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यूरोप में प्रबोधन काल के मुख्य विचारों पर एक टिप्पणी लिखिए।

 प्रबोधन के विचार उभरते आधुनिक विश्व के लिए इतने शक्तिशाली और उपयुक्त साबित हुए कि प्रबोधन मानवता के इतिहास में एक सबसे बड़ा बौद्धिक मील का पत्थर बन गया। आधुनिक विश्व का प्रबोधन के साथ इतनी घनिष्टता से उल्लेख किया जाता है कि इसे प्रबोधन के पश्चात् का विश्व भी माना जाता है। इन विचारों में प्रकृति, मानव, विश्व, समाज, अर्थव्यवस्था, राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध और मानव स्वतंत्रता पर दीर्घकालीन दृष्टिकोण शामिल था।

पश्चिमी दुनिया में प्रबोधन के विचारकों ने ईसाई धर्म और विचार और सदियों पुरानी सोच से उत्पन्न परम्परागत विचारों पर सवाल उठाए। इस प्रकार फिलोसोफ (फ्रांसीसी प्रबोधन विचारक) ने राजनीति और समाज के सभी स्तरों पर धर्म-निरपेक्षीकरण पर बल दिया और चर्चा की स्थापित सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने तर्कसंगत आधार पर व्यक्तिगत सोच पर जोर दिया और बिना किसी सोच के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे पारम्परिक विचारों और प्रथाओं पर सवाल उठाए। एक अन्य स्तर पर उन्होंने अमेरिका और अन्य स्थानों पर यूरोपीय लोगों द्वारा व्यापक रूप से स्थापित दासता की संस्था पर हमला किया। हालांकि संगठित धर्मों, विशेष रूप से कैथोलिक धर्म, के प्रति आलोचनात्मक होने के आलोचनात्मक होने के बावजूद प्रबोधन विचारक धर्म विरोधी नहीं थे। कुछ को छोड़कर जैसे कि डी हालबारव (1723-89) और क्लॉड हेल्वेशियस (1715-1771), अधिकांश प्रबोधन विचारक ईश्वर के अस्तित्व में यकीन रखते थे। हालांकि उनका ईश्वर तर्कशील और हस्तक्षेप ना करने वाला था।

प्रबोधन विचारकों में से कई ने दैववाद पर विश्वास किया जिसका अर्थ था कि ब्रह्मांड का निर्माता भगवान था लेकिन वह ब्रह्मांड या मानव समाज की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं करता। दैववाद में तर्कशक्ति और विश्वास का एक सुखद मिश्रण बनाया गया। दैववादियों के लिए ये सम्भव था कि वे प्रकृति और मानव समाज का विश्लेषण तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टि से करें जबकि साथ-साथ मूल निर्माता (ईश्वर) पर अपना विश्वास भी बनाए रखें। पारम्परिक सत्ता के प्रति संदेह, यहाँ तक कि अस्वीकृति, प्रबोधन की पहचान थी। यह सोचा गया कि सार्वभौमिक तर्कशक्ति, जिसे दुनिया को समझने का तरीका माना जाता था, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा लागू किया जाना चाहिए। यह विश्वास था कि सभी मनुष्य सहज रूप से अच्छे और तर्कसंगत थे। यदि उचित वैज्ञानिक विश्लेषण लागू किया जाता तो पूरी दुनिया को पूरी तरह से समझना सम्भव था। तर्कशक्ति और विज्ञान के उपयुक्त उपयोग किए जाने पर निरंतर विकास और प्रगति हो सकती थी।

कुछ प्रबोधन के विचारकों ने लोकप्रिय सम्प्रभुता और कानून के शासन पर भी जोर दिया। हालांकि कई दार्शनिकों को राजाओं और कुलीनों द्वारा संरक्षण दिया गया था,और उन्होंने राजतंत्र की संस्था को अस्वीकृत नहीं किया। वे शासकों के हाथों में बैलगाम शक्तियों की धारणा के खिलाफ थे, चाहे वे सम्राट हो या अन्य। अपने समग्र रुझान में, प्रबोधन साम्राज्यवाद विरोधी था और कई विचारकों ने हिंसा और शोषण पर आधारित उपनिवेशिक शासन की कड़ी निंदा की। उनमें से कुछ ने, जैसे कि दिदरो, रेनाल, हर्डर और कंडोरसे ने औपनिवेशिक क्षेत्रों में यूरोपीय लालच, अहंकार, हिंसा और क्रूर व्यवहार की बहुत दृढ़ता से निंदा की। प्रबोधन विचारक अपने समय की सत्ता की निरंकुश प्रकृति के खिलाफ थे और वे कानून के शासन की वकालत करते थे और शासकों के अन्दर सद्गुणों को पनपते देखना चाहते थे। हालांकि वे लोकप्रिय सम्प्रभुता में विश्वास करते थे लेकिन लोकतन्त्र या जनशक्ति में नहीं। उनके लिए, स्वतंत्रता केवल कानूनी रूप से गठित अधिकारियों की कानूनी कार्यवाहियों में निहित थी (ब्लैक 1990 214) समानता को कानून के सम्मुख समानता के रूप में माना गया और सामाजिक या आर्थिक रूप में नहीं।

वे सम्पत्ति को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मानते थे और विभिन्न वर्गों में समाज के विभाजन को स्वाभाविक मानते थे। तर्क की प्रधानता, हठधर्मिता की सोच को अस्वीकृति, व्यक्तिगत समझ पर जोर, प्रगति का विचार, पूर्व आधुनिक विश्व की तुलना में आधुनिक विश्व की श्रेष्ठता, यह धारणा कि मानव प्रकृति हर जगह एक जैसी थी और उसके परिणामस्वरूप जन्मी सार्वभौमिकता प्रबोधन के सबसे महत्वपूर्ण विचार थे। यद्यपि प्रबोधन विचारकों ने शक्तिशाली सत्ता विरोधी विचारों का प्रसार किया, परन्तु यह ज्यादातर बौद्धिक स्तर पर किया गया था। वे कार्यकर्ता और व्यवहारिक क्रांतिकारी नहीं थे और उन्होंने विद्रोहों का नेतृत्व नहीं किया। उन्होंने अपने विचारों को प्रसारित करने के लिए कलम, कागज और छापेखाने का इस्तेमाल किया। उनके संचार के माध्यम ‘पत्र, अप्रकाशित पांडुलिपियाँ, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, विवरणीकाएँ और उपन्यास, कविता, नाटक, साहित्यक और कला आलोचना और राजनैतिक दर्शन’ थे (मैरीमेन 2010 : 316)।

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