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धर्म के अध्ययन पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण की जाँच कीजिए।

 मार्क्सवादी सामाजिक विचार- कार्ल मार्क्स ने उत्पादन की प्रक्रिया को समाज से जोड़कर उसका संबंध विश्लेषित किया है। भौतिक वस्तुओं के निर्माण अर्थात भोजन आदि के लिए ही मानव एक-दूसरे से संबंध बनाते हैं और यही समाजीकरण का कारण बनता है। मार्क्स ने उत्पादन के ढंग को अपने सामाजिक विश्लेषण का केंद्र बिंदु माना है। इसी उत्पादन के ढंग पर उन्होंने इतिहास का विभाजन व प्रत्येक युग-विशेष की व्याख्या की है।

अर्थात जिस काल में उत्पादन की शक्ति जिसके पास रही, उसी ने शासन किया तथा शेष समाज पर अत्याचार किया। यह प्रत्येक काल में होता रहा है, इनके बीच का संघर्ष ऐतिहासिक परिवर्तन लाता है। कार्ल मार्क्स के विचार में उत्पादन के ढंग दो प्रकार के होते हैं- उत्पादन की शक्ति तथा उत्पादन के संबंध उत्पादन की शक्ति में उसका तकनीकी पक्ष आता है, जहां कच्चा माल, वैज्ञानिक ज्ञान, श्रमिकों की श्रमशक्ति आदि उपस्थित हैं।  उत्पादन का संबंध सामाजिक संबंध है, जो सेवक-मालिक अथवा उत्पादक-उपभोक्ता के बीच हो सकता है। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक संरचना को अर्थव्यवस्था पर आधारित माना है जहां वर्ग भेद को प्रमुख स्थान दिया गया है।

वर्ग संबंध ही समाज की अधिसंरचना तथा अधोसंरचना का निर्माण करते हैं तथा समाज की अधिसंरचना को अधोसंरचना आकार देते हैं। मार्क्स कहते हैं कि शासक वर्ग की विचारधारा सामाजिक प्रकृति को विकृत कर देती है। अधिसंरचना उत्पादन से संबंध बनाती है तथा वर्ग-संघर्ष के उपरांत अधोसंरचना द्वारा नए समाज का निर्माण होता है और यह अंतिम समाज साम्यवादी-समाजवादी होगा, जिसमें उत्पादन के साथ एकसमान संबंध होगा तथा कोई विरोध नहीं रहेगा।

धर्म का मार्क्सवादी विचार:-

कार्ल मार्क्स ने धर्म को भी वास्तविक और आर्थिक वास्तविकता से जोड़ा है। अतः इन्होंने धर्म को अन्य सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में ही समझने का प्रयास किया है। कार्ल मार्क्स की धर्म संबंधी व्याख्या प्रकार्यात्मक थी, चूंकि उनका लक्ष्य धार्मिक सिद्धांत एवं धार्मिक विश्वास नहीं था, बल्कि समाजिक था। कार्ल मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा है कि धर्म एक भ्रम है, अतार्किक, विरोधी व पाखंड है। यह वास्तविकता से परे दिखावे एवं भ्रांति से संबंधित है। यह लोगों को उच्चादर्शों एवं कर्म से विमुख करता है।

कार्ल मार्क्स ने धर्म की प्रशंसा भी की है तथा कहा है-“धर्म धीरज बांधने का सामान्य आधार है-धर्म के विरोध में संघर्ष…संसार के विरोध में संघर्ष है, जिसकी आत्मिक सुगंध धर्म है। धर्म दबे हुए व्यक्ति की गहरी सांस है, हृदयहीन संसार का हृदय है। आत्मारहित परिस्थितियों की आत्मा है।” मार्क्स का विचार था कि जनता को यदि वास्तविक खुशी न मिले, तो भ्रामक खुशी आवश्यक है। इस पर विचार करते हुए कहा है कि धर्म शासन करने का एक माध्यम बनता है जो शोषितों एवं गरीबों पर प्रभाव जमाता है।

