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मानविनी भवाई' की कथावस्तु का विश्लेषण कीजिए।

‘मानवीनी भवाई’ गुजराती साहित्य के जाने-माने कथाकार पन्नालाल पटेल की अमर कथाकृति है। इसमें गुजरात के ग्रामीण परिवेश का यथार्थपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया गया है। इसे कथाकार ने अपनी काव्यमयी कल्पना के द्वारा अधिक सरस और हृदयस्पर्शी रूप में सामने लाने का सफल प्रयास किया है। इसके कथा-परिवेश के बारे में हम कहना चाहें, तो यह कह सकते हैं कि इसकी कथा ग्रामीण परिवेश की है। दूसरे शब्दों में, यह एक आँचलिक उपन्यास है। इसलिए इसमें एक विशेष प्रदेश की कथा का बड़ा ही कलात्मक निरूपण हुआ। है।

इस आधार पर अगर हम कहना चाहें तो इसे हम प्रादेशिक उपन्यास भी कह सकते हैं। इस प्रादेशिक उपन्यास का कथास्वरूप खेतिहर जीवन का ही है। यहाँ के निवासी केवल खेती के ही सहारे अपना जीवन जीते हैं। इसके लिए वे अनेक प्रकार की मुसीबतों को झेलने के लिए बार-बार मजबूर होते रहते हैं। पन्नालाल ने अपने उस प्रादेशिक अंचल को अपनी आँखों से देखा और पूरापूरा अनुभव किया था। यह इसलिए कि उनका पूरा तो नहीं, लेकिन अधिकांश समय इसी अंचल विशेष में बीता था। इससे उन्होंने अपने ‘मानवीनी भवाई’ उपन्यास का प्रमुख पात्र किसान को ही रखा।

इसके द्वारा उन्होंने खेती को जीवन आधार बनाने वाले गाँव और वहाँ के गरीब लोगों के जीवन में ऋतुओं के आने-जाने के प्रभाव से बदली हुई दशा का ध्यानाकर्षक चित्रण किया है। उन किसानों की जीवनगाथा को इस उपन्यास में बार-बार दिखलाने का प्रयास किया है। इस प्रकार इस उपन्यास की कथा में खेती, गाँव, मैदान, पूरा ग्रामीण अंचल, ऋतुओं और मौसमों के अनुसार रंग लाती हुई फसलें, धरती के रंग-रूपों और इनसे संबंधित प्रासंगिक कथाओं के ताने-बाने बुने गए हैं। इस उपन्यास में गरमी के समय किसानों द्वारा खेतों में खाद डालना, आषाढ़ आने से पहले कई बार खेतों की जुताई करना, फिर अच्छे बीजों के द्वारा बुवाई करना आषाढ़ के बाद भादो के शुरू होते ही खेतों में अनावश्यक रूप से निकली हुई घासों की निराई करना, सावन तक फसल की अच्छी तरह से देखभाल करना और क्वार आते-आते – फसल के पक जाने पर उसकी खुशी-खुशी कटाई करना आदि के चित्र इसमें दिखाई देते हैं।

गर्मी और बरसात के बाद कार्तिक से लेकर चैत्र तक गेहूँ, चने, सरसों आदि की फसल को किसान पूरे जाड़े भर अपनी कड़ी मेहनत और लगन से किस प्रकार तैयार करता है, इसे भी उपन्यासकार ने इस उपन्यास के कथाक्रम में रखने में सफलता हासिल की है। इस कथाक्रम में पाठक वर्ग के मनोरंजन और आनंद का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है। इसके अंतर्गत यह दिखलाने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार किसान विभिन्न प्रकार के गीतों और बाजों से अपनी किसानी की कठोरता को सरस बनाने में सफलता हासिल कर लेता है। हम यहाँ यह देख सकते हैं कि वर्षा ऋतु के आते ही फसलों पर बैठकर दाना खाने वाले पक्षियों को भगाने के लिए मचान बनाए जाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ‘मानवीनी भवाई’ नामक इस उपन्यास की रचना उपन्यासकार पन्नालाल पटेल ने खेत में मचान पर बैठकर ही की थी।

