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'प्रेमाश्रम' की भाषा

 किसी भाव को रचनात्मक अभिव्यक्ति देने और उसे लिखित स्वरूप से प्रकट करने में भाषा एक प्रमुख उपादान है। रचना में निहित भावों की सम्प्रेषिका होने के कारण भाषा का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है इसलिए समझदार कृतिकार सदैव ऐसी भाषा को अपनी कृति में व्यवहृत करते है जो सहज बोधगम्य हो और भाव-सम्प्रेषण में पूर्णतः सक्षम हो। प्रेमाश्रम उपन्यास की भाषा-शैली का विवेचन करने से पूर्व यह उचित होगा कि हम स्वयं उसके कृतिकार प्रेमचन्द की भाषा से सम्बन्धित विचारों का अनुशीलन कर ले।

प्रेमचन्द जी का यह स्पष्ट मत था कि भाषा की गुलामी ही सच्ची गुलामी है। अंग्रेजी भाषा इस मिट्टी की भाषा नहीं है इसीलिए उन्होंने साहित्य का उद्देश्य में स्पष्टता से लिखा है हमारी पराधीनता का सबसे अपमानजनक, सबसे व्यापक, सबसे कठोर अंग अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व है और आगे बढ़कर ये स्वीकारते थे कि भाषा शोषण का अंग बनकर सामने आयी है। शोषण के चक्र को तोड़ने के लिए विदेशी भाषा के चक्र को तोड़ना जरूरी है। प्रेमचन्द भाषा को राष्ट्रीय एकता से सम्बद्ध करते हुए कहते हैं- “राष्ट्र के जीवन के लिए यह बात आवश्यक है कि देश में सांस्कृतिक एकता हो और भाषा की एकता उस सांस्कृतिक एकता का प्रधान स्तम्भ है।

किन्तु जब प्रेमचन्द के सामने भाषा-स्वीकार का प्रश्न आया, तब हिन्दी के तीन रूप उनके सामने आये। एक तो था हिन्दी जो संस्कृतनिष्ठ थी, दूसरी वह जो फारसी लिपि में लिखी जाने के कारण उर्दू कहीं और तीसरी आम बोलचाल की हिन्दुस्तानी प्रेमचन्द ने हिन्दुस्तानी को ही अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया इसलिए कि बोलचाल की भाषा ही किसी रचना को आम जनता तक पहुँचा सकती है तथा सहज बोधगम्य होने के कारण शीघ्र ही रचना को लोकप्रिय भी बना सकती है।” 

‘प्रेमचन्द ने जब यह देखा कि ‘सेवासदन’ को केवल कालिये इतना अधिक आवरणात हुआ है कि उसकी भाषा हिन्दुस्तानी है तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि वह शैली जिसे लेकर वे अपने समस्त उर्दू पाकों तक पहुँच सकते हैं हिन्दी पाठकों के लिए भी एकदम बोधगम्य है।  और कहना न होगा कि प्रेमचन्द ने इसी भाषा को व्यवहुत करने का निर्णय ले लिया तथा अपार सफलता अर्जित की आज उनके उपन्यासों को अपनी भाव-गरिमा, चरित्र-चित्रण एवं सामाजिक चेतना के कारण जो आदर प्राप्त से रहा है उसमें उनकी भाषा का भी कम योगदान नहीं है, इसे सभी जानते हैं।

वास्तव में प्रेमचन्द भाषा के जादूगर थे भाषा पर उनका अदभूत अधिकार था। इसका एक ज्वलन्त प्रमाण यह है कि कथोपकथन में जिस पात्र के मुख से कोई बात कहलायी गयी है. उस कथन की भाषा उसी पात्र के अनुकूल है। ऐसी सप्राण भाषा हिन्दी में दुर्लभ है। पंडित जगन्नाथ प्रसाद शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी की गद्य शैली का विकास में प्रेमचन्द की भाषा पर खिचड़ी होने का आरोप लगाया है, किन्तु दूसरी ओर डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल कहते हैं अपरिपक्वता और उसके “प्रेमचन्द भाव और अनुभूति के साथ-साथ भाषा के भी बहुत बड़े बादशाह थे। प्रेमचन्द का मोठा पक्ष इतना समृद्ध और विशाल था कि उसमें पण्डित भी अपने अनुकूल भाषा पा सकता था, मौलवी भी जज-वकील भी और गाँव के किसान-मजदूर भी।”

प्रेमचन्द जी की भाषा पर इससे अधिक और कहा भी क्या जा सकता है? प्रेमचन्द की भाषा हिन्दुस्तानी है-स्वाभाविक बोलचाल की भाषा, पर इस भाषा में लेखक ने भाषा की चुस्ती, मुहावरों की सजावद, कहावतों और सूक्तियों के अपूर्व समन्वय से अपना व्यक्तित्व ढाल दिया है और इस भाषा को लोग प्रेमचन्दीय भाषा कहने लगे हैं। उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त अब हम प्रेमाश्रम उपन्यास में एकाइत भाषा-शैली का अनुशीलन- मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे और देखेंगे कि अपने भाषागत दृष्टिकोण को प्रेमचन्द जी इस उपन्यास में कहा तक चरितार्थ कर सके है।

प्रेमाश्रम’ की भाषा का अध्ययन करते समय सामान्यतः उसके निम्नलिखित रूप सामने आते हैं - 

