दलित चेतना एक प्रति सांस्कृतिक चेतना है, अपितु यह एक वैकल्पिक चेतना भी है, इसलिए इसमें विद्रोह परिलक्षित होता है। इस चेतना की नींव में भारतीय सामाजिक संरचना है, जो न केवल जाति पर आधारित हैं, अपितु इसे धार्मिक रूप से वैधता प्रदान करती है। चेतना का संबंध दृष्टि से होता है, जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक भूमिका की छवि के मतिभ्रम को तोड़ती है। मानवाधिकारों से वंचित सामाजिक रूप से नकार दिया जाना दलित होना है और उसके अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई अर्थात चेतना ही दलित चेतना है।
भारतीय इतिहास में बुद्ध प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को चुनौती दी और उसे अवैज्ञानिक एवं अमानवीय तक कह डाला। श्रावस्ती प्रवास के समय सुनित नामक एक हरिजन को अपने संघ में शामिल करके उन्होंने दलितों के उद्धार का वह मार्ग बताया, जो आगे युगों-युगों तक दलित मुक्ति का रास्ता बताता रहा। भक्तिकाल में दलित संत-कवियों में चेतना की अलख जगाता रहा. जो आधुनिक काल तक आते-आते डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे विशालतम व्यक्तित्व के रूप में और ज्यादा प्रकाशित हुआ।
डॉ. अंबेडकर का युग प्रवर्तक व्यक्तित्व और कृतित्व ही आधुनिक दलित चेतना की प्रबल प्रेरणा है। महाराष्ट्र से प्रारंभ हुए दलित साहित्य आंदोलन पर अंबेडकर के विचार और दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। दलित चेतना और इसकी इसकी मूल प्रेरणा को हिन्दी के प्रसिद्ध दलित लेखक और कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस प्रकार बताया है कि दलित चेतना एक प्रति-सांस्कृतिक चेतना है, अपितु एक वैकल्पिक चेतना भी है, इसलिए विद्रोही है।
जाति-व्यवस्था सामाजिक दुराव के सिद्धांत पर आधारित है, जो हमारे सामाजिक संबंधों को ही नहीं, अपितु धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक पक्षों को भी प्रभावित करती है। यह दासता की वह संपूर्ण व्यवस्था है, जो हिन्दू समाज व्यवस्था में शुरू से ही धर्म प्रधान और अर्थ की दृष्टि से गौण रही है । संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और सुरक्षा कानूनों के बावजूद दलितों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखने की कोशिश की जाती रही है और इसकी सफलता के लिए हर समय धर्म, परंपरा, संस्कृति का जिक्र करके इसकी निरंतरता के लिए हिंसा, सत्ता और धर्म का सहारा लिया जाता रहा
दलित चेतना का सीधा संबंध ‘मैं कौन हूं’ से व्यापक रूप से जुड़ा हुआ है। चेतना का संबंध दृष्टि से होता है, जो दलितों की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भूमिका की छवि को धूमिल करती है। अलग-अलग कालखंडों में यह अलग-अलग रूपों में दिखाई देती है। भक्तिकाल के कवियों में इसका रूप अलग है, लेकिन इस चेतना के बीज वहां भी उपस्थित हैं, जो कालांतर में ज्योतिबा फुले के संघर्ष के रूप में एक संघर्षशील, बौद्धिक रूप में दिखाई देता है।
आगे चलकर यह डॉ. अंबेडकर के जीवन संघर्ष में एक नए जुझारू रूप में दिखाई देती है, जो दलितों में एक नई चेतना को जगाता है, जिसे मक्ति संघर्ष की चेतना कहना ज्यादा उचित होगा। यही चेतना साहित्य की प्रेरणा बनकर दलित साहित्य के रूप में उजागर होती है, जिसमें मुक्ति, आजादी के गंभीर सरोकार निहित हैं। दलित साहित्य के प्रेरणा स्रोतों के रूपों में महात्मा ज्योतिबा फुले का सुधारवादी दृष्टिकोण और डॉ. अंबेडकर की सामाजिक समानता, हिन्दुत्व का विरोध, आर्थिक विषमता को समाप्त करके समानतापरक दृष्टि तथा सांस्कृतिक समस्या के साथ बौद्ध धर्म, उसका दर्शन और दलित पैंथर्स के रूप में देखा जा सकता है।
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