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आदिकालीन काव्य धाराएँ

हिंदी साहित्य का जो आदिकाल' है वह भारतीय इतिहास का मध्यकाल है। धर्मोन्मुख समाज तथा सामंती सामाजिक संरचना मध्यकालीन जीवन के प्रमुख तत्व हैं। हिंदी का प्रारंभिक साहित्य इन्हीं के बीच से निकला। सिद्ध, नाथ तथा जैन कवि अलग-अलग धार्मिक दृष्टिकोण के प्रतिनिधि थे, जबकि 'रासो' के कवि विभिन्‍न राजाओं के दरबारों से जुड़े चारण कवि थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनमें से सिर्फ रासो कबि की रचनाओं को महत्व दिया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सिद्ध, नाथ तथा जैन कवियों की उपेक्षा के पक्षघधर नहीं हैं। उनके अनुसार, “केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रंथों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें 'भक्ति काव्य' से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दंडवत करके विदा कर देना होगा। मध्ययुग के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्मसाधना ही रही है।” (वही, पृ. - 11) 'प्रधान प्रेरणा' के रूप में 'धर्म साधना' की यह उपस्थिति भक्तिकाल में भी देखी जा सकती है।

सिद्ध और नाथ कवियों की रचनाओं में ऐसी अनेक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जिन्हें बाद में भक्त कवियों ने अपनाया। सिद्धों द्वारा बाहयाडंबर का विरोध किया गया, इसे कबीर ने भी अपनाया। नाथों की तरह तुलसी का दृष्टिकोण समन्वयकारी है। सूफी कवियों ने जैन कवियों की तरह हिंदू समाज की कथा को आधार के रूप में अपनाया। सिद्धों-नाथों की साधना पद्धति और अभिव्यंजना शैली का कबीर आदि संत कवियों पर काफी प्रभाव है। इस दृष्टि से आदि काव्य के अंतर्गत रासो कवि के साथ सिद्ध, नाथ और जैन कवियों का अध्ययन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस युग में अमीर खुसरो, विद्यापति, धनपाल आदि लौकिक कवि भी हुए। इस काल का जो साहित्य है वह कुछ तो यथारूप मौजूद है और कुछ में तब्वीली होती रही है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “इस काल की पुस्तकें तीन प्रकार से रक्षित हुई हैं- (1) राजाश्रय पाकर और राजकीय पुस्तकालयों में सुरक्षित रहकर, (2) सुसंगठित धर्म संप्रदाय का आश्रय पाकर और मठों, विहारों आदि की पुस्तकालयों में शरण पाकर और (3) जनता का प्रेम और प्रोत्साहन पाकर | राजाश्रय सबसे प्रबल साधन था। धर्मसंप्रदाय का संरक्षण उसके बाद ही आता है| तीसरे प्रकार की जो पुस्तकें उपलब्ध हुई हैं वे बदलती रही हैं| जनता को उनके शुद्ध रूप से कोई मतलब नहीं था, आवश्यकतानुसार उसमें काट-छाँट भी होती रही है, परिवर्तन परिवर्धन भी होता रहा है और इस प्रकार जोकरूचि के सौंचे में उज़ते हुए उन्हें जीवित रहना पड़ा है।' ( 

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