विश्व की सभ्यताओं और संस्कृतियों के विकास में अनुवाद की विशेष भूमिका रही है। विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों को जानने तथा समझने के लिए अनुवाद को माध्यम बनाना हमारी नियति रही है। यूनान, मिस्र, चीन आदि प्राचीन सभ्यताओं से भारत का घनिष्ठ संबंध रहा है और इस संबंध में अनुवाद की विशेष महत्ता रही है। बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार समूचे एशिया में अनुवाद की जीवंत परंपरा का परिणाम है।
विश्व भर में गीता तथा उपनिषद् के ज्ञान का अनुवाद अपने ढंग से किया जाता रहा है। बौद्ध धर्म के माध्यम से भारतीय ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ। पंचतंत्र के लघु संग्रहों का अनुवाद अरबी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में हुआ। इससे साहित्य और कला की विश्व चेतना का विकास हुआ। इस प्रकार अनुवाद एक सांस्कृतिक सेतु का काम करता है। अनुवाद के माध्यम से विभिन्न राष्ट्रों की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक निधियों का आदान-प्रदान होता है।
• शिक्षा और अनुवाद-वैसे तो शिक्षा में अनुवाद की आवश्यकता सर्वत्र होती है, उन समाजों में भी जहाँ बहुभाषिकता का अधिक विस्तार नहीं है और शिक्षा एक ही भाषा के माध्यम से दी जाती है। लेकिन जो समाज भारत जैसा बहुभाषिक है उसमें शिक्षा का माध्यम वहाँ की सभी प्रमुख भाषाएँ होती हैं। इस दृष्टि से भारत शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुभाषिक समाज है।
अनुवाद का शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है। विश्वभर में उपलब्ध ज्ञान और शोध को शिक्षार्थियों तक पहुँचाना आज बेहद आवश्यक है अनुवाद के माध्यम से ही शिक्षार्थियों को नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई जा सकती है। विद्यालयों में भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी एवं विश्व की अनेक भाषाएँ पढ़ाई जा रही हैं।
• पर्यटन और अनुवाद-पर्यटन का संबंध भाषायी विविधता से होता है। दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में लोग घूमने-फिरने जाते हैं। पर्यटकों की सुविधा के लिए एक से अधिक भाषा में जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। दुनिया भर से जिज्ञासु लोग विभिन्न देशों एवं उनकी संस्कृतियों को जानने के लिए भ्रमण करते हैं । पर्यटन के क्षेत्र में इस हलचल के चलते अनुवाद का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है।
विभिन्न पर्यटन स्थलों के विषय में जानकारी लगभग सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में उपलब्ध है। सूचना पट्ट, ब्रोशर्स, पंफलेट, मार्गदर्शिका आदि आज विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध होती है जिनकी सहायता से विभिन्न भाषा-भाषी पर्यटक अपनी मूल भाषा अथवा अंग्रेजी आदि में सूचना प्राप्त कर सकते हैं। पर्यटन स्थलों, प्राचीन स्मारकों आदि के बारे में जो प्रचार एवं सूचना साहित्य छापा जाता है अथवा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर उपलब्ध होता है उसे भी कई भाषाओं में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार देशी और विदेशी दोनों की तरह के पर्यटकों को दृष्टि में रखते हुए बहुभाषी समाज में अनुवाद अपेक्षित होता है।
• प्रशासनिक क्षेत्र में अनुवाद-भारत के विभिन्न प्रदेशों की राजभाषा उनके क्षेत्र की प्रमुख भाषा है। हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किए जाने के बावजूद यह प्रावधान है कि जब तक सभी क्षेत्रों में हिंदी लागू नहीं हो जाती तब तक अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप में उपयोग में लाई जाती रहेगी। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी प्रशासनिक स्तर पर द्विभाषा की स्थिति बनी हुई है जिसके चलते प्रशासनिक क्षेत्र में अनुवाद का अत्यधिक महत्त्व है। अनुवाद के स्वरूप को समझने के लिए अनुवाद को प्रायः दो संदर्भो में लिया जाता है-व्यापक संदर्भ में तथा सीमित संदर्भ में।