धर्म का उन्हें भ्रमित करना कि अगले जन्म में तुम वास्तविक खुशी पा लोगे, एक साजिश है। मार्क्स ने धर्म को आधारभूत दु:खों की अभिव्यक्ति तथा आर्थिक सच्चाइयों के लक्षण के रूप में देखा है। अत: एक ऐसे समाज की सृष्टि की जाएगी जिसमें दर्द एवं कष्टपूर्ण आर्थिक परिस्थितियों का उन्मूलन कर दिया जाएगा और धर्म की भ्रमित भूमिका समाप्त हो जाएगी। अतः धर्म पर मार्क्स ने जो विचार प्रस्तुत किए हैं वे पूरी तरह से एकांगी हैं। धर्म के मूल में रूढ़ियों से रहित स्वरूप के अंतर्गत मानवीयता |

धर्म : दमन का एक उपकरण :-

मार्क्स ने धर्म को दमन के माध्यम के रूप में भी और दमन के अभिकरण के रूप में भी माना है। ईसाई धर्म का उदाहरण देते हुए सद्कर्मों से मुक्ति पाने की बात कहकर मार्क्स ने व्यंग्य किया है कि ये यह सिखाते हैं कि गरीबी के कारण कष्टों को सहने पर भी वह विनम्रता से रह लेगा, ताकि अगले जीवन में इसके लिए पारितोषिक मिले। इस प्रकार धर्म गरीबी को सहनीय बना देता है और क्रांति का शमन कर देता है। गरीबी को उसके पिछले जन्म के पापों से जोड़कर देखा जाता है, जो ईश्वरीय विधान कहलाता है।

इसके अतिरिक्त धर्म दमन के अभिकरण के रूप में भी कार्य करता है। यह उस वर्ग को शक्ति प्रदान करता है जो दमन करता है। । सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर अनुकूल बनाकर पेश किया जाता है। किंतु भारतीय भक्ति आंदोलन में जिस भक्ति की बात की जाती है वह पूरी तरह से मार्क्स के विचारों से मेल नहीं खाती। यहाँ | धर्म का सुलभ और सरल स्वरूप परिलक्षित हुआ है, जिसमें अधिकांश निम्नवर्गीय लोग ही शामिल हुए और राजसत्ता को चुनौती दी। 

प्रभावशाली विचारधारा : धर्म —

मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ में विचारधारा पर आरोप लगाते हुए उसे अवैज्ञानिक, मिथ्या और अस्पष्ट कहा है। धर्म की गलत व्याख्या को लेकर भी मार्क्स ने आक्षेप लगाए हैं। धर्म को सामाजिक सत्यता से दूर मानते हुए मार्क्स फ्यूरबैक की धर्म की अवधारणा से प्रभावित थे।

फ्यूरबैक का कार्ल मार्क्स पर प्रभाव- हीगल से प्रभावित जर्मन दार्शनिक फ्यूरबैक ने अपनी पुस्तक ‘दास वैसस डैस क्रिसटेनटमस’ में धर्म एवं खासकर ईसाई धर्म की आलोचना की है।

इनके विचारों से कार्ल मार्क्स तथा एंजिल प्रभावित थे। फ्यूरबैक ने कहा था, “मानव अपनी हस्ती को वस्तुनिष्ठता में व्यक्त करता है तथा फिर अपनी बनाई हुई कल्पना के लिए स्वयं को एक वस्तु बनाता है. इस प्रकार एक विषय में बदल जाता है।”

मार्क्स फ्यूरबैक के निम्नलिखित बातों से अत्यधिक प्रभावित थे

(i) धर्म मानव की कल्पित अभिव्यक्ति है।

(ii) धर्म के साथ ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति की आवश्यकता के लिए जुड़े होते हैं।

(iii) मानव धर्म को उत्पन्न करता है तथा उसकी परिपक्वता में धर्म पीछे छूट जाता है।

मार्क्स फ्यूरबैक से प्रभावित अवश्य थे, किंतु उनके विचार भ्रमित संसार के कारणों की खोज करता है तथा आत्म के अलगाव के प्रश्न पर वे व्यावहारिक, सामाजिक तथा आर्थिक रूप को उत्तरदायी मानते हैं।