(1) सरल स्वाभाविक बोलचाल की भाषा-प्रेमचन्च जी आम हिन्दुस्तानी भाषा के प्रबल समर्थक थे, इसलिए स्वभावतः ‘प्रेमाश्रम’ में सरल स्वाभाविक बोलचाल की भाषा का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है और इसी भाषागत सरलता एवं स्वाभाविकता के कारण उपन्यास की कथावस्तु अत्यधिक संवेदनीय एवं सम्प्रेषणीय बन गयी है। उपन्यास की भाषा जितनी सरल है, उतनी ही नाव सबल भी है, यहाँ पर इस संदर्भ में एक ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा, यथा”दूसरी तारीख पर ज्ञानशंकर का मुकदमा पेश हुआ।

ज्वाला सिंह ने फैसला सुना दिया। उनका दावा । खारिज हो गया। ज्ञानशंकर उस दिन स्वयं कचहरी में मौजूद थे यह फैसला सुना तो दाँत पीसकर रह । गये क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोने फोड़े। आज बहुत दिनों के बाद लाला प्रभाशंकर के पास गये और उनसे भी इस असद व्यवहार का रोना रो आये। एक सप्ताह तक यही क्रम चलता रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होंने ज्वाला सिंह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी संकोच न किया और उन्हें शब्दाघात से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोटें करनी शुरू की। कई दैनिक पक्षों में ज्याला सिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरूद्ध कॉलम के कॉलम भरे रहते। थे।”

(2) अलंकृत और काव्यात्मक भाषा-यद्यपि प्रेमचन्द जी कथा वर्णनों में आलंकारिता के प्रबल विरोधी थे और जन सामान्य द्वारा व्यवहृत भाषा के ही कथा में प्रयोग करने के पक्षधर थे, किन्तु पात्रगत औचित्य को देखते हुए कतिपय स्थलों पर उन्होंने काव्यात्मक भाषा का प्रयोग करने के अपने अधिकार को भी अक्षुण्ण रखा है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ऐसे वर्णनों में भी उनकी भाषा क्लिष्ट नहीं बनी है वरन् अपनी सरलता में ही यह काव्यात्मक बन गयी है। प्रेमाश्रम में राय कमलानंद के संवादों में ही अधिकांश इस प्रकार की भाषा व्यवहृत की गयी है। एक उदाहरण यहाँ भी प्रस्तुत किया जा रहा है

“आप इस मूर्ति को देखकर चौंकते होंगे यह मेरे लिए मिट्टी के खिलौने है। विषयासक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती है, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्यापक है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह मकुए हैं, जो गुफाओं और कदराओं में बैठकर तप और ध्यान स्वांग भरते हैं। वे कायर है, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जाने कि आत्म-स्वातन्त्रय क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती है। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय- दमन सच्चा योग सच्ची तपस्या है।”

(3) शुद्ध परिनिष्ठित खड़ी बोली- प्रेमाश्रम’ उपन्यास में अनेक पात्र ऐसे है जो शिक्षित और बौद्धिक हैं। इसलिए स्वाभावतः उनकी भाषा का रूप परिमार्जित है। ऐसे पात्रों की कथा या भाषा को प्रेमचन्द ने शुद्ध संस्कृतनिष्ठ रूप में ही प्रस्तुत किया है। ज्ञानशंकर, गायत्री, प्रेमशंकर, डॉ. चोपड़ा आदि की भाषा में इसी रूप के दर्शन होते है. राय कमलानंद एवं विद्या के निम्नलिखित संवाद में इस भाषा का एक उत्कृष्टतम रूप द्रष्टव्य है

“विद्या की भौहें तन गयी, मुखराशि रक्तवर्ण हो गयी। गौरवयुक्त भाव से बोली- पिताजी, मैंने सदैव आपका अदब किया है और आपकी अवज्ञा करते हुए मुझे जितना दुख हो रहा है वह वर्णन नहीं कर सकती पर यह असंभव है कि उनके विषय में यह लांछन अपने कानों से सुनू गुझे उनकी सेवा में आज सत्रह वर्ष बीत गये, पर मैंने उन्हें कभी कुवासनाओं की ओर झुकते नहीं देखा। जो पुरुष अपने यौवनकाल में भी संयम से रहा हो उसके प्रति ऐसे अनुचित क आपकी आत्मा को पाप लगता है।

आप उसके साथ नहीं बहिन के साथ भी अत्याचार कर रहे है। इससे राय साहब तुम मेरी आत्मा की चिंता मत करो। इस दुष्ट को समझाओ, नहीं तो उसकी कुशल नहीं है। मैं गायत्री को उसकी काम-चेष्टा का शिकार न बनने दूंगा। मैं तुमको वैशव्य रूप में देख सकता है, पर अपने कुल- गौरव को यूँ मिट्टी में मिलते नहीं देख सकता। मैंने चलते-चलते उससे ताकीद कर दी थी, गायत्री से काई सरोकार न रखे, लेकिन गायत्री के पत्र नित्य चले आ रहे हैं, जिससे विदित होता है कि वह उसके फन्दों में जकड़ी हुई है। यदि तुम उसे बचा सकती हो तो बचाओ, अन्यथा यही हाथ जिन्होंने एक दिन उसके पैरों पर फूल और हार चढ़ाये थे, उसे कुल- गौरव की वेदी पर बलिदान कर देंगे।”

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