‘गोदान’ में प्रेमचंद ने ग्राम जीवन और कृषि-संस्कृति को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया है । ग्राम-जीवन से तात्पर्य है – गांवों का भौगोलिक और प्राकृतिक परिवेश, गांव में रहने वालों का सामाजिक और आर्थिक स्थिति का चित्रण तथा कृषि संस्कृति से अभिप्राय है किसानों की मान्यताएं, जीवन-मूल्य, संस्कार, नैतिक दृष्टि आदि ।
‘गोदान’ में भारतीय गांवों के जीवन का बड़े पैमाने पर यथार्थ चित्र अंकित किया गया है । ग्राम-जीवन के जिन पक्षों पर प्रेमचन्द ने विशेष रूप से ध्यान दिया है, वे हैं :
गांवों की भौगोलिक और प्राकृतिक स्थिति पात्रों के नाम, शारीरिक गटन और उनकी पोशाक पात्रों के कार्य और बातचीत के विषय उनकी आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति तथा पात्रों की भाषा।
गांवों की भौगोलिक स्थिति का परिचय देने के लिए उन्होंने किसानों के घर-द्वार, खेत, खलिहान और प्राकृतिक दृश्यों का अंकन किया है। गांव का वर्णन केवल एक वाक्य में किया गया है, पर यह संक्षिप्त चित्र पाठकों के सम्मुख गांव का सजीव चित्र प्रस्तुत कर देता है- “गांव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के मथुरा के घर, भोला की बैठक और सिलिया की झोंपड़ी के चित्र गांव वालों के रहन-सहन पर पूरा प्रकाश डालते हैं-
“एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहां दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मंजे-धुले थे, बीच में पुवाल बिछा था, गांव वालों के लिये खेत और खलिहान विशेष महत्त्व रखते हैं, क्योंकि उनका अधिकांश समय यहीं बीतता है । बेलारी के खलिहान का वर्णन गांव की यथार्थ स्थिति का चित्रण करता है – “कहीं मड़ाई हो रही थी, कहीं अनाज ओसा जा रहा था, कहीं गल्ला तोला जा रहा था। सारे खलिहान में मंडी की-सी रौनक थी।” ग्रामीण प्रकृति के चित्रों को प्रस्तुत करते समय लेखक ने उन्हीं पेड़-पौधों और वनस्पतियों का उल्लेख किया है, जो गांवों में पाये जाते है । ग्रीष्म ऋतु का यह चित्र देखिये
“जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गर्मी आने लगी थी । दोपहर के समय लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था, जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो ।”
इसी प्रकार वसंत ऋतु की एक झलक देखिए, “फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुंचा था । आम के पेड़ दोनों हाथों से सुगंध बांट रहे थे और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी ।” ‘गोदान’ में पात्रों का नामकरण – होरी, गोबर, भोला, दमड़ी, मातादीन, झुनिया, धनिया, पुनिया, सिलिया, उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनकी वेशभूषा और शारीरिक गठन के चित्र भी पाठक को गांव वालों का निकट परिचय देते हैं । उपन्यास के आरंभ में ही होरी के बाहर निकलते समय का चित्र देखिये – “लाठी, मिर्जई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ, यह ग्राम सभ्यता की सबसे अच्छी पोशाक है ।”
सामान्य गांव का किसान ऐसी पोशाक नहीं पहनता | उसकी सारी जिंदगी तो फटे-पुराने कपड़ों में बीतती है । होरी की मिर्जई बने पांच साल है। गये थे और जिस कंबल का वह जाड़े में प्रयोग करता है, वह तो उसके जन्म से पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ यह इसी में सोता था और जवानी में गोबर को लेकर उसमें जाड़े की रातें काटी थीं । गोदान’ के सभी पात्र अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । होरी भारतीय किसान का, रायसाहब उस समय के जमींदारों का, खन्ना मिल-मालिकों का, गोबर नव-चेतना से सम्पन्न मजदूरों का पात्रों की संख्या एवं उनका बहुमुखी प्रवृत्तियों का चित्रण रचना को महाकाव्यात्मक बना देता है । सभी पात्र एक युग-विशेष, एक संस्कृति की समग्र चेतना को प्रतिबिम्बित करते हैं ।
