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भारतीय लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका की व्याख्या कीजिए।

 यह निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि संचार माध्यम काफी हद तक जनमत तैयार करते हैं। ऐसे कई अध्ययन हुए हैं जो दर्शाते हैं कि संचार माध्यम ही लोगों की राय बनाने के एकमात्र साधन नहीं है। 1940 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान पॉल इ लाज़ारफेल्ड और अन्य विद्वानों ने जो शोध किया इससे पाया कि लोगों के निर्णय लेने की प्रक्रिया पर संचार माध्यमों का सीधा प्रभाव नहीं पड़ता। अपनी पुस्तक ‘द पीपुल्स चॉइस’ में उन्होंने अंतर्वैक्तिक संप्रेषण, हमजोली समूहों और ओपिनियन लीडरों को भी जनमत निर्माण के प्रमुख घटक माना। फिर भी दो पायदानों वाले सूचना माडल में भी जनसंचार माध्यमों की भूमिका को पूरी तरह से नकारा नहीं गया बल्कि उसे जनता और ओपीनियन लीडर तक सूचनाएं प्रेषित करने की अहम भूमिका में दर्शाया गया।

1970 के दौरान संचार सिद्धांतकारों ने जनमत निर्माण में पुनः संचार माध्यमों की भूमिका को रेखांकित किया। जॉर्ज गार्बनर (1967) ने कल्टीवेशन सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसमें संचार माध्यमों को समाज का निर्माता घोषित किया।  उनका मत था कि संचार माध्यमों का लोगों के नजरिए पर व्यंजनात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि उन्होंने दर्शाया कि अपने बार-बार और लम्बे प्रसार की वजह से वह प्रभावी प्रतीकों का निर्माण करता है। उनके शोध समय के अनकल थे क्योंकि उस समय विज्ञापन समाज को प्रभावित कर रहे थे। बाद में संचार माध्यमों और राजनीति के संबंधों की पड़ताल भी की गयी और मेक्सवैल मकोम्ब और डोनाल्ड शॉ (1972) ने चुनावों के दौरान माध्यमों द्वारा एजेंडा तय करने की जांच की।

एजेंडा तय करने वाले सिद्धांत के प्रणोताओं का मानना है कि संचा माध्यम लोगों को क्या सोचना है की तुलना में सोचने के लिए क्या-क्या है बताने में सफल होते हैं। इस अध्ययन में संचार माध्यमों द्वारा तय किए गए मुद्दों की तुलना लोगों और राजनेताओं द्वारा तय किए गए मुद्दों से की गई। इस अध्ययन में बताया गया है कि समय के साथ माध्यमों द्वारा तय किए गए मुद्दे जनता के मुद्दे बन जाते हैं। संचार के दूसरे विद्वानों ने हमें जनसंचार के कई वैकल्पिक सिद्धांत बताए हैं पर हम यहां दो अन्य सिद्धांतों की चर्चा करेंगे।

मेल्विन द फ्लर और सैंड्रा बॉल राकीक ने निर्भरता का सिद्धांत सामने रखा जिसमें कुछ सामरिक तथा मनोवैज्ञानिक घटक संचार माध्यमों का उनके पाठकों और दर्शकों पर नियंत्रण रखने से बचाव करते हैं। वह कहते हैं- जनसंचार माध्यमों में न केवल याद्वैच्छिक प्रभाव सत्ता की कमी होती है बल्कि वह याद्वैच्छिक संप्रेषण कर पाने में भी सक्षम नहीं होते। माध्यम और उसके श्रोता या दर्शक समाज के अभिन्न अंग हैं अतः आस-पास का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ न केवल उनके संदेशों पर नियंत्र रखते हैं बल्कि उन संदेशों के दर्शकों पर पड़ने वाले प्रभाव को भी नियंत्रित करते हैं। 

दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत विकास संचार का सिद्धांत कहलाता है जिसे विकासशील देशों के संचार समस्याओं के अध्ययन के लिए मैक्ब्राइड आयोग ने प्रतिपादित किया। संचार की अंतर संरचना के अभाव, यंत्रों और सामग्री के लिए विकसित देशों पर निर्भरता आदि वह समस्याएं थी जिनका अध्ययन किया गया। अपने-अपने समाजों के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास को राष्ट्रीय प्राथमिकता वाला काम मानने की उनकी प्रतिबद्धता और समान हितों वाले देशों की पहचान करना इन देशों के लक्ष्य थे।

विकास संचार सिद्धांतकारों की प्रमुख चिंता गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियंत्रण, साक्षरता, रोजगार, आदि के विकास कार्यक्रमों में संचार माध्यमों का इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढ़ना था। इस सिद्धांत की सफलता सरकारों पर निर्भर करती है क्योंकि वही विधाई नीतियों की मदद से संचार माध्यमों की स्वतंत्रता या उन पर नियंत्रण लगा सकती हैं।

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