दलित समाज की उपेक्षा तथा यातना का आधार तर्कहीन वर्ण व्यवस्था तथा ईश्वर संबंधी विधिविधान में निहित है। सगुण ब्रह्म की अवधारणा अपने जन्म से लेकर ईश्वरीय लोला के वर्णन में सदैव राजा और मंदिर के पक्ष में कर्मकांड का निर्माण करती रही।
उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में वर्णित विधि-विधान दलित विरोधी ही है लेकिन ब्राह्मण के पक्ष में उसकी श्रेष्ठता का बखान करती है। सगुण पंथ आरंभ से हाँ ब्राह्मण, गो और धर्म का सेवक तथा रक्षक था।
दलित समाज से उसका कोई रिश्ता नहीं बनता था। संत कवियों को सुधारवादी अथवा समाज सुधारक मान लेने वाले आचार्यों ने भी संत काव्य के इस प्रस्थान बिंदु को नहीं देखा जिसमें दलित सता की भक्ति पद्धति तथा उसका आलंबन न ईश्वर, न मंदिर जीवी है, न पोथी प्रमाणित इसी रूप में शुद्ध संतों की धर्म संबंधी अवधारणा में ईश्वर पोथी और मंदिर वर्ण व्यवस्था के पोषक तत्त्व माने गए हैं। वह धर्म भी कर्मकांडी पुरोहिती से दूर सहज साधना के रूप में वर्णित है।
यदि हम ईश्वर भक्ति तथा धर्म इन तीनों केंद्रीय तत्त्वों की व्याख्या निर्गुण शुद्र संतों तथा पारंपरिक ब्राह्मणवादी चितन को साथ रखकर करें तो निर्गुण सतों की दलित चेतना का प्रस्थान बिंदु अच्छे से समझ सकते हैं। कबीर, दादू, नानक, रैदास, सदना, धन्ना, पोषा, सेना, नाई, रज्जब आदि शूद्र संतो की कविता में वर्णित ब्राह्मणवादी चिंतन के विरोध को अत्यंत सौम्प रूप में देखा जाता है।
लेकिन सूक्ष्म विश्लेषण तथा पर्यालोचन से यह स्पष्ट होता है कि निर्गुण कवियों ने ब्राह्मणवादी चिंतन पद्धति के समानांतर लगभग इसी भाषा में एक लए समाज का स्वप्न तथा एक नई विचार पद्धति का अविकार किया जो दलित चिंतन् । चेतना का एक परिधि में ही सही प्रस्थान बिंदु है। इसीलिए मध्यकालीन समय-समाज के भीतर नए चिंतन, चेतना तथा साहित्य सृजन के रूप में ही निर्गुण संत काव्यधारा को समझना होगा।
भक्ति आंदोलन के निर्गुण चिंतन पर भाष्य करने वाले आचार्यों ने निर्गुण चिंतन के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की व्याख्या करते समय उसके प्रतिरोधी स्वर को सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया। जब कबीर जो घर जारें आपनो की घोषणा करते हैं तो वह ‘घर’ पूरा समाज है जब वे ‘जागने और रोने की बात करते हैं तो इसका अर्थ तत्कालीन शूद्र समाज की पीड़ा जानने से है। यह वही संपूर्ण दलित समाज है, जो मनुष्य मात्र के भरण-पोषण की सामग्री पैदा करता है।
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