(1) अनुवाद का व्यापक संदर्भ-प्रतीक को विज्ञान की मूलभूत इकाई माना जाता है। पीयर्स के मतानुसार प्रतीक वह वस्तु है जो किसी के लिए किसी अन्य वस्तु के स्थान पर प्रयुक्त होती है। उदाहरण के लिए, यदि हम ‘मेज’ पर विचार करते हैं तो मेज शब्द स्वयं मेज न होकर मेज का प्रतीक मात्र है जिसका चयन हमने उस वस्तु विशेष को पहचानने के लिए किया। रोमन जैकबसन ने प्रतीक सिद्धांत के आधार पर भाषिक पाठक के अंतरण को तीन आधारों पर देखने का प्रयास किया।
(क) अंतःभाषिक अनुवाद-अंतःभाषिक अनुवाद से तात्पर्य है एक भाषा की प्रतीक व्यवस्था में व्यक्त पाठ को उसी भाषा की अन्य प्रतीक व्यवस्था में रखना अथवा प्रस्तुत करना। इसे अन्वयांतर भी कहा जाता है। स्पष्ट है कि यहाँ दोनों प्रतीक व्यवस्थाएँ एक ही भाषा से संबंधित होती है। इसका प्रमुख उदाहरण संस्कृत में लिखी गई टीकाएँ हैं जहाँ जटिल संस्कृत में लिखे गए काव्य को सरल टीकाओं में प्रस्तुत किया गया है।
(ख) अंतर्भार्षिक अनुवाद-एक भाषा के प्रतीकों में व्यक्त पाठ को दूसरी भाषा के प्रतीकों में अंतरण को अंतर्भाषिक अनुवाद कहते हैं। इसे भाषांतर भी कहा जाता है। स्पष्ट है कि अंतःभाषिक अनुवाद से अलग यह दो भाषाओं के अंतरण की क्रिया है। इस अनुवाद प्रकार में अनुवाद के लिए दो भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है। इसे ही अंग्रेजी में ‘प्रॉपर ट्रांसलेशन’ कहा जाता है।
वर्तमान समय में अंतर्भाषिक अनुवाद की विशेष माँग है। विश्व भर में सर्जनात्मक तथा ज्ञानात्मक साहित्य के प्रसार का आधार यही है। इसमें दोनों भाषाओं की सक्रिय भूमिका होने के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है।
(ग) अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद-जहाँ अंतःभाषिक और अंतर्भाषिक अनुवाद में प्रतीक 2 का भाषिक इकाई होना अनिवार्य है वहीं अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद में प्रतीक 2 यानी लक्ष्य पाठ भाषिक न होकर भाषेतर होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें भाषिक पाठ का अनुवाद भाषेतर इकाई में होता है। उदाहरण के लिए किसी उपन्यास या कहानी का फिल्म, नाटक या धारावाहिक में रूपांतरण । यहाँ अंतरण भाषिक न होकर रूपगत होता है।
शरतचंद्र, प्रेमचंद, शेक्सपीयर, मन्नू भंडारी, रस्किन बॉण्ड, आदि की रचनाओं का फिल्म में रूपांतरण इसके उदाहरण हैं। प्रसिद्ध कविता का गीत में और गीत या कविता आदि का विज्ञापन के जिंगल में रूपांतरण भी अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद के उदाहरण हैं।
(2) अनुवाद का सीमित संदर्भ-अनुवाद का सीमित संदर्भ केवल अनुवाद को एक भाषिक क्रिया मानता है जिसके अंतर्गत स्रोत भाषा के पाठ का लक्ष्य भाषा में अंतरण किया जाता है। सीमित संदर्भ में अनुवाद के दो आयाम बताए गए हैं
(क) पाठधर्मी अनुवाद-पाठधर्मी अनुवाद से तात्पर्य है ऐसा अनुवाद जिसमें पाठ अर्थात स्रोत पाठ सर्वोपरि हो। ऐसे अनुवाद में अनुवादक से अपेक्षा की जाती है कि वह मूल पाठ के प्रति ईमानदार हो और अनुवाद करते समय मूल की आत्मा को बचाए रखने का सतत् प्रयास करे। अनुवादक को यहाँ अनुवाद प्रक्रिया में छूट लेने की सुविधा नहीं होती।
अनुवादक यहाँ मूल पाठ के कथ्य और शिल्प दोनों के प्रति सचेत रहते हैं और उसे यथासंभव लक्ष्य भाषा में लाने का प्रयास करते हैं। पाठधर्मी अनुवाद कार्यालयी विधि तथा किसी भी प्रकार के ज्ञानात्मक साहित्य के लिए अच्छा माध्यम है।
(ख) प्रभावधर्मी अनुवाद-इसके विपरीत प्रभावधर्मी अनुवाद जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है पाठ के प्रभाव को केंद्र में रखकर चलता है। स्रोत भाषा के पाठ का लक्ष्य भाषा के पाठक एवं समाज पर भी वैसा ही असर पड़े इसके लिए आवश्यक है कि उसे लक्ष्यभाषा की प्रकृति के अनुसार बनाया जाए ।
यह तभी संभव है.जब अनुवादक अनुवाद करते समय उसमें यथासंभव छूट ले। इसके लिए अनुवादक का दोनों संस्कृतियों का ज्ञान एवं समझ होना अपरिहार्य है। प्रभावधर्मी अनुवाद साहित्य के अनुवाद में विशेषतः कविता के अनुवाद में किया जाता है।
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