गोदान’ में किसानों की आर्थिक दुरावस्था का मार्मिक और विश्वसनीय चित्रण करते हुए प्रेमचंद बताते हैं कि उनकी विपन्नता का मूल कारण शोषण है। अंग्रेजी सरकार, जमींदार और महाजन तो शोषण करते ही हैं, सरकारी अधिकारी जैसे पटवारी और पुरोहित जैसे दातादीन उनका शोषण करते रहते हैं । धनिया के इस चित्र से किसान परिवार की गरीबी का पता चल जाता है । “तीन लड़के बचपन में ही मर गये, क्योंकि वह एक धेले की भी दवा न मंगवा सकी थी । उसकी उम्र अभी क्या थी, पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी । अपनी इसी गरीबी के कारण होरी और उसके बच्चे फाके (उपवास) सहते हैं । कभी-कभी नीयत भी बिगाड़ लेते हैं। होरी बा. बेचकर अपने भाइयों को बराबर का हिस्सा नहीं देता, कुछ पैसे बचाने की चेष्टा करता है । इसी गरीबी के कारण उसे अपनी बेटी का विवाह अधेड़ उम्र के रामसेवक से करना पड़ता है और द्वार पर गाय बांधने की अभिलाषा मन में ही लिये वह मर जाता है । प्रेमचंद ने ग्रामीणों की इस दुरावस्था के कारणों का भी संकेत दिया है – किसान अशिक्षित, धर्मभीरु और अंधविश्वासी है, इसलिए सभी निर्भय होकर उनका शोषण करते हैं ।
जमींदार उनसे बेगार लेता है, महाजन ऊंची दर पर ऋण देकर और बेईमानी कर के ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं कि ऋण ऐसा मेहमान बन जाता है कि जो एक बार आकर जाने का नाम ही नहीं लेता । पुरोहित जजमानी करके पैसा कमाते हैं और किसान की मृत्यु के बाद भी गोदान के लिए हाथ फैलाये खड़े रहते हैं । इस प्रकार ‘गोदान’ में किसानों की आर्थिक विपन्नता और क्लेशों का सजीव चित्र अंकित किया गया है । यद्यपि ‘गोदान’ में नगर-कथा भी है, पर वस्तुतः वह भी कन्ट्रास्ट के माध्यम से ग्राम जीवन के चित्र को ही अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है । साथ ही नगर और गांव दोनों के चित्र प्रस्तुत करके लेखक ने अपनी कृति को महाकाव्यात्मक आयाम प्रदान किया है और वह सम्पूर्ण देश की महागाथा बन गयी है।
ग्रामीण जीवन के सजीव चित्रों के साथ ही ‘गोदान’ में किसानों के जीवन-मल्यों और मान्यताओं धार्मिक विश्वासों त्यौहारों आदि का चित्र प्रस्तुत करके कृषि-संस्कृति को साकार कर दिया गया है। कृषि-संस्कृति में भूमि और गोधन का बड़ा महत्त्व है । किसान को भूमि से बेहद प्यार होता है और गाय उसके लिए श्रद्धा और पूजा की वस्तु होती है। अपनी इसी मान्यता के कारण स्वयं को महतो कहल और द्वार पर गाय बांधने की अभिलाषा के कारण होरी आजीवन कष्ट पाता है – “खेती में जो मर्जाद है वह नौकरी में तो नहीं है” और किसान मजदूरी करना मर्यादा के विरुद्ध समझता है । इस प्रकार झूठी मर्यादा बनाये रखना किसान के संकट का मूल कारण है। ग्रामीण संस्कृति परंपरावादी है । किसान कर्ज लेता है, एक वक्त खाना खाता है, पर मजदूरी नहीं करना चाहता । वह ब्राह्मण का ऋण न चुकाने पर कोढ़ी हो जाता है ।
वह पुलिस द्वारा घर की तलाशी को मर्यादा-भंग समझता है, अतः उससे बचने के लिए रिश्वत देता है और रिश्वत के लिए कर्ज लेने में संकोच नहीं करता। किसानों की सामान्य धारणा है कि बेटी के विवाह में खूब खर्च करना चाहिए। कुश-कन्या विधि से बेटी का विवाह करना हेठी की बात समझी जाती है । सोना के ससुराल वाले बिना दान-दहेज लिये विवाह को तैयार हैं, पर धनिया दहेज देना आवश्यक बताती है । “हमें भी तो अपना मर्जाद का निबाह करना है….. कुल मर्जाद नहीं छोड़ा जाता ।” कृषकों की परंपरागत मान्यताओं में एक है बिरादरी में रहने का मोह । इसी मोह के कारण होरी पंचायत द्वारा लगाये गये दंड के सौ रुपये नकद और तीस मन अनाज चुकाता है । धर्म और ब्राह्मण का भय भी किसानों की दुरावस्था का एक कारण है । यद्यपि नयी पीढ़ी का गोबर इस मान्यता को ठोकर लगाना चाहता है, परंतु होरी पर धर्म का भूत सवार है । गो-हत्या के उपरांत प्रायश्चित रूप से हीरी को तीर्थ यात्रा करनी पड़ती है और भोज देना पड़ता है । अंधविश्वासों में जकड़ा हुआ किसान मानता है कि कुछ लोगों की नज़र लगने पर, टोना-टोटका से व्यक्ति का अनिष्ट होता है ।
