रीतिकालीन कविता के विकास का प्रमुख आधार काव्यशास्त्रीय है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसी प्रवृत्ति के आधार पर उत्तर मध्ययुग को 'रीतिकाल' की संज्ञा प्रदान की। हिंदी में जो काव्यशास्त्रीय परंपरा विकसित हुई, उसका आधार बहुत कुछ संस्कृत काव्यशास्त्र है। भक्तिकाल में ही कृपाराम की हिततरंगिणी' नंददास की रसमंजरी” सूरदास की 'साहित्यलहरी” केशवदास की कविप्रिया” और 'रसिकप्रिया” की रचना हो चुकी थी। आचार्य केशवदास का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उन्होंने रीति-निरूपण की हिंदी में सुद्ृद़ परंपरा स्थापित कर दी। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने नंददास से लेकर सेनापति तक रीति-निरूपक आचार्यों की अविच्छिन्न परंपरा का उल्लेख किया है। अन्य साहित्य-इतिहासकारों ने उक्त तालिका में कृपाराम का नाम भी जोड़ दिया है।
संस्कृत में काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र और कामशास्त्र की एक लंबी परंपरा प्राप्त होती है। हिंदी के रीतिकवियों ने नाट्यशास्त्र और कामशास्त्र की परंपरा को अंगीकार नहीं किया। इन दोनों का जो प्रभाव संस्कृत काव्यशास्त्र पर पड़ा उसे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया। संस्कृत में शास्त्रीय-विवेचन जिस प्रौढता और गंभीरता से किया गया वैसा हिंदी में नहीं हो सका। इसके कई कारण हैं |
रीतिबद्ध कवि पुन: दो प्रकार के माने गए - एक सर्वांगनिरूपक और दूसरे विविधांग निरूपक या विशिष्टांग निरूपक । रीतिबद्ध सर्वांग निरूपक कवि वे हैं जिन्होंने काव्य के सभी अंगों काव्य लक्षण, काव्य-हेतु, काव्य- प्रयोजन, काव्य-गुण, काव्य-दोष, शब्द शक्ति, रीति, वृत्ति, रस, अलंकार, ध्वनि आदि का विवेचन किया। इस वर्ग में केशवदास, चिंतामणि, देव, सोमनाथ, भिखारीदास, प्रतापसाहि और ग्वाल मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन कवियों ने आचार्य कर्म को अधिक गंभीरता से लिया। इसलिए उदाहरणों की अपेक्षा लक्षणों पर इनका ध्यान अधिक था। इन्होंने संस्कृत के प्रौढ़ ग्रंथों-मम्मट के काव्यप्रकाश” और विश्वनाथ के 'साहित्यदर्पण' को अपना उपजीव्य बनाया। हाल्रांकि ये कवि धवनि और उसके भेदों के विवेचन में भी प्रवृत्त हुए पर उसमें स्पष्टता और स्वच्छता न ला सके।
दूसरे प्रकार के (विविधांग/विशिष्टांग निरूपक) कवियों ने काव्यशास्त्र के उन अंगों का निरूपण किया जिनमें उन्हें सरस उदाहरणों की रचना का अधिक अवकाश था। इन्हें मुख्यत: तीन वर्गों में रखा जा सकता है :
1. रस निरूपक
2. अलंकार निरूपक
3. पिंगल निरूपक
रस-निरूपक आचार्यो ने मुख्यतः: शृंगार रस का सांगोपांग विवेचन किया कितु अन्य रसों का संक्षिप्त परिचय- मात्र दिया। इनमें भी उन्होंने अधिक रुचि नायक-नायिका भेद के प्रतिपादन में दिखाई। इन्होंने मुख्य रूप से संस्कृत के भानुदत्त की रसमंजरी और रसतरंगिणी को अपना आधार बनाया कितु कहीं-कहीं “'नाट्यशास्त्र', 'कामशास्त्र', 'काव्यप्रकाश! और 'साहित्यदर्पण' से भी सहायता ली है। संस्कृत के अलावा हिंदी के रसिकप्रिया', “बरवै नायिका भेद! और नगर शोभा” भी इनके आधार ग्रंथ रहे हैं। इस वर्ग में हिंदी रीति-कवि तोष की सुधानिधि', देव के 'भाववित्रास', भिखारी दास के रस सारांश, सैयद गुलाम नबी रसलीन' के रसप्रबोध', पदमाकर के जगद्विनोद', बेनी प्रवीन' के नवरसतरंग” आदि का उल्लेख किया जा सकता है। श्रंगार रस एवं नायक-नायिका भेद-निरूपक ग्रंथों में मतिराम के रसराज', कालिदास त्रिवेदी के “वारवधू विनोद' का विशिष्ट स्थान है।
