केन्द्रीय प्रशासन-मार्थ सामाज्य का प्रणासन कार्ड और प्रान्तीय क्षेत्रा से लेकर सीबी तक निक प्रशासिक इमाश्यों में विभाजित था। केन्द्रीय प्रशासन को निम्नलिखित भागों में बांटा गया था
राजा- शासन का केन्द्र बिन्दु राजा होता था। अत: इतने बड़े सामान्य के शासन संचालन के लिए यह आवश्यक था कि राजा उत्साही, स्फूर्तिवान, उद्यमी और प्रजाहित कार्यों के लिए सदा तत्पर हो।
राजा ही राज्य की नीति निर्धारित करता था और अपने अधिकारियों को राजाज्ञाओं द्वारा समय-समय पर निर्देश दिया करता था। अधिकारियों की नियुक्ति देश की आन्तरिक रक्षा और शांति, युद्ध संचालन, सेना का नियन्त्रण आदि सभी राजा के आधीन था।
यदि किसी समस्या के सुलझाने में नीति शास्त्र और राज्य के कानून में मतभेद होता था तो राजा के कानून को ही मान्यता मिलती थी। राजा ही राज्य का कानून निर्माता, प्रशासक, सर्वोच्च न्यायाधीश और सेनापति होता था
उसके मुख से निकला हर शब्द कानून तथा उसकी शक्ति असीमित और निरंकुश थी। उसकी वैधानिक शक्तियों पर नैतिकता और परम्पराओं का बहुत बड़ा अकुंश था।
प्रशासन का क्षेत्रीय तथा स्थानीय इकाइयां :
मौर्यों का प्रशासन केन्द्रीकृत था। सारे अधिकार और शक्तियां राजा के पास थीं। किन्तु इतने बड़े साम्राज्य को एक स्थान से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता था, इसलिए मौयों ने स्थानीय स्तर पर भी प्रशासनिक इकाइयां बनाई।
प्रान्तीय प्रशासन- प्रान्तीय गवर्नर या वायसराय राजकुमार या राजा का कोई संबंधी होता था. उदाहरण के लिए अशोक तक्षशिला का गवर्नर था।
प्रशासन में गर्वनर की सहायता महामात्य तथा एक मंत्रिपरिषद करती थी। रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से पता चलता है कि अशोक के समय वहां का युवराज तुशस्य था।
इसी प्रकार अशोक के शिलालेखों में चार राजधानियों का उल्लेख मिलता है। मंत्रिपरिषद का राजा से सीधा सम्पर्क था।
जनपद तथा ग्रामीण प्रशासन- प्रशासन, नागरिक स्तर पर होता था तथा इसके संगठन में कई गांव हाते थे। प्रदेष्ट जनपद स्तर के अधिकारी होते थे। राजुक और युक्त अन्य अधिकारी थे।
राजा इनसे सीधा सम्पर्क कर सकता था। ग्रामीण स्तर पर स्थानीय लोग होते थे, जिन्हें ग्रामिक कहा जाता था। गोप और स्थानिक जनपद और गांवों के बीच मध्यस्थता का काम करते थे। गांव की सीमा निर्धारण, आय व्यय को दर्ज करना, राजस्व का हिसाब रखना इनका ही काम था।
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