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भारत में औपनिवेशिक वन नीति पर एक निबंध लिखिए।

 औपनिवेशिक कालीन भारत में वन संसाधनों की माँग एवं उपयोग में एक बडा परिवर्तन देखने को मिलता है। अब वनों पर भारतीय माँग के साथ-साथ अंग्रेजी साम्राज्य की माँग भी बढ़ गई थी। उदाहरण के लिए, कृषि विस्तार, रेलवे का विस्तार आदि के कारण वनों पर दबाव बढ़ रहा था। इसके कारण भू-क्षरण व स्वास्थ्य सम्बन्धों पर बुरा असर पड़ रहा था। फिर अंग्रेजों ने वन प्रबन्धन के लिए जो भी नीति बनाई, वह ओपनिवेशिक चरित्र लिये हुए थी जिसमें स्थानीय समुदायों द्वारा वन प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जबकि खुद के इस्तेमाल हेतु वनों का व्यापक स्तर पर दोहन किया गया।

    भारत में ओपनिवेशिक शासन की स्थापना के साथ ही मानव-वन सम्बन्धों में व्यापक बदलाव आया। इस शोषण के साथ पहली बार वन दोहन का लाभ एक व्यापारिक संस्थान को मिलते देखा गया, जबकि इसके पूर्व उसका वनों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। अंग्रेजों ने भारत की सत्ता अपने हाथ में कर ली तथा ओपनिवेशिक व्यापार एवं औद्योगिक क्रान्ति के कारण वन संसाधनों की माँग में वृद्धि हुई फलत: उनका दोहन आरम्भ हो गया। साथ ही ब्रिटेन एवं नेपोलियन युद्धरत थे तथा पूरे विश्व के fऔपनिवेशिक क्षेत्रों में व्यापार विस्तार को लेकर नौ-परिवहन निर्माण उद्योग में भारतीय सागौन की माँग बढ़ी। इसके कारण भी वनों का दोहन ज्यादा हुआ। इसके अलावा अंग्रेजों की कृषि नीति ने भी वनों के विनाश में अपनी भूमिका निभाई। चूँकि आरम्भ से ही अंग्रेजों की कृषि नीति ज्यादा से ज्यादा राजस्व की प्राप्ति की है। अतः अंग्रेजों को राजस्व तभी मिल सकता था, जब कृषि भूमि क्षेत्रों का विस्तार किया जा सके। इसका एकमात्र विकल्प वन भूमि से पेड़ों को हटाकर कृषि भूमि में बदलना था। इस कारण अंग्रेज वनों को अपने विकास मार्ग में बाधा समझते थे। वन-विनाश की तीव्रता में वृद्धि भारत में रेलवे के विकास के साथ हुई। रेलवे स्‍लीपर बनाने के लिए बडे-बडे वनों को नष्ट कर दिया गया। इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप गढ़वाल तथा कुमाऊँ के वन समाप्त हो गए।

    इसके अतिरिक्त रेलवे के परिचालन के लिए जलाने वाली लकडी वनों से प्राप्त होती थी। इसके कारण वन साधनों पर ज्यादा दबाव पडा। यह प्रक्रिया रानीगंज की कोयला खदानों से कोयला निकलने के बाद ही कम हो सकी। इस तरह देश के विभिन्‍न भागों में रेलवे का विस्तार होता गया तथा वहाँ के वन साधनों का विनाश भी करता गया। इसलिए ज्यादातर विद्वानों का मत हे कि रेलवे की माँग ने वनों के विरलीकरण में प्राथमिक भूमिका निभाई थी। भारतीय तथा यूरोपीय निजी ठेकेदारों ने भी इसमें सहायक की भूमिका निभाई।

    ओपनिवेशिक प्रशासन की वन नीतियाँ भी साम्राज्यवादी हितों से सम्बन्धित थीं। अत: अपने वन-नीति कानून के द्वारा भारत के पारम्परिक समुदायों को वन उपयोग से वंचित कर दिया गया। यहाँ के आदिवासी समाज को असभ्य एवं जंगली कहा गया। इन आदिवासियों ने ब्रिटिश वन-नीतियों का विरोध भी किया। लेकिन इस विरोध को दबा दिया गया। अपनी वन प्रबन्धन नीति के समर्थन में कहा कि यह समुदाय अपनी पारम्परिक झूम कृषि के कारण बार-बार स्थानांतरण करते रहते हैं एवं वनों को जलाते रहते हैं। चूँकि अंग्रेजी सरकार को इनकी कृषि से राजस्व मिल पाता था। इसी की आड में ये वन-नीतियों के द्वारा स्वार्थ पूर्ति कर रहे थे। यद्यपि एक तरफ अंग्रेज अधिकतम राजस्व प्राप्ति के लिए वन-विनाश कर कृषि भूमि का विस्तार कर रहे थे। इसके कारण बाढ़

