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उपनिवेशवाद क्‍या है? उपनिवेशवाद के विभिन्‍न चरणों की चर्चा कीजिए।

 उपनिवेशवाद पूँजीवाद के विकास की एक ऐसी विशिष्ट अवस्था है, जिसमें पारंपरिक अर्थव्यवस्था में आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है। इसके अंतर्गत समाज और अर्थव्यवस्था का नियंत्रण विदेशी पूँजीवादी वर्ग के हाथ में रहता है। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था न तो पूँजीवादी बन पाती है और न ही पूँजीवाद से पूर्व की अवस्था में रह पाती है। उपनिवेशवाद ने सामाजिक तथा उत्पादक शक्तियों को विकसित करने की जगह उसे अविकसित बनाया। पूँजीवाद में जहाँ पूँजीपतियों को लाभ होता है, वहीं उपनिवेशवाद में देश पर नियंत्रण करने वाली विदेशी शक्ति को लाभ प्राप्त होता है।

इस कारण उपनिवेशों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष प्रारंभ हुआ, न कि वर्ग-संघर्ष। उपनिवेशवाद में औपनिवेशिक देश एवं उपनिवेश के बीच असमान विनिमय इसकी एक मुख्य विशेषता है। दूसरी विशेषता असमान श्रम-विभाजन, निम्न प्रौद्योगिकी, विदेशी राजनीतिक प्रभुत्व, बाहरी एकीकरण और भीतरी विघटन एवं सम्पत्ति की निकासी मुख्य विशेषताएँ हैं। उपनिवेशवाद की तीन विशिष्ट अवस्थाएँ थीं। ये अवस्थाएँ 200 सालों तक रहीं। कोई उपनिवेश इन तीनों अवस्थाओं से गुजरे, इसकी कोई प्रत्याभूति नहीं थी। 

अधीनता के समय के तरीके के साथ ये अवस्थाएँ उसी तरह बदले, जैसे औपनिवेशिक नीति, शासन और उसकी संस्थाएँ, सांस्कृतिक विचार तथा विचाराधाराएँ बदलीं। एक अवस्था के लक्षण दूसरी अवस्था में भी दृष्टिगोचर होते थे।

यह अवस्थाएँ चार घटकों का परिणाम थीं :-

  1. विश्व-व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद का ऐतिहासिक विकास।
  2. मेट्रोपोलिस के समाज, अर्थव्यवस्था और राज-व्यवस्था में परिवर्तन।
  3. विश्व-अर्थव्यवस्था में उसकी स्थिति में बदलाव और
  4. उपनिवेश का स्वयं ऐतिहासिक विकास।

पहली अवस्था : एकाधिकार व्यापार तथा लूटपाट

उस अवस्था के दो आधरभूत उदेश्य थे पहला व्यापार एकाधिकार बनाए रखना। इसके तहत देशी उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीदना, स्थानीय या यूरोपीय व्यापारियों को प्रतिस्पर्धा से दूर रखना इत्यादि की कोशिश की जाती थी। स्थानीय व्यापारियों को लाभप्रद व्यापार से क्षेत्रीय विजय में भी दूर रखना।

दूसरा, उपनिवेश की राजनीतिक विजय के कारण लूटपाट का अवसर मिला। के.एम. पन्निकर ने इसी समय के भारत स्थित ब्रिटिश सरकार को ‘डाकू राज्य’ की संज्ञा दी है। उसी समय भारतीय धन का बड़े पैमाने पर ब्रिटेन की ओर पलायन हुआ। यह रकम उस समय ब्रिटेन की राष्ट्रीय आय का दो या तीन प्रतिशत थी। उस अवस्था में सिर्फ पारम्परिक अर्थव्यवस्था और राजव्यवस्था पर औपनिवेशिक व्यवस्था लाद दी गयी। इस अवस्था में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किए गए।

