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भारतेन्दु नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाना चाहते थे? विवेचन कीजिए।

 भारतेंदु ने नाटक लिखकर न सिर्फ साहित्य की सेवा की बल्कि हिन उन्नत करने तथा हिन्दी नाट्य-कला और रंगमंच का विकास करने का ऐतिहासिक कार्य किया। उन्होंने युग की आवश्कताओं को पहचान कर नाटक लिखे। अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के साथ भारतेंदु ने नाट्यरचना के क्षेत्र में अद्भुत सृजनशील और गंभीरता का परिचय दिया है। कविता, निबंध आदि विधाओं में लिखते हुए नाट्य विधा की ओर उनका विशेष झकाव दिखाई देता है।

भारतेंदु के नाटकों के द्वारा जनता नवजागरण की दिशा में संस्कारित करना चाहते थे। वे जनते थे कि दृश्य काव्य होने की वजह से टक जनता को जागृत करने का सशक्त माध्यम हो सकता है। भारतेंदु के निम्नलिखित नाटकों की रचना की 

वौदिक हिंसा हिंसा न भवति ( 1873), विषस्य विषमौषधम् (1875), प्रेमजोगिनी । (1875), सत्य हरिश्चद्र ( 1875), चंद्रवली (1876), भारत दुर्दशा ( 1876), भारत जननी 1877), नीलदेवी (1880), अंधेर नगरी (1881), और सती प्रताप ( 1884)।

विद्यासुंदर 1868 में जो बंगला से छायानुवाद हुआ है। इस आलवा कुछ नाटक है जो अनूदित है जैसे रत्नावली (1868), पाखंड विडंबना (1872), धनंजय विजय । 1873), मुद्राराक्षक ( 1875), कर्पूरमंजरी (1876) और दुर्लभबंधू ( 1880) ।

भारतेंदु के नाटकों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता कि उन्होंने नाटकों के कथानक, चरित्र, भाषा, शिल्प और रंगमंच के बारे गहन रूप से विचार किया था। वह हिन्दी नाटक के स्वरूप को भी विकसित कर रहे थे और अपने समय से भी उसे पुरानी रूढ़ियो, अंधविश्वसों को तोड़ते हुए उनके सभी नाटक प्राचीन प्रचलित रीतिया पा अंधानुकरण का विरोध करते है। वस्तुतः वह नाटक का जातीय रूप विकसित करना चाहते थे इसलिए नाटकों की विषयवस्तु यथार्थ के नजदीक है।

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति एक प्रहसन है। इस नाटक का उद्देश्य यथार्थ के उद्घाटन और व्यंग्य द्वारा जीवन में आई विकृतियों के प्रति जनता को सचेत करना है। अपने लघु आकार में भी यह प्रहसन पूर्ण नाटक की विशेषताओं से युक्त है। सभी पात्र प्रतीकात्मक और व्यंग्य चरित्र है । – विषस्य विषमौषधम् संस्कृत की भाषा शैली में लिखा गया एक पात्रीय नाटक है भारतेंदु अपने समय के राजाओं की व्यभिचार लीला और प्रजा शोषण देख रहे थे। ये राजा ही देश की परतंत्रता के कारण बने। भारतेंदु ने सामंत वर्ग की स्वार्थ लालुपता और अंग्रेजों की कुटनीति को एक साथ पहचान है और एक-पात्रीय नाटक की एकरसता को कहावतों, मुहावरों, पदों, श्लोकों, व्यंग्य, हास्य से मनोरंजन बनाया है। 

प्रेमजोगिनी भी काशी के पाखंड भरे रूप का यथार्थवादी नाटक है। यह काशी के बहाने सांमती संस्कृति के पतन का नाटक है। यह नाटक के क्षेत्र में भारतेंदु का नया प्रयोग है। हर अंक में नया पात्र आते है, एक ही पात्र के कई बार अभिनय करने की संभावनाएं बनती है। सत्य हरिश्चंद्र नाटक रीति-कालीन श्रृंगार रस के प्रति असंतोष से उपजा है। यह नाटक नवयुवकों में चरित्र और आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से लिखा गया । सत्य हरिश्चंद्र क्षेमेश्वर के चंडकौशिक नाटक के आधार पर लिखा गया है। सत्य हरिश्चंद्र की रचना कर के वह देश का जन-मानस गर्व से भरना चाहते थे,

