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सर्जनात्मक लेखन में भाषा के विविध रूपों पर प्रकाश डालिए।

 सर्जनात्मक लेखन में भाषा के विविध रूप: सर्जनात्मक लेखन साहित्य रचना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की अनुभूतियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। विविध अनुभूतियों को प्रकट करने के लिए भाषा अपना विविध रूप रचती है। सर्जनात्मक लेखन में हम अपने समय की छाप को गहराई से देख सकते हैं। समय बदलने के साथ विधाओं में परिवर्तन होता जाता है। हम आज महाकाव्य नहीं रच रहे हैं।

इसके मूल में वही बदली हुई अनुभूति है। हम आस्था और संशय की उन अनुभूतियों को विराटता में अनुभव नहीं कर पाते हैं, जिसमें महाकाव्य का जन्म होता है। सर्जनात्मक अनुभूति यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, जिसमें दुहराव मात्र नहीं होता है। सर्जनात्मक लेखन जैविक प्रक्रिया है। वह अपने लिए भाषा का विशिष्ट रूप चुन लेती है। इसीलिए साहित्य में विविध विधाओं का विकास होता जाता है।

भाषा में यथार्थ निरीक्षण से व्यंग्य की ताकत पैदा होती है। कबीर में यथार्थ की पकड़ गहरी है। उनकी भाषा में व्यंग्य के तेवर प्रखर हैं। रघुवीर सहाय में व्यंग्य की अनुभूति बहुत कड़ी है। सर्जनात्मक लेखन की भाषा के अतिरिक्त किसी भाषा में मानवीय भाव और आवेग को पूरी अर्थवत्ता में नहीं पकड़ा जा सकता है। सर्जनात्मक लेखन का अपने परिवेश के साथ विशिष्ट संबंध होता है।

किसी भी विधा में परिवेश की बहुत भूमिका होती है। कहानी, उपन्यास, नाटक के पात्र किस परिवेश के हैं, उसी के अनुकूल ही भाषा की भूमिका होगी। ग्रामीण पात्र यदि संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग करते हैं तो यह अस्वाभाविक लगेगा। यदि कोई शहरी पात्र है, वह आंचलिक भाषा का प्रयोग करता है, तो उसमें भी स्वाभाविकता नहीं दिखाई पड़ेगी। रचनाकार जब लेखन में प्रवृत्त होता है, अपने पात्र और परिवेश के अनुकूल भाषा में संवेदना रचता है।

1 फीचर की भाषा :

भाषा की रचनात्मकता को अब हम, विधाओं में उसका किस प्रकार से उपयोग होता है, के माध्यम से समझेंगे। फीचर की बात करते हैं, तो फीचर के विषय में भी जानकारी प्राप्त करना चाहिए। फीचर लेखन का संबंध समाचार पत्रों से है। समाचार पत्रों में जिस प्रकार से निबंध, लेख आदि छपते हैं, उसी प्रकार से समाचार पत्रों में फीचर का भी स्थान है।

फीचर किन्हीं विशिष्ट घटनाओं पर लिखा जा सकता है। किसी लुप्त होती परंपरा को याद दिलाने के लिए लिखा जा सकता है। किसी नई समस्या पर लिखा जा सकता है। उसकी विषय वस्तु विविध हो सकती है। हम फीचर लेखन की भाषा की बात करते हैं, तब यह ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है कि फीचर को समाचार पत्रों में छपना है।

समाचार पत्रों की पहुँच तरह-तरह के लोगों तक होती है। जो कम पढ़े-लिखे लोग हैं वे भी समाचार पढ़ते हैं। फीचर लेखन में भाषा की दुरूहता और जटिलता नहीं होनी चाहिए। भाषा की जटिलता से सभी लोग फीचर को पढ़ने में दिलचस्पी नहीं ले सकेंगे। भाषा में ऐसा प्रयोग हो, जो जन सामान्य की समझ में आने वाला हो। फीचर लेखन की भाषा समाचार की भाषा भी नहीं होनी चाहिए। समाचार की भाषा में एक प्रकार की तात्कालिकता होती है।

पत्रों की परंपरा अत्यंत स्वस्थ और सुंदर है जो जीवंत रखती है संबंधों और संवेदनाओं को। इतिहास गवाह है कि स्वतंत्रता संग्राम में एक सशक्त संचार माध्यम के रूप में पत्र की कितनी अहम भूमिका रही है। स्वतंत्रता सेनानियों के पत्रों से आज भी तत्कालीन भारत की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का पूरा ब्यौरा मिलता है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के अपनी बेटी को जेल से लिखे गए पत्र एक दस्तावेज बन गए हैं और आज भी उनका महत्व अक्षुण्ण है।

