सैद्धान्तिक ढाँचा-1966 में बर्जर ने थॉमस लकमैन के साथ मिकर ‘द सोशल कन्सट्रक्शन ऑफ रिअॅलिटी’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें धर्म के सैद्धांतिक ढांचे के बारे में बताया गया है। इस पुस्तक में ज्ञान के समाजशास्त्र, दृढ़ विश्वास, वचनबद्धता और सामाजिक संबंधों के अन्तर्संबंधों को बताया गया है। लोग कैसे पुरानी घटनाओं और विश्वास को मान लेते हैं? वे क्यों अंधविश्वास और रूढ़ियों के आडम्बर में फँसे रहते हैं? सामाजिक जकड़न से वे मुक्त क्यों नहीं हो पाते हैं? इन समस्त विद्रूपताओं का चित्रण बर्जर के ‘द सैक्रेड कैनोपी’ (1967) में उपलब्ध है।
धर्म के क्षेत्र में व्यापक चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द सोशल रिअॅलिटी’ (1969) में की है। धर्म के प्रति बर्जर का दृष्टिकोण मानववादी है। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्यों का विस्तार किया। धर्म की ‘पौराणिक परिस्थिति’ को उन्होंने ‘आधुनिक परिस्थिति’ में ढाला है। इसमें उन्होंने आर्थिक गतिशीलता, पारिवारिक परिस्थिति व वैश्विक संरचना तीनों का मिश्रण कर दिया है। उनका प्रारंभिक अध्ययन अमेरिका व यूरोप तक सीमित था, लेकिन धीरे-धीरे वेबर ने इसे ईसाई व इस्लामी सभ्यता के धर्म में विस्तार किया। उनकी पुस्तकों का गिरजाघरों पर विशेष प्रभाव पड़ा है। अक्सर इनका उदाहरण किसी संदर्भ विशेष में प्रस्तुत किया जाता है।
धर्म की संकल्पना :- बर्जर धर्म की वास्तविक परिभाषा पवित्र ब्रह्माण्ड के विचारों द्वारा प्रस्तुत करते हैं। धर्म मानव की शक्ति है। इससे वह अपनी अस्मिता निर्मित करता है। धर्म को पवित्र पद्धति में ब्रह्माण्डीकरण भी कहा जा सकता है। बर्जर इस विचार को रुडोल्फ ओहो और मिरसिया एलिडा के लेखों से व्युत्पन्न मानते हैं। उनके अनुसार पवित्रता ‘रहस्यमयी गुणों और भयानक शक्तियों’ की ओर संकेत करती है।
यह मानव अस्तित्व की अपेक्षा दूसरी चीज है और उसी समय से यह उनसे जुड़ी हुई है। पवित्रता मानवीय अनुभवों के लक्ष्यों में बसती है। इस प्रकार यह गुण प्राकृतिक घटनाओं और लक्ष्यों मानव और उन वस्तुओं को, जिसे मानव ने बनाया है, की विशेषता बताता है। यहां पवित्र पत्थर, पवित्र कपड़े, पवित्र समय, पवित्र यन्त्र, पवित्र स्थान, पवित्र मन और बहुत कुछ है।
धर्म का भविष्य :-20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हम पाते हैं कि बर्जर अपने आरंभिक शोध ‘आधुनिकता धर्म को कमजोर करती है’ पर संदेह के लिए कारणों को उल्लिखित करते हैं। वे धर्म को मजबूत व प्रबल शक्ति के रूप में दिखाते हैं। आधुनिकता एवं व्यक्ति, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पूंजीवाद एवं बौद्धिक विचारों के उद्भव के बावजूद भी मानव की कल्पना और जीवन शैली पर धर्म का अपना प्रभाव स्थापित है। अपने लौकिकीकरण के शोध में विश्वास को दोहराते हुए बर्जर निम्नलिखित कारणों को प्रस्तुत करते हैं
- संयुक्त राज्य अमरीका में रूढ़िवादी और ईसाई धर्मोपदेश देने वाले चर्चों का विकास।
- उदारवादी चर्चों का पतन।
- दूसरे पश्चिमी समाजों में धर्म में रुचि बनाए रहना।
- विश्व के दूसरे भागों में धर्म के पनपने की शक्ति।
यद्यपि धर्म के प्रति पुनरुत्थानवादी दृष्टिकोण के लिए बर्जर की जमकर आलोचना भी हुई, तथापि इन वर्षों में उन्होंने अपने शोध का सफलतापूर्वक प्रतिवाद भी किया। मूल बात यह है कि कुछ लोग आधुनिकीकरण और लौकिकीकरण के बीच आवश्यक संबंध देखते हैं, जैसे–आधुनिकता समाज पर धर्म की पकड़ को कमजोर बनाती है, जबकि मध्यकालीनता ठीक इसके विपरीत है। बर्जर अपना दृष्टिकोण बेहद साफ रखते हैं। एकांगीपन उनमें नहीं है। बर्जर एक निश्चित संदर्भ में धर्म की जांच पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, क्योंकि एक क्षेत्र में जो सत्य है वह दूसरे में भी सत्य हो जरूरी नहीं। दृढ़ तथा कट्टर आस्तिक से अतिबौद्धिक और छिन्द्रान्वेषी नास्तिक तक सातव्य है।
इसका मतलब यह हुआ कि जैसे-जैसे मध्यकालीनता से मनुष्य अपने आपको दूर करता गया उसके मन में धर्म के प्रति ललक उतनी ही कम होती चली गई। मनुष्य का आधुनिक सभ्यता के विकास में धर्म से अलग होना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। मध्यकालीनता की मुख्य पहचान धर्म की जकड़बंदियां व आधुनिकता की मुख्य पहचान धार्मिक जकड़बंदियों से मुक्ति है। जिस धर्म में कट्टरता अधिक होती है वहां वैज्ञानिक सोच का प्रभाव मंथर होता है। इसका मतलब यह नहीं लगाना चाहिए कि किसी भी धर्म में मानवतावाद या उदारता नहीं है, दरअसल प्रत्येक धर्म का मूल उत्स मानववाद की हिफाजत करना ही है।
धर्म की प्रासंगिकता भी इसी में निहित है। लेकिन इतिहास गवाह रहा है कि सत्ता को प्राप्त करने हेतु मनुष्य ने तरह-तरह के प्रपंच का सहारा लेकर उसे धार्मिक जाम का रूप बनाकर अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग किया है। अतः मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म समाज के लिए अफीम है।” किंतु मार्क्स की संकल्पना को पूरी तरह समझने की जरूरत है। अतः धर्म अपने मूल रूप में सर्वकल्याणकारी और सद्भाव से युक्त विकास का दृढ़ प्रतीक है।
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