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मध्ययुगीन काव्य परंपरा में रसखान

 काल की दृष्टि से रसखान विक्रम की सत्रहवीं शती के कवि थे जो कि निश्चित ही भक्तिकाव्य धारा के अवसान व रीतिकाव्य धारा के उदय का काल था। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल साहित्य रचना और कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से स्वर्ण युग माना जाता है। कृष्ण काव्य परंपरा का प्रसार आदिकालीन अपभ्रंश काव्य से लेकर रीतिकाल तक है। रसखान की गणना कृष्ण भक्ति शाखा के अंतर्गत की जाती है किंतु इन्होंने स्वच्छंद प्रकृति से ही काव्य रचना की। घनानंद ठाकर, आलम, बोधा आदि स्वच्छंद काव्य धारा के कवियों की प्रवृत्तियाँ रसखान के काव्य में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। 

उन्होंने रण भक्त कवियों की तरह गीत रचना की प्रणाली को बहुत कम महत्त्व दिया तथा अपने हृदय के भावों को सवैया तथा दोहों में व्यक्त किया। उन्होंने अपनी काव्य प्रवृत्ति का एक ऐसा मार्ग बनाया जो स्वयं निर्मित था। रसखान, बिहारी तथा घनानंद ब्रजभाषा के तीन ही कवि ऐसे हैं जिनकी कविता परिमार्जित तथा सुव्यवस्थित है। यह जानकर आश्चर्य किया जा सकता है कि इनमें ब्रजभाषा के कवि सूरदास जी का नाम नहीं आया, किंतु ध्यान देने की बात है कि सूरदास जी ने जितनी शक्ति भाव-द्योतन की ओर लगाई है, उतनी काव्य सौष्ठव की ओर नहीं लगाई। निस्संदेह अंतर्वृत्तियों को पहचानने की जो सूक्ष्म दृष्टि सूरदास जी के पास थी,

वह किसी को नहीं प्राप्त हो सकी किंतु यहाँ भाव-पक्ष का विचार न होकर भाषा-पक्ष का विचार हो रहा है और यह सुगमतापूर्वक देखा जा सकता है कि उनकी भाषा में जितना सौंदर्य है उससे कहीं अधिक सौंदर्य उनके बाद के इन कवियों की भाषा में है। ब्रजभाषा के अंतिम महाकवि जगन्नाथदास ‘रलाकर’ ने एक स्थान पर कहा है कि यदि ब्रजभाषा का व्याकरण बनाना हो तो रसखान, बिहारी और घनानंद का अध्ययन करना चाहिए। इन तीनों महाकवियों की भाषा-विशेषता भी पृथक-पृथक है। बिहारी की भाषा परमार्जित एवं साहित्यिक है। घनानंद में लाक्षणिक प्रयोग ही अधिक हैं।  इन दोनों कवियों ने भाषा को कुछ सँवारने का प्रयास किया है, किंतु रसखान ने ठीक उसका स्वाभाविक रूप लिया है और इसी कारण वे ब्रजभाषा के तीन प्रमुख कवियों में स्थान पा सके।

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