तथा भू-क्षरण की तीव्रता बढ़ गई तथा बीमारियाँ बढ़ने लगीं तो भारत की ब्रिटिश सरकार वन-नीति लाई। लेकिन यह सब सिर्फ दिखावा था, क्‍योंकि वास्तव में वे वनों का दोहन करते रहे। साथ ही साथ वे वन्य जीवों का शिकार भी करते थे। वन पारिस्थितिकी में परिवर्तन में होता हे, जबकि वन कटाई के बाद उस स्थान पर एक ही तरह के वृक्ष लगाना नुकसानदायक होता हे। क्योंकि इसके परिणामस्वरूप उस स्थान विशेष की जेव-विविधता समाप्त हो जाती है।

    उपरोक्त विवरणों के आधार पर कहा जा सकता हे कि अंग्रेजों ने या भारत की ओपनिवेशिक सरकार ने वन-नीति कानून को सदैव अपनी हितों की पूर्ति के लिए किया। इनका इस बात से कोई मतलब नहीं था कि वहाँ की पर्यावरण या जलवायु में वन-विनाश के कारण संकट उत्पन्न हो सकता है। उनकी वन प्रबन्धन की नीति भी सिर्फ औपनिवेशिक स्वार्थों से प्रेरित थी।

   ओपनिवेशिक काल के पूर्व में भारत वन संसाधनों के मामले में बहुत सम्पन्न था। भारत के लोग अपनी घरेलू जरूरतों तथा अन्य सज्जा-सामानों के लिए सीमित रूप में वनों का उपयोग करते थे। वनों के निवासी अपना भोजन एवं कुछ अन्य जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर थे। वस्तुत: वनों का व्यापक स्तर पर दोहन नहीं होता था, जिससे वन-विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाए। परन्तु ब्रिटिशों के आगमन के बाद वन दोहन की प्रक्रिया में बदलाव आया तथा इसका उपयोग व्यावसायिक रूप में किया जाने लगा। साथ ही अंग्रेजों ने दोहन की मानसिकता से प्रेरित होकर भारत में वन-नीति की स्थापना की थी।

   सर्वप्रथम डलहोजी द्वारा 1865 में वन विभाग की स्थापना की गई। इसका मुख्य उद्देश्य रेलवे के लिए स्लीपर के निर्माण हेतु इमारती लकडी का उपयोग करना था। फिर बाद में 1865 में ही भारतीय वनों के संरक्षण हेतु स्थानीय नियमों का प्रावधान कर वनवासी समुदायों पर प्रतिबन्ध लगाया गया। सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन 1878 के वन कानून द्वारा किया गया। इस कानून के अनुसार वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया, पहला आरक्षित वन, जिसमें सभी निजी अधिकार खत्म कर दिए गए। दूसरा, सुरक्षित वन, इसका अधिकार राज्य नियन्त्रण विभाग को दिया गया। तीसरा, ग्राम वन ग्राम सभा के नियन्त्रण में रहा। इस कानून का महत्त्वपूर्ण भाग यह हे कि वन अधिकारियों को इसके उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या समुदाय को दण्ड देने की शक्ति प्रदान की गई।

   फिर वन कानून, 1894 लाया गया। इसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं-कृषि का वनों पर वर्चस्व तथा प्राथमिकता, वनों का चार श्रेणियों में विभाजन, पहाड़ी वनों का संरक्षण, आवश्यक व्यापारिक उपयोग के लिए वन लकड़ी की आपूर्ति, जलाने की लकड़ी आदि की आपूर्ति इत्यादि। इसी कानून के तहत देहरादून में फॉरेस्ट स्कूल की जगह राज्य फॉरेस्ट कॉलेज की स्थापना की गई।

    अंग्रेजी सरकार का अन्तिम भारतीय वन कानून, 1927 में लाया गया, जिसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं-प्रथम, विस्तृत कानूनी नियम, राज्य की आरक्षित वन-ग्राम वन व सुरक्षित वन पर कानून बनाने का अधिकार व्यापक किया गया। राज्यों द्वारा लकड़ी देने वाले बन तथा दूसरे प्रकार के वनों के लिए नियम बनाने का अधिकार, उल्लंघन पर दण्ड विधान, वन अधिकारियों के अधिकार तथा कर्त्तव्य निर्धारित किए गए, जो कुछ परिवर्तनों के साथ आज तक भारत में लागू हैं।

   उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि अंग्रेजों द्वारा लाए गए भारतीय वन कानून अपने स्वार्थ पूर्ति के उद्देश्य से प्रेरित थे।

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