इस उपन्यास की कथावस्तु में केवल किसानों और उनकी किसानी का ही यथार्थपूर्ण चित्रों में ग्रामीणों द्वारा समय-समय पर मनाए जाने वाले तिथि त्योहारों, अंधविश्वासों, मान्यताओं और जीवन दृष्टि के चित्र हैं। इसमें हम यह देखते हैं कि किस प्रकार यहाँ वे स्त्री-पुरुष और बच्चे विवाह के समय ढोलक की ताल पर नाचते-गाते हुए थिरकते हैं। विवाह के समय परस्पर किस प्रकार लोग एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते हैं। यही नहीं, किसी मुसीबत और परेशानी के आने पर न केवल एक दूसरे को सांत्वना देते हैं, अपितु एक दूसरे की मदद भी करते हैं। इसी प्रकार के सामाजिक जीवन का उल्लेख करते हुए उपन्यासकार ने सामाजिक मान्यताओं जैसे अनेक प्रकार के अंधविश्वासों-टोना टोटका, जंतर-मंतर धागा ताबीज ओझा, भूत-प्रेत आदि को भी कधाक्रम में रखने का सफल प्रयास किया है। ये सभी उल्लेख मुख्य कथा से घुले मिले हुए हैं।

इनसे मुख्य स्थानीय बोली और भाषा में वहाँ के प्रचलित मुहावरों-कहावतों से प्रस्तुत करके बहुत । बड़ी सफलता प्राप्त की है। इस उपन्यास में प्रस्तुत कालक्रम का विशेष महत्त्व है। इसे उपन्यासकार ने बड़ी सावधानी से प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से यदि हम देखते हैं कि इस उपन्यास में कथाक्रम निरन्तर गतिशील है, जो वर्ष 1900 के फलक पर रचा गया है। उस समय आए हुए अकाल की भयानकता सर्वविदित है और उसे “छप्पनिया अकाल’ कहा गया, इसलिए उस अकाल को काल का एक विकट और क्रूर रूप ही कहा जा सकता है। इस अकाल का वर्णन उपन्यासकार ने बड़े ही सजीव और मर्मस्पर्शी रूप में किया है। एक उदाहरण देखिए :

“कालू के रास्ते में पड़ने वाला छप्पन के अकाल का मारा जंगल मानो खाने को दौड़ रहा था। पक्षी भी भूख और प्यास से बिलबिला रहे थे। चैती हवा भी बिगड़ गई थी। ऐसी जली-भुनी धरती मानो कालू के पाँवों की दुश्मन बन गई थी, इस तरह वह आग उगल रह थी।”

इस उपन्यास में प्रयुक्त हुई भाषा स्थानीय और आंचलिक शब्दों की है। यही नहीं, इसमें उस स्थान और अंचल के मुहावरे और कहावतों के भी प्रयोग यथास्थान हुए हैं। कालू को आपबीती सुनाती हुई राजू के कथन में प्रयुक्त हुई स्थानीय और आँचलिक भाषा और मुहावरों-कहावतों का एक उदाहरण देखिए:”एक दिन मैं दुकान पर अनाज लेने गई। सेठ ने मेरे शरीर का बखान किया और मेरे साथ छेड़छाड़ करने लगा। उस दिन मैं खाली हाथ वापस आ गई। लौटते समय मेरे मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। मैं सोचने लगी कि यदि मैं मरद होती, तो उस सेठ का खू ही कर डालती और उसके गोदाम को भूखे लोगों द्वारा लुटवा देती।”

इस उपन्यास की विशेषताएँ औपन्यासिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। अगर हम इसे पात्रगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से देखते हैं, तो हम यह पाते हैं कि यह उपन्यास अधिक सफल और सार्थक है। इसमें दोनों ही प्रकार के पात्रों की संयोजना उपन्यासकार ने बड़े ही आकर्षक रूप में की है। ये दोनों ही प्रकार के पात्र हैं- मुख्य और गौण इस प्रकार के पात्रों की संयोजना करके उपन्यासकार ने उनके वैयक्तिक चरित्र को सामने लाने का प्रयास किया है। वह वैयक्तिक चरित्र मानव विरोधी न होकर मानव समर्थक है।

मुख्य पात्रों में कालू और राजू के वैयक्तिक चरित्र इसी प्रकार के हैं। इन दोनों पात्रों की चारित्रिक विशेषताएं प्रेरक रूप में हैं। उनमें पहली विशेषता यह है कि वे दोनों सच्चे प्रेमी हैं। उनका प्रेम एकनिष्ठ और अन्यतर है। उन दोनों का परस्पर प्रेम स्वार्थ पर नहीं अपितु त्याग पर टिका हुआ है। दोनों में पूरी मानवीय भावना भरी हुई है। अगर हम उस उपन्यास के प्रमुख पात्रों विशेष रूप से कालू, राजू और माली के चारित्रिक वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालना चाहें, तो वह यह हो सकता है कि कालू एक सरल, उदार, सच्चा प्रेमी और निष्ठावान चरित्र है। उसका प्रेम राजू के प्रति अटल, अचल और अडिग है। वह किसी भी परिस्थिति को झेलने के लिए तैयार है, लेकिन राजू के प्रेमजाल से मुक्त नहीं होना चाहता है। हम उसकी इस स्थिति को आरंभ से अंत तक देखते हैं। इस उपन्यास का दूसरा प्रमुख पात्र है-राजू राजू कालू की प्रेमिका है। वह भी अपना एकनिष्ठ प्रेमभाव राजू के प्रति बनाए रखती है। उसके लिए यह तभी तक संभव होता है, जब तक वह दयालजी के साथ विवाह के बंधन में नहीं बँध जाती है। जब वह विवाह के बंधन में बँधकर ससुराल जाती है, तब वह काल के प्रेमपाश को अनुचित समझकर उसे भूल जाना ही अपना पतिव्रता धर्म समझ है।