द्वितीय अवस्था : मुक्त व्यापार का युग :- 

यह अवस्था पहली अवस्था से बिल्कुल भिन्न थी। औपनिवेशिक राष्ट्रों को निर्मित मालों की बिक्री के लिए बाजार की जरूरत थी। इसके लिए यह आवश्यक था कि उपनिवेशों के निर्यात में वृद्धि करके उसकी क्रय शक्ति को बढ़ाया जाए। इस अवस्था में औपनिवेशिक बुर्जुआ वर्ग ने उपनिवेशों, अनियंत्रित लूट-पाट का विरोध किया। इसका कारण उपनिवेशवासियों के प्रति सद्भाव नहीं था, बल्कि उनके अपने स्वार्थ थे, जिनके तहत वे उपनिवेशों से दीर्घकालिक लाभ लेने की आकांक्षा रखते थे।

उनकी नजर में उपनिवेश ऐसी मुर्गी थी, जो सोने का अंडा देने वाली थी। अत: इसे बचाकर रखने में ही भलाई थी। इस अवस्था में उपनिवेश का आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक ढाँचा नए तरीके से शोषण करने के लिए रूपान्तरित किया गया।

निर्यात के लिए भारी मात्रा में कच्चा माल बन्दरगाहों पर ले जाने की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए यातायात, संचार व्यवस्थाएँ विकसित की गईं। इस अवस्था का नारा था विकास और आधुनिकीकरण। उदारवादी साम्राज्यवाद अब नई राजनीतिक विचारधारा थी। शासकों ने उपनिवेशवाद का लक्ष्य लोगों को स्वशासन में प्रशिक्षित करना बताया।

तीसरी अवस्था : वित्तीय पूँजीवाद का युग :- 

इस अवस्था में उपनिवेशों पर नियंत्रण का शिकंजा और भी सख्त हुआ। कारण यह था कि औपनिवेशिक राष्ट्रों के पास पूँजी का संचय काफी हो गया था। फलतः उसका निवेश वहीं करना ज्यादा उचित था, जहाँ साम्राज्यवादी शक्तियों के अपने उपनिवेश थे। इस अवस्था में कच्चे माल के स्रोतों एवं अनाज के लिए भी संघर्ष देखे गए। विचारधारा के क्षेत्र में उदारवाद का स्थान प्रतिक्रियावाद ने ले लिया। अब स्वशासन की चर्चा भी नहीं की जाने वाली थी। अब नई प्रबुद्ध तानाशाही के तहत औपनिवेशिक जनता को उन बच्चों की तरह देखा जाता था, जिन्हें हमेशा अभिभावकों की जरूरत पड़ने वाली थी।

इस अवस्था में उपनिवेशवाद का अपना अंतर्विरोध स्पष्ट रूप से सामने आया। उपनिवेशवाद की एक जरूरत यह थी कि उपनिवेशों का विकास और आधुनिकीकरण हो। उनमें विदेशी माल को खरीद सकने की क्रय क्षमता बढ़े, साथ विदेशी पूँजी को जब्त करने की क्षमता भी। सीमित आधुनिकीकरण की एक योजना भी अमल में लाने की कोशिश की गई, ताकि स्थिति सुधर सके। लेकिन उपनिवेशवाद की प्रक्रिया ने ही उपनिवेशों का इस प्रकार दोहन किया था कि विकास और आधुनिकीकरण की संभावना सीमित हो गयी थी। 

इस स्थिति में उपनिवेशों के पास शोषण करने लायक कुछ संचित भी नहीं था। इस काल में स्थिति इतनी भयावह हो गयी थी कि उपनिवेश कच्चे माल तक की आपूर्ति में भी वृद्धि करने की स्थिति में नहीं रह गए थे। तीसरी अवस्था सामान्यता आरम्भ नहीं हो पायी। कई उपनिवेशों में शोषण के पुराने तरीके जारी रहे। उदाहरणार्थ, भारत में तीसरी अवस्था में भी पहली दोन। अवस्थाओं के लक्षण मुख्य रूप से जारी रहे।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर उपनिवेशवाद का प्रभाव