इस फीचर लेखन के वाक्य गठन और शब्द चयन में सहज सौंदर्य है। भाषा समझ में आने वाली है। समाचार पत्रों में लिख रहे हों, तब यह खासकर ध्यान देना चाहिए कि संयुक्त वाक्यों के अधिक प्रयोग से कहीं-कहीं भाषा उलझ जाती है।

2 निबंध की भाषा निबंध :

सर्जनात्मक लेखन की महत्वपूर्ण विधा है। निबंध के विषय भी विविध होते हैं। निबंध रचनात्मक भी हो सकते हैं और आलोचनात्मक भी। यहाँ रचनात्मक निबंध पर विशेष रूप से विचार करेंगे। निबंध में भाव का जितना महत्व होता है, उतना ही महत्व विचार का भी होता है। निबंध के विषय में आचार्य शुक्ल ने लिखा है ‘यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि पर हृदय को भी साथ लेकर। अपना रास्ता निकालती हुई बुद्धि जहाँ कहीं मार्मिक या भावाकर्षक स्थलों पर पहुँचती है, वहाँ हृदय थोड़ा बहुत रमता अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कुछ कहता गया है। निबंधकार किसी भी विचार को चिंतन और तर्क की भाषा में ही नहीं अनुभव की भाषा में भी रखता है।

निबंधकार अपने अनुभव और विचार को मिलाकर क्रमिक गति से निबंध में एकसूत्रता देता है। निबंध में भाव खुले हुए होते हैं। उनमें अंतःसंगति होना आवश्यक है।  भाव को भाषा में एक सूत्र में नहीं पिरोया गया, तो अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। निबंध की भाषा में शब्दों का अंतःसूत्र स्वेटर की तरह बुना हुआ होता है। थोड़े से शब्दों के हेर-फेर से गद्य शिथिल और निर्जीव हो सकता है। आचार्य शुक्ल के निबंध की भाषा देखें, उसमें विचार शब्दों के बीच किस प्रकार से बहते हैं :

विशिष्ट वस्तु या व्यक्ति के प्रति होने पर लोभ वह सात्विक रूप प्राप्त करता है, जिसे प्रीति या प्रेम कहते हैं। जहाँ लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है वहाँ वह लोभ ही रहता है, पर जहाँ किसी जाति के एक ही विशेष व्यक्ति के प्रति होता है वहाँ वह, रुचि या प्रीति का पद प्राप्त करता है। लोभ सामान्योन्मुख होता है और प्रेम विशेषोन्मुख । (लोभ और प्रीति) ललित निबंध की भाषा निबंधकार के व्यक्तित्व से संबद्ध होती है। निबंध की भाषा में लय होती है। उस गद्य की लय में शब्द भी चंचल दिखाई देते हैं। ललित निबंध के भाव में संगीत जैसी सूक्ष्मता होती है। गीति काव्य की तरह व्यक्तित्व का सहज प्रकाशन होता है।

3 कहानी की भाषा :

कहानी साहित्य की विशिष्ट विधा है। कहानी कहना एक प्राचीन कला विधि है। अपने घरों में हम दादी और नानी से कहानी सुनते आ रहे हैं। आधुनिक साहित्य में कहानी का जो विकास हुआ है, वह कहानी उस पुरानी कहानी से भिन्न है। अपने घरों में सुनी हुई कहानी में कहीं न कहीं हमारी वाचिक परंपरा के संस्कार मौजूद हैं। दोनों प्रकार की कहानी दो __ भिन्न परिस्थितियों की उपज थी। अतः दोनों प्रकार की कहानियों की भाषा भी भिन्न है। वाचिक स्थिति में पाठ पहले से निर्धारित नहीं होते थे। श्रोता और सामाजिक के संबंधों में भाषा निर्धारित होती थी। वाचन वाक्य रचना, पद विन्यास, क्रिया, सर्वनाम, वचन का निर्णय करती है।

आधुनिक कहानी को वाचक नहीं लेखक लिखता है। आज की कहानी लेखक समकालीन समाज की पहचान के आधार पर एक कल्पित व्यक्ति, जिसके साथ वह एक काल्पनिक संवाद अथवा संप्रेषण की स्थिति बनाता है। हिंदी की पहली कहानी ‘रानी केतकी की कहानी’ कथा संप्रेषण की वाचिक परंपरा से हटकर चाक्षुष में परिवर्तित हो रही थी। जब श्रव्य का स्थान पाठ्य ले रहा था। ‘रानी केतकी की कहानी’ का एक उदाहरण देखें :

इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ लोग पुकारते हैं, कह सुनाता हूँ। दहना हाथ मुँह पर फेरकर आपको जताता हूँ  जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूद-फाँद लपट-झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान छोड़ा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अचपलाहट में हैं, हिरन के रूप में अपनी चौकडी भल जाए।

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