इस वर्ग के लगभग बीस कवियों और उनकी कृतियों का विवेचन हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास” के षष्ठ भाग में किया गया है। अलंकार-निरूपक आचार्यों ने संस्कृत के जयदेव के चंद्रालोक' और अप्पयदीक्षित के “कुवलयानंद' का ही अधिक आधार ग्रहण किया है। हिंदी में आचार्य केशवदास ही ऐसे आचार्य-कवि हैं जिन्होंने दंडी के काव्यादर्श को अपने अलंकार विवेचन का आदर्श बनाया।
जिस प्रकार रस और नायक-नायिका भेद का विवेचन करने वाले आचार्यों ने 'भानुदत्त' को अपना आधार बनाया था जिससे काव्य-रसिकों को रस और नायक-नायिका भेद का सामान्य ज्ञान कराया जा सके उसी प्रकार अलंकार विवेचन करने वाले आचार्यों ने अलंकार शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों- चंद्रालोक' और कुवलयानंद' को उपजीव्य बनाया। आचार्य केशव ने तो कवि-प्रिया' के रचना-उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है -
'समुझें बाला-बालकहु बर्नन पंथ अगाध |
कविप्रिया केशवकरी, छमियो कवि अपराध ।!
लेकिन केशव ने जो अलंकार शब्द का वर्ण्य और वर्णनशैली दोनों के अर्थ में प्रयोग किया और इसके दो भेद सामान्यालंकार' और “विशेषालंकार' किए, वे रीतिकवियों को स्वीकृत नहीं हुए।
केशवदास के पश्चात् पचास वर्ष बाद महाराज जसवंत सिंह ने 'कुवलयानंद' के आधार पर अलंकार-निरूपण किया। इनके ग्रंथ 'भाषाभूषण' की विशेषता यह है कि एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण भी 'कुवलयानंद' की शैली में निबद्ध किए गए हैं। यद्यपि इनका निरूपण स्पष्ट और बोधगम्य है किंतु उससे अलंकारों का पूरा स्वरूप-बोध नहीं हो पाता। इन्होंने चंद्रालोक' के अनुसार शब्दालकारों का भी परिचय दिया है जबकि 'कुवलयानंद' में इनका उल्लेख नहीं है। इस वर्ग में मतिराम के 'ललितललाम' और “अलंकार पंचाशिका' दो ग्रंथ मिलते हैं।
अलंकारों की संख्या और क्रम 'कुवलयानंद' के ही अनुसार हैं। विषय के अवबोध के लिए “ललितललाम' अधिक प्रौढ़ है। 'पंचाशिका' इनकी प्रारंभिक रचना मालूम पड़ती है। भूषण कवि ने मतिराम के “ललितललाम' के ही आधार पर शिवराजभूषण' की रचना की है। पद्माकर के 'पद्माभरण' का सरस और संक्षिप्त शैली के कारण अलंकार-निरूपक ग्रंथों में विशिष्ट स्थान है। पद्माकर रीतिकाल के अंतिम प्रसिद्ध आचार्य थे। इनके अतिरिक्त गोप, रसिक सुमति, दूलह, बैरीसाल और गोकुलनाथ भी उल्लेख्य आचार्य हैं।
हिंदी में पिंगलनिरूपण का विविधत् प्रारंभ आचार्य केशवदास से माना जाता है। दूसरे आचार्य चिंतामणि और उनके भाई मतिराम माने जाते हैं। केशव ने 'छंदमाला' की रचना कवि शिक्षक के रूप में की। वे स्वयं लिखते हैं, 'भाषा कवि समुझे सवै सिगरे छंद सुझाई।
छंदन की मालाकरी सोभन केसवराड।