उसे चारित्रित उत्थान का माध्यम बनाना चाहते थे। इसके शिल्पविन्यास में भी पाश्चात्य शैली के प्रभाव के साथ ही उनकी मौकिलता भी दिखाई देता है। यह नाटक भारतीय जनता के धैर्य और अथाय करूणा का प्रतीक है। चंद्रावली प्रेम और भक्ति की स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है। इसमें सूर, मीरा, रसखान जैसे कवियों के भक्तिकाव्य का सा आनंद मिलता है। चंद्रावली को रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है। राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक भारतेंदु का अखण्ड परमानंद चंद्रावली के अनन्य प्रेम और भक्ति के द्वारा व्यक्त हुआ है।

भारत दुर्दशा अंग्रेजी राज्य की अप्रत्यक्ष आलोचना है और भारतेंदु की देश भक्ति और निर्भीकता का सहृदयता और वीरता का प्रमाण है। उनकी राजनीतिक सूझबूझ, प्रहसन कला, व्यंग्य और यथार्थ का सजीव चित्रण इसमें मिलता है।  प्रतीकात्मक पात्रों के द्वारा उन्होंने अपनी बात कहने की सफल कोशिश है। लोकधर्मी चेतना और प्रयोगशीलता के कारण भारत दुर्दशा आज भी प्रासंगिक है। यह लचीले ल्प का नाटक है। इसमें पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक नाट्य रूप का अद्भुत मिश्रण है। भारत जननी भी भारतवर्ष की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर लिख गया काव्यनाटक है। चंद्रावली और भारत जननी में गीतिनाट्य का सूत्रपात देखा जा सकता है : दुर्दशा के तुरंत बाद लिखा गया नीलदेवी नाटक भी स्त्री प्रधान और पहला दुखात नाटक है देश में फैला इस भ्रम को दूर करना चाहते थे कि भारत में स्त्रियों की दशा बहुत खराब रही है।

नीलदेवी के महत्वपूर्ण गुण हैं उसके सरस, मधुर गीत और भारतेंदु के प्रहसन, जिंदादिली और तीव्र अभिनयात्मकता की शैली। नीलदेवी के गीत आधुनिक दृष्टि से नाट्यसंगीत और नाट्यगीत का सुंदर हरण है। अंधेर नगरी में भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्यक का चरमोत्कर्ष हुआ है। प्रहसन और व्यंग्य – कला का तना चुटीला और सजीव रूप उनकी सजगता और मानव जीवन में उनकी र गहरी पैठ का परिणम है।

जन-प्रचलित एक छोटी सी लोकोक्ति के आधार पर रचित । यह छोटा नाटक अपने भीतर सम्रग चेतना वर्तमान संदर्भ छिपाये हुए है। एक लोककथा में नये प्रण फूंकना और लोकजीवन और राजनीतिक चेतना को एक-दूसरे के करीब लाते हुए उनमें निहित यथार्थ को व्यंग्य द्वारा व्यक्त करना भारतेंदु की मौलिकता है। अंधेर नगरी भारतेंदु के समय का ही नही हमारे समय भी यथार्थ है।

सती प्रताप में सती सावित्री के कथानक को लेकर भारतीय नारी की चेतना और आदर्श को प्रस्तुत किया गया है। ताकि पुरुषों में नवीन जागरण उत्पन्न हो सकें भारतेंदु इसके केवल चार दृश्य ही लिख पाये थे। बाद में राधाकृष्णदास ने इसे पूरा किया। प्रहसन के द्वारा भारतेंदु अपने सभी लक्ष्य पूरा करते हैं। धनंजय विजय वीर रस प्रधान ओजपूर्ण, नाटक है। इसके भरत वाक्य में वह कजरी, ठकुरी आदि की रूढ़िवादी लीक को छोड़कर नये साहित्य और कविता की राह पर चलने को कहते हैं।

मुद्राराक्षस संस्कृत के नाटककार विशाखदत्त का एक राजनीतिक नाटक है। नायकनायिकाओं की श्रंगार लीलाओं से हटकर प्राचीन और परंपराओं के समंवय के द्वारा इस नाटक से भारतेंदु प्रमाणित करना चाहते थे कि श्रृंगार रस की बिना भी विचारोत्तेजक महान नाटक है। इस नाटक का अनुवाद और भी अधिक जीवंत एवं मौलिक है। कर्पूर-मंजरी कवि राजशेखर द्वारा प्राकृत भाषा में रचित कर्पूरमंजरी का अनुवाद है। इसमें राजदरबार का संदुर व्यंग्यात्मक चित्र है। श्रंगार प्रधान के लिए मूल गीतों के स्थान पर हिन्दी के रीतिकालीन कवियों के भंगार प्रधान गीतों का प्रयोग उनकी मौलिकता है। 

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