अतः मार्क्स धर्म के प्रधान आलोचक हैं, किंतु वे धर्म को सामाजिक अर्थव्यवस्था और प्रताड़ना का कारण नहीं मानते, बल्कि धर्म को उसके सहायक के रूप में देखते हैं जो समस्या को चिरस्थायी बना देता है तथा उसे हल करने का ढोंग करता है। 

अधिसंरचना के रूप में धर्म :- मार्क्स ने समाज की संरचना का आधार अर्थव्यवस्था को माना है। आर्थिक व्यवस्था ही उत्पादन संबंधी अथवा वितरण संबंधी साधनों की आधारभूत संरचना का निर्माण करती है। धर्म को मार्क्स ने अधिसंरचना कहा है जो अधोसंरचना से निर्मित होती है तथा धर्म अधिसंरचना के रूप में केवल एक उपागम है। चूँकि अधिसंरचना में बदलाव अधोसंरचना में परिवर्तन से होता है, क्योंकि तब धार्मिक विश्वास के रूप में समाज में प्रकृति की जटिलता के लिए अनिवार्य साधन था, किंतु आगे चलकर यह वर्ग समाज में श्रमिकों की मजबूरी के रूप में स्थापित हुआ।

मार्क्स की अधिसंरचना में उपस्थित सभी उपागम धर्म, राज्य, राजनीतिक, सांविधिक, दार्शनिक, कलात्मक सभी एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा आर्थिक कारण प्रबल रूप से प्रभावित करता है। मानवीय चेतना के उत्पन्न होने में भी आर्थिक कारणों का योगदान निर्विवाद है, अतः धर्म पर नियंत्रण से मानवीय चेतना का प्रभाव बढ़ेगा।

यहूदीवाद के प्रश्न’ पर मार्क्स :- कार्ल मार्क्स यहूदी होते हुए भी यहूदीवाद के आलोचक थे। कालांतर में उन्होंने प्रोटेस्टेंट अपनाया था। उन्होंने अपनी धर्म संबंधी व्याख्या में ईसाई धर्म को ही आधार बनाया, किंतु यहूदीवाद के विरोध में उनका स्वर आक्रामक हो जाता है।  मार्क्स ने धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना है तथा राज्य द्वारा व्यक्ति के नागरिक के रूप में ही हस्तक्षेप करने का अधिकार है।

यहूदियों की कम संख्या के बावजूद उनकी आर्थिक क्षमता अथवा भौतिक समृद्धि ने यहूदियों को इस योग्य बनाया कि वे नागरिक समानता की बात कर सकें। इस प्रकार मार्क्स यहूदियों की समृद्धि के पीछे आर्थिक समृद्धि मानते हैं तथा धनलोलुप व लालची लोगों के द्वारा इनको अलग जाति या समूह के रूप में माना जाता था।

धर्म के अध्ययन में मार्क्सवादी उपागम की आलोचना :

कार्ल मार्क्स ने धर्म की व्याख्या के साथ-साथ उसकी कड़ी आलोचना भी की है तथा उसे आध्यात्मिक ढोंग कहते हुए सबको अर्थ तंत्र से संचालित माना है।

वैसे मार्क्स के विचार मुख्यतः ईसाई धर्म को लेकर ही हैं। सार्वभौमिक सत्य के रूप में हीगल से प्रभावित मार्क्स ने ईसाई धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते हुए उसकी आलोचना की, जो कि सही नहीं है। धर्म को भौतिक तथा आर्थिक वास्तविकताओं से निर्धारित माना है जो कि वास्तव में सही नहीं है, अगर ऐसा होता तो प्रोटेस्टेंटवाद से पूर्व पूंजीवाद आ जाता। इसे मैक्स वैबर के विचारों से खंडित किया जा सकता है कि धार्मिक संस्था नई आर्थिक वास्तविकताओं का निर्माण करती है। 

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