होरी सोचता है कि किसी की नज़र लगने से ही गाय का दूध सूख जाता है । गांव वाले सत्यासत्य का परख के लिए गंगाजल लेकर शपथ ग्रहण करते हैं । परदेश से लौटने पर बैना बांटा जाता है, सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है । कथा के बाद आरती में पैसा न डालना मर्यादा के प्रतिकूल समझा जाता है । गांव के प्रचलित त्यौहारों और उत्सवों का यथार्थ वर्णन भी ‘गोदान’ में मिलता है। साल के हर महीने किसी उत्सव में ढोल-मंजीरा बजता रहता है । होली के एक महीने पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है, आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियां होती हैं और फिर रामायण-गान होने लगता है । जहां तक सामाजिक जीवन का चित्र है, गांवों में सम्मिलित परिवार की परंपरा निभाने की चेष्टा तो हो रही है, परंतु धीरे-धीरे वे टूटते जा रहे हैं । होरी और उसके भाइयों का अलगौझा इसका संकेत है ।
सामाजिक समस्याओं में प्रेमचंद ने अनैतिक संबंधों, ऊंच-नीच की भावना, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, विधवा और दहेज की समस्याओं की ओर संकेत किया है । होरी की बेटी रूपा का विवाह दहेज न दे सकने के कारण ही वृद्ध रामसेवक से होता है । झुनिया विधवा है, अतः गोबर साहसपूर्वक झुनिया को घर ले तो आता है, महाकाव्यात्मक उपन्यास में एक से अधिक पीढ़ियों का वर्णन होता है । ‘गोदान’ में भी दो पीढ़ियों-होरी-दातादीन की पीढ़ी गोबर-मातादीन/रायसाहब तथा उनके बेटों-बेटियों की पीढ़ी का चित्रण है और विशेषता यह है कि सभी पात्रों को लेखक की सहानुभूति प्राप्त है । इसका कारण है, प्रेमचन्द की मानवतावादी दृष्टि जो महाकाव्य के लिए आवश्यक बतायी गयी है ।
सारांश यह है कि महाकाव्य के लिए जिस विशाल पैमाने पर जीवन का चित्र प्रस्तुत करना अपेक्षित होता है, वह ‘गोदान’ में व्यापक चित्र फलक पर प्रस्तुत किया गया है । प्रेमचंद ने ‘गोदान’ द्वारा पात्रों की भीड़ भी प्रस्तुत की है और जिस ग्रामीण जीवन का चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें विस्तार के साथ-साथ गहराई भी है । पात्रों के बाह्य और आंतरिक संघर्षों का चित्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अंकित किया गया है । युग-जीवन का सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत करने की दृष्टि से भी यह उपन्यास महाकाव्य कहलाने का पूर्ण अधिकारी है । अतः ‘गोदान’ को ग्रामीण जीवन और कृषक संस्कृति का महाकाव्य कहना उचित ही है । डॉ० गोपालराय के शब्दों में “गोदान ग्रामीण समाज की भाग्यगाथा प्रस्तुत करने वाला अपूर्व महाकाव्य है, जिसमें कृषक समाज की अभाव और आंसुओं की दर्दभरी पुकार अभिव्यक्ति पाने में समर्थ हुई है
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी भी ‘गोदान’ को भारतीय ग्रामीण जीवन तथा कृषकों की संघर्ष-गाथा कहते हैं । “गोदान का कथान ग्रामीण जीवन का कथानक है । उसका नायक एक ग्रामीण कृषक है । गोदान में भारतीय गांव के अनेकमुखी जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है । भारतीय कृषकों के समस्त संस्कारों से युक्त उसकी वर्तमान दशा का चित्रण किया गया है । उपन्यास का उद्देश्य भारतीय ग्रामीण जीवन के विविध पक्षों को उपस्थित कर के ग्रामीण जीवन की स्थिति का उद्घाटन करना है ।”
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