भारतीय अर्थव्यवस्था को उपनिवेशवाद ने क्रमिक रूप से तीन चरणों में प्रभावित किया। पहली अवस्था में बंगाल और दक्षिण इस अवस्था में भारतीय समाज में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं हुए। केवल सैन्य संगठन, प्रौद्योगिकी और राजस्व प्रशासन के शीर्ष पर ही परिवर्तन किए गए। ग्रामीण व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ किए बगैर ही राजस्व प्राप्त करने की तरकीब निकाल ली गयी। विचारधारा के क्षेत्र में पारम्परिक व्यवस्थाओं एवं मूल्यों के साथ भी छेड़छाड़ नहीं की गयी।

दूसरे चरण में भारत खाद्यान्न और कच्चे माल के संभरक और निर्मित माल के बाजार के रूप में मुख्यतया बना रहा। मैनचेस्टर में निर्मित सस्ते माल के साथ प्रतिस्पर्धा ने भारतीय जुलाहों का सर्वनाश कर दिया। औद्योगीकरण के बजाय उद्योगों की अवनति की प्रक्रिया का आरम्भ हुआ। कृषि जनसंख्या का भरण-पोषण के लिए अधिकाधिक दबाव पड़ना शुरू हुआ। 

रेलवे का विस्तार किया गया और एका आधुनिक डाक और तार व्यवस्था चालू की गई। प्रशासन को अधिक व्यापक बनाया गया। नए प्रशासन को चलाने के लिए ‘बाबू तैयार’ करने के उद्देश्य से आधुनिक शिक्षा व्यवस्था लागू की गई। पाश्चात्य प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जाने लगा, ताकि ब्रितानी सामान की माँग में वृद्धि हो सके।

अब तत्कालीन संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए पारम्परिक संस्कृति की भर्त्सना की जाने लगी। प्राच्यवाद जो कि भारतीय संस्कृति का प्रशंसक था, ने भारतीयों की वर्तमान को समझने की इच्छा को हतोत्साहित ही किया। इसके विपरीत नई विचारधारा, जिसके समर्थकों में मैकाले का नाम सर्वविदित है, विकास पर आधारित थी। भारत का अविकसित रहना नई विचार, की इच्छा का परिणाम नहीं, बल्कि उपनिवेश के क्रियाकलापों का अवश्यंभावी परिणाम था।

तीसरी अवस्था को वित्तीय पूँजी के युग के रूप में जाना जाता है। पूँजी का एक बड़ा हिस्सा रेलवे में लगाया गया, व्यापार एवं भारत सरकार को कृण के तौर पर दिया गया और खेत-बागानों, कोयला खनन, जूट की मिलों, जहाजरानी तथा भारत में बैंकिंग पूँजी में लगाई गई। इस अवस्था में ब्रिटेन की स्थिति को नए साम्राज्यवादी देशों की प्रतिस्पर्धा से लगातार चुनौतियाँ मिल रही थीं। फलतः भारत पर नियंत्रण मजबूत किया गया। 

प्रतिक्रियावादी साम्राज्यवादी नीतियों ने लिटन और कर्जन के वायसराय होने को विशिष्ट ठहराया। स्वशासन की सब बातें समाप्त हो गई और भारत के नादान लोगों पर ब्रिटेन का स्थायी अधिदेश शासन घोषित कर दिया गया। भारत में औद्योगिक विकास को बल तब मिला, जब विश्व अर्थव्यस्था से भारत का जुड़ाव कमजोर हुआ। खासकर विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का मौका मिला।

दो विश्व युद्धों के दौरान विदेशी व्यापार और विदेशी पूँजी का आयात कम होने से स्वतंत्र आर्थिक विकास का सुअवसर मिला। चूंकि औपनिवेशिक सम्बन्ध टूटे नहीं थे, बल्कि सिर्फ शिथिल पड़े थे, इसलिए इस दौरान जो कुछ भी हुआ, वह केवल औद्योगिक विकास था, औद्योगिक क्रांति नहीं।

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