हालाँकि उसका पति दयाल जी रोगग्रस्त और लूला है, फिर भी वह उसकी सेवा में अपना जीवन बिताना अपना परम कर्त्तव्य समझती है। इस प्रकार वह इलाज के लिए रात-दिन एक किए रहती है। जरूरत पड़ने पर वह । अपने जेवर गिरवी रख देती है। उसके इस पुनीत कर्त्तव्य को देखकर कालू अपनी मर्यादा को अच्छी तरह से समझने लगता है। वह हर कोशिश करके उसका निर्वाह भी करता है। इस उपन्यास का तीसरा प्रमुख पात्र है- माली। यह एक ऐसा नारी पात्र है, जिसे खलनायिका कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए कि उसका हर कार्यकलाप नायक कालू और नायिका राजू के प्रति दुखद है। वह तो आरंभ से कालू के प्रति बहुत ईर्ष्याभाव रखती हुई दिखाई देती है और इस दुखद भाव को जीते जी नहीं छोड़ पाती है। इस प्रकार पात्रों की दृष्टि से यह उपन्यास अधिक प्रेरक, रोचक और श्रेष्ठ सिद्ध होता है। इसके लिए अगर किसी पात्र की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और सराहनीय कही जा सकती है, तो वह है, इस उपन्यास की नायिका राजू का चरित्र सचमुच, राजू का चरित्र एक भारतीय आदर्श नारी के रूप में हमारे सामने उभरकर आया है।

लेखक ने उसके यौवन का वर्णन करते हुए उसे वसंत ऋतु की हरी-भरी और विविध रंगों वाले फूलों से लदी प्रकृति की तरह कहा है। इससे वह कालू को भी प्रेरित करती रहती है। उससे वह प्रेरित भी होता है। उसमें शरद् बाबू के नारी पात्रों के समान अतिरिक्त भावुकता नहीं है। इस प्रकार वास्तविकता के धरातल पर उसके चारित्रिक वैशिष्ट्य विकसित हु उपन्यासकार ने उपन्यास के अन्य पात्रों में भली, नाना, परमा, पटेल, कालू के माँ-बाप, रूपा वाला फूली, डोसी है। इन सभी पात्रों के चरित्र को उपन्यासकार ने अपेक्षित रूप में उभारने का प्रयास किया है। फलस्वरूप ये सभी पात्र अपने उच्च और आकर्षक चरित्र से पाठकों पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं।

अगर हम इस उपन्यास के सभी । पात्रों को चारित्रिक वैशिष्ट्य की गहराई से देखें तो हम इस बात से सहमत होंगे कि इनमें से केवल एक ऐसा पात्र है, जिसके चरित्र को पाठक नहीं भूल सकता है। वह पात्र है माली और उसका चरित्र है मानव विरोधी। माली का चरित्र साधारण नहीं है। वह इतना असाधारण है कि उससे उपन्यास के प्रायः सभी पात्र प्रभावित हैं। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि माली सगी बेटी को भी सुखी नहीं रहने देती, बहुओं और नाती-पोतों को भी शान्ति से खाने पीने नहीं देती। वह अपने इज्जतदार और प्रतिष्ठित पति को भी अकारण गालियाँ दे-देकर उसकी इज्जत को दो कौड़ी की कर देती है।

राग-द्वेष से सुलगती माली अंत में लुटेरों के हाथों लूटी जाती है और बेरहमी से उनके हाथों मारी जाती है। अंत में हम वस्तु-चित्रण और वर्णन के प्रति अपना मत रखना चाहेंगे। इस विषय में हमें यह कहना है कि उस उपन्यास में प्रस्तुत हुए वस्तु-चित्रण और वस्तु-वर्णन सरस और अधिक रोचक हैं। मानवीय व्यापारों की तरह कथाकार ने प्रकृति के नाना व्यापारों का बड़ा ही सजीव रूप रखने में अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया है। इसे उसने काव्यात्मक शैली के माध्यम से प्रस्तुत करने में काफी हद तक सफलता हासिल की है। इसी प्रकार उपन्यासकार ने अनेक प्रकार की घटनाओं की आकर्षक प्रस्तुति की हैं।

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