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तर्कवाद

तर्कवाद को आमतौर पर सोचने की पद्धति के रूप में माना जाता है जो इस बात पर बल देता है कि शुद्ध तर्क हमारे ज्ञान के एक स्रोत के रूप में हमारे ठोस अनुभवों द्वारा प्रतिबंधित हुए बिना कार्य कर सकता है। तर्कवाद ‘मानव संज्ञानात्मक शक्तियों की कल्पना करता है जो शुद्ध प्रज्ञा, इन्द्रियों और कल्पना के रूप में प्रतिष्ठित की जा सकती हैं। 

शुद्ध प्रज्ञा वह शक्ति थी जिसने मानव को ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाया। तर्कवाद को इस तरह के दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि वास्तविकता की प्रकृति के बारे में ज्ञान पुष्ट आधार पर प्राप्त सत्यकल्पना और इन्द्रियों से स्वतन्त्र संचालित शुद्ध प्रज्ञा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।’ (न्यू डिक्शनरी ऑफ आइडिया, पृष्ठ 209)1 तर्कवाद स्पष्ट रूप से या निस्संदेह यह मानता है कि सत्य और वास्तविकता के स्वरूप को ए प्राइओरी अर्थात् पूर्व सिद्ध तर्क के माध्यम से समझना संभव था।

यह तर्क इन्द्रिय अनुभवों से स्वतंत्र था। महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो को तर्कवाद का प्रवर्तक माना जाता है। बाद में, ईसाई दार्शनिक सेंट ऑगस्टीन ने प्लेटो को ईसाई सोच के साथ संश्लेशित किया। सत्रहवीं शताब्दी के दौरान तर्कवाद सबसे शक्तिशाली धाराओं में से एक के रूप में उभरा । आधुनिक समय में रेने देकार्त (1596-1650), जो एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे, उन्होंने तर्कवाद के मुख्य विचारों को सूत्रबद्ध किया यद्यपि तर्कवाद बहुत पहले से मौजूद था और बाद में जारी रहा, परन्तु दर्शनशास्त्र में तर्कवादी धारा की अवधि आमतौर पर 1637 (देकार्त की रचना डिस्कोर्स ऑन मैथड) से 1716 (लेबनीज की मृत्यु तक) माना जाता है।

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