‘सेवासदन’ का मुख्य कथानक है स्त्रीत्व के आदर्श से सुमन का पतन और उसके पुनः उत्थान का प्रयास, उधर ‘उमरावजान अदा’ का कथानक तवायफों के जीवन के अंदरूनी कार्यव्यापार, बाजार में बैठी स्त्री की तहजीब, रचनात्मक रुझानों और लोकप्रियता के व्याज से अपने समय- समाज से निर्मित हुआ है।
‘सेवासदन’ के छपते-छपते मिर्ज़ा हादी के उपन्यास को बीस वर्ष बीत चुके थे और इन बीस वर्षों का अंतराब उत्तर भारत में आ रहे बहुत से सांस्कृतिक सामाजिक बदलावों और आहटों का अंतराव है। इसलिए ‘सेवासदन’ पर बात करने के लिए उमराव जान अदा से होकर गुजरना जरूरी है। मिर्ज़ा हादी रुसवा ‘उमराव जान अदा’ को आपबीती या आत्मकथा या जीवनी कहने के पक्ष में हैं और भूमिका में लिखते हैं
“अपनी आपबीती, वह जिस कदर कहती जाती थी, मैं उनसे छुपा के लिखता जाता था। पूरी होने के बाद मैंने मसीदा लिखाया। इस पर उमराव जान बहुत बिगड़ीं। आखिर खुद पढ़ा और जा-बजा जो कुछ रह गया था, उसे दुरुस्त कर दिया। मैं उमराव जान को उस जमाने से जानता हूँ, जब उनकी नवाब साहब से मुलाकात थी।
उन्हीं दिनों मेरा उठना-बैठना भी अक्सर उनके यहाँ रहता था। बरसों बाद फिर एक बार उमराव जान की मुलाकात नवाब साहब से उनके मकान पर हुई, जब वह उनकी बेगम साहिब की मेहमान थीं। इस मुलाकात का जिक्र आगे है। इसके कुछ अर्से बाद उमराव जान हज करने चली गई। उस वक्त तक की उनकी जिंदगी की तमाम घटनाओं को मैं निजी तौर से जानता था इसलिए मैंने यह किस्सा वही तक लिखा, जहाँ तक मैं अपनी जानकारी से उनके बयान के एक एक लफज को सही समझता था।
हज वापसी के बाद उमराव जान खामोशी की जिंदगी बसर करने लगी। जो कुछ पास जमा था उसी पर गुजर औकात थी। वैसे उनको किसी चीज की कमी नहीं थी। मकान, नौकर चाकर, आराम का सामान, खाना पहनना, जो कुछ पास जमा था, उससे अच्छी तरह चलता रहा। वह मुशायरों में जाती थी, मुहर्रम की मजलिसों में सोज पढ़ती थीं और कभी कभी वैसे भी गाने बजाने के जलसों में शरीक होती थीं।
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