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पूर्वी हिंदी की बोलियाँ

 पूर्वी हिंदी की बोलियाँ

अवधी- अवधी पूर्वी हिंदी (purvihindi) की प्रमुख बोली है जो अवध प्रदेश के अन्तर्गत बोली जाती है। ऐसा माना जाता है कि अयोध्या से अवध शब्द विकसित हुआ और इसी के आधार पर इस बोली कोअवधी कहा गया। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत माना है,

परन्तु डॉ. बाबूराम सक्सेना इसमें पाति से अधिक समानता पाते हैं। वहीं डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे ‘कोसली’ से उद्भूत | मानते हैं। अवधी प्रायः नागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु मध्यकाल में केथी और फारसी लिपि में भी इसे लिखा जाता रहा है। 

जार्ज ग्रियर्सन ने अवधी बोलने वालों की संख्या एक करोड़ साह कमल लाय. बताई है। किजिनगणना के अनुसार अवधी बोलने वालों की संख्या 136259 है। अवधी बोली में साहित्य रचना व्यापक मात्रा में हुई है। अवधी को प्रथम रचना मुल्ला दाऊद कृति ‘चंदायन’ को मानी जाता है।

तुलसीदारी कृती रामचरितमानस’ एवं जायसी कृति ‘पद्यावा जैसे हिंदी महाकाव्य इसी भाषा अवधी में लिखे गए हैं। हिंदी की प्रेमाश्रयी शाखा के लगभग सभी कवियों ने अवधी में ही साहित्य रचना की है। इनमें प्रमुख हैं जायसी, मंझन, कुतबन, नूर मुहम्मद आदि।

अवधी बोली की उपबोलियाँ- अवधी बोली की उपबोलियों की संख्या तेरह बताई जाती है, जिनमें प्रमुख हैं-मिर्जापुरी (मिर्जापुर में प्रयुक्त अवल), बनौधी (पश्चिमी जौनपुर), बैसवाड़ी (उन्नाव एवं रायबरेली के बीच के क्षेत्र की बोली), गंगापारी, पूर्वी, उत्तरी, जोलहा, गहोरा, जूडर आदि।

अवधी बोली का क्षेत्र- उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, गोंडा, बहराइच, लखनऊ, उन्नाव, बस्ती, रायबरेली, सीतापुर, हरदोई का कुछ भाग, अयोध्या, फैजाबाद, सुलतानपुर, रायबरेली, प्रतापगढ़, बाराबंकी, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर का कुछ भाग तथा जौनपुर ( कुछ भाग ) जिलों में फैला हुआ है।

अवधी बोली की विशेषताएँ-अवधी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1 अवधी में ‘ए’, ‘ओ’ के इस्व और दोघं दोनों रूप तथा स. श, ष स्थान पर ‘स’ का प्रयोग।

2 अवधी बोली में ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अइ’ और ‘औं’ का उच्चारण ‘अ’ रूप में होता है, जैसे, ‘ऐसा’ की जगह ‘अइसा’,’औरत’ की जगह ‘अउरत’।

3 अवधी भाषा के कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं।

4 बघेली- बघेली बघेले राजपूतों की वजह से रीवा और आसपास का क्षेत्र बघेलखण्ड कहलाया और बघेलखण्ड की बोली बघेली कहलाई। 

बघेली और अवधी में इतनी अधिक साम्यता है कि कुछ विद्वान बघेली को अवधी की एक बोली मानते हैं। जार्ज ग्रियर्सन ने भी जनमत को ध्यान में रखकर ही बचेली को स्वतंत्र बोली स्वीकार किया था। इसकी सीमावर्ती बोलियाँ है-बुन्देली, अवधी और भोजपुरी।

बघेली बोली को पहले केथी लिपि में लिखा जाता था, परन्तु अब यह देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार बघेली बोलने बालों की संख्या लगभग 46 लाख है। लेकिन बघेली बोलने वालों की संख्या लगभग 60 लाख है।

बघेली बोली (bagheli boli) में कोई साहित्य रचना प्राप्त नहीं हुई है, लेकिन लोक साहित्य पर्याप्त मिलता है। बघेली बोली के अन्य नाम रीवाई और बघेलखंडी भी हैं।

बघेली बोली की उपबोलियाँ बपेली बोली की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-तिरहारी, बुन्देली. गहोरा, जुड़ार, बनाफरी, मरारी, पोवारी, कुम्भारी, ओझी, गोंडवानी तथा केवरी आदि।

छत्तीसगढ़ी- इसका भी विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुआ है। इस बोली (Chhattisgarhi bony पर नेपाली, बंगला तथा उड़िया का प्रभाव भी पड़ा है। मुख्य रूप से नागरी लिपि में लिखी जाती है, परन्तु इसकी दो उपबोलियों, भुलिया तथा कलंगा के लिए उड़िया लिपि का प्रयोग किया जाता है।

जार्ज ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 33 लाख बताई है। 1961 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 2962038 थी।

साहित्य की रचना छत्तीसगढ़ी बोली में नहीं हुई, किन्तु लोक-साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ी बोली के अन्य नाम छत्तीसगढ़ी बोली का मुख्य क्षेत्र छत्तीसगढ़ होने के कारण इसे छत्तीसगढ़ी कहते हैं।

बालाघाट के लोग इसे खल्हाटी अथवा खलोटी भी कहते हैं। पूर्वी सम्भलपुर के पास इसे ‘लरिया’ नाम से जाना जाता है। कुछ भागों में इसे खल्ताही भी कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ी बोली की उपचोसिय न्तीसगली की प्रमुख उपयोक्तियां निम्नलिखिता है सुरगुजिमा, कलंगा, भुलिआ, सतनामी, कॉकरी, सदरी कोरवा, बेगानी, बिंझवाली, बिलासपुरी तथा हलबी।

इनमें से ‘हलबी’ का प्रयोग बस्तर जिले में होता है। जार्ज ग्रियर्सन इसे | मराठी की एक उपभाषा मान हैं। पुरंत सुनीति कमाउ बरी के अनुसार यह छत्तीसगृही Chhatisgarhil की एक उपबोली है।

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