चिंतामणि के ग्रंथ का भी नाम 'छंदमाला' ही है। उक्त दोनों ग्रंथ सामान्य कोटि के हैं। मतिराम की “वृत्तकौमुकी' छंदोनिरूपक ग्रंथों में महत्वपूर्ण है। इसके उपजीव्य ग्रंथ भट्ट केदार का वृत्तरत्नाकर', हैमचंद्र का 'छंदोनुशासन' और 'प्राकृत पैंगलम' हैं। मौलिकता न होते हुए भी इसमें मात्रिक और वर्णिक छंदों का सुव्यवस्थित और परिपूर्ण विवेचन किया गया है। इसके उदाहरण सरल और सरस है। हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास में इस वर्ग के पन्द्रह कवि-आचार्यों के कृतित्त्व का परिचय दिया गया है। यद्यपि उपर्युक्त आचार्यों ने संस्कृत-प्राकृत के ग्रंथों से ही सामग्री का संकलन किया है फिर भी कहीं-कहीं कुछ नए छंदों की रचना का प्रयास किया गया है। कवि शिक्षक के रूप में इन आचार्यों के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
हिंदी में काव्यशास्त्रीय विवेचन की परिपाटी संस्कृत से भिन्न प्रणाली पर चली। संस्कृत में लक्ष्य ग्रंथों का निर्माण पहले हुआ लक्षण ग्रंथों का बाद में । वहाँ कवि 'अविचारित रमणीय' की रचना करता था और आचार्य उसके अनुसार 'सुविचारित नियमों' की स्थापना करता था। हिंदी में दोनों प्रकार की रचना एक ही व्यक्ति करने लगा। परिणाम यह हुआ कि संस्कृत की बँधी-बँधाई पद्धति पर लक्षणों का अनुवाद प्रस्तुत करके उसके अनुरूप उदाहरण रचे जाने लगे। परिणामत: न तो लक्षणों में मौलिकता आ सकी न उदाहरण में ही।
हिंदी के तथाकथित आचार्य मौलिक चिंतक नहीं थे। उन्होंने आचार्य कर्म को गंभीरता से नहीं लिया, उसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। क्योंकि इनका उद्देश्य काव्यशास्त्र-विवेचन नहीं था। वह तो संस्कृत में पर्याप्त मात्रा में हो ही चुका था। हाँ, हिंदी काव्यधारा के लक्ष्यों को दृष्टि में रखकर लक्षणों का निर्माण यदि होता तो इस क्षेत्र में मॉलिकता आती कितु इन कवियों का कार्य तो सरस उदाहरणों के दवारा काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों का सरल परिचय करा देना भर था। लक्षणानुसारी उदाहरणों की रचना में भी मौलिकता का क्षेत्र सीमित रह गया, अत: अधिकांश उदाहरणों में एकरूपता पाई जाती है। फिर भी इस युग में सामान्य जन के ज्ञानवर्द्धन, रसिकवृत्ति के अनुरंजन और अल्पप्रयास से यश और धन की प्राप्ति के लिए जिस रीतिशास्त्र का निर्माण हुआ उससे कवि और काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हुई और काव्यशास्त्र का प्रचार-प्रसार हुआ।
हिंदी के भारतेन्दु युग तक रस, छंद, अलंकार के ज्ञान को विद्वत्ता का प्रतीक माना जाता था, किंतु बाद में नवजागरण, सुधारवादी प्रवृत्ति और ज्ञान-विज्ञान के नए क्षेत्रों के विस्तार के कारण रीति परंपरा उपेक्षित हुई और द्विवेदी युग में आदशवादी राष्ट्रीय चेतना के प्रसार के कारण रीति परंपरा को प्रगति-विरोधी ही नहीं संकुचित और अश्लील तक कहा जाने लगा। यह इष्टि साहित्य के शाश्वत स्वरूप को न देखकर तात्कालिक उपयोगितावाद को ही महत्त्व देने लगी। आचार्य शुक्ल की लोकवादी मान्यताओं ने भी रीति साहित्य में वित्रासिता और चमत्कार के आधिक्य की निंदा की कितु पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र, डॉ. भगीरथ मिश्र और डॉ:रमेश कुमार शर्मा आदि विद्वानों ने आधुनिक आलोचकों के आक्षैपों का निराकरण करते हुए रीतिकाव्य के सदपक्ष की पुष्टि की है।
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