रचयिता के व्यक्तित्व में प्रवेश कर उसके अनुभवों को स्वयं अनुभूत करने की साधना करनी पड़ती है, ‘परमानस प्रवेश करना पड़ता है। अर्थात उसे मूल रचयिता की मनोभूमि पर निर्वैयक्तिक भाव से उतरकर पाठ को आत्मसात करके अपनी चेतना में रचयिता की सर्जनात्मक मन स्थिति का उद्बोध करते हुए समान कलात्मक अनुभूति को दूसरी (लक्ष्य) भाषा में प्रस्तुत करना होता है।
इसके लिए अनुवादक में पुनःसृजन की ऐसी क्षमता होनी चाहिए जैसी मूल लेखन में सृजन की होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि अनुवादक का सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न होना जरूरी है। इसकी कसौटी तो यह रहती है कि अनूदित रचना पढ़कर पाठक को ऐसी अनुभूति प्रतीत हो मानो रचनाकार ने अपनी ही कृति को दूसरी भाषा में पुनःसृजित कर दिया है।
साहित्य विधा में अंतर के कारण कहीं यह अनुभूति स्थूल होती है और कहीं अपेक्षाकृत सूक्ष्म । अनुभूति की यह सूक्ष्मता, तरलता और अमूर्तता अनुवादक के द्वारा दूसरी भाषा में समांतर उबुद्ध कर्म (अर्थात साहित्यानुवाद) को अपेक्षाकृत जटिल बना देती है। वैसे, साहित्यिक अनुवाद – चाहे वह गद्यबद्ध हो अथवा पद्यबद्ध – समांतर अनुभूति को उबुद्ध करने में सफलता प्राप्त करने में ही साहित्यानुवादक की सफलता है। लेकिन इस सफलता की तभी उपलब्धि हो पाती है, जब अनुवादक को साहित्य की विधा विशेष की विशिष्टता का बोध हो और वह उस वैशिष्ट्य को दूसरी भाषा में साहित्य की विधा विशेष में सार्थक तरीके से प्रस्तुति कर पाए।
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