विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने 310 वर्ष तक राज किया। इसका वास्तविक नाम कर्नाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। पुर्तगाली इस साम्राज्य को बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे।
लगभग सवा दो सौ वर्ष के उत्कर्ष के बाद सन 1565 में इस राज्य की भारी
पराजय हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण रूप में यह 70
वर्ष और चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के
निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस
साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है।
विजयनगर राज्य की एक विशिष्ट विशेषता अनुष्ठानों
के नेताओं के बजाय राजनीतिक और धर्मनिरपेक्ष कर्मियों के रूप में ब्राहमणों का
महत्व था। अधिकांश दुर्गा दैत्य (किल्रों का अवतार) ब्रहमण थे। साहित्यिक स्रोतों
ने इस सिद्धांत को प्रमाणित किया कि इस परिधि के दौरान किले महत्वपूर्ण थे और
इन्हें ब्रह्ममणों के नियंत्रण में रखा गया था, विशेषकर तेलुगु मूल के। इस अवधि के दौरान, शिक्षित ब्राहमणों में से अधिकांश सरकारी सेवक के
रूप में प्रशासक और लेखाकार बनने की इच्छा रखते थे, जो उन्हें कैरियर की अच्छी संभावनाएं प्रदान करते थे। शाही सचिवालय
पूरी तरह से ब्रहमणों द्वारा संचालित था। ये ब्राहमण अन्य ब्राह्मणों से अलग थे:
वे तेलुगु नियोगिस नामक एक उपजाति के थे। धार्मिक संस्कार करने में वे बहुत
रुढ़िवादी नहीं थे। उन्होंने संभावित वैध के रूप में भी काम किया। ब्राह्मण
विद्यारण्य और उनके परिजन संगरना बंधुओं के मंत्री थे: उन्होंने उन्हें वापस हिंदू
धर्म में स्वीकार करके उनके शासन को वैधता प्रदान की। ब्राहमणों ने विजयनगर सेना
में सैन्य कमांडरों के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए, कृष्णदेव राया ब्राह्मण त्रिखा के तहत आथिक सहायता
मिली क्योंकि वह राजनीतिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग था। पति ब्राह्मणों ने
साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में किले का निर्माण और कमान संभाली, जिसके लिए वे कुछ ताज गाँव, भंडारावड़ा के राजस्व का हिस्सा थे। भेदभाव था। क्राउन गाँव और औउम
गाँवों के बीच में बनाया गया था (जिनकी आमदनी स्थानीय मावरी प्रमुखों के प्रभार के
अधीन थी) ।
हिंदू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य
का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य
करते रहे, परंतु इससे विजयनगर के
मूत्र उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक
साहित्य की टीका तथा विशाल्र मंदिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज
भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबंध का संचालन करते थे।
केंद्रीय मंत्रिमंडल की समस्त मंत्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबंध
के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति
निभ॑र थी। सुदूर दक्षिण में सामंत वर्तमान थे जो वाषिक कर दिया करते थे और
राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग
सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुंदर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है।
विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष
को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि
पर पृथक्-पृथक् कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दंड तथा आयात पर
निधौीरित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और
चौथा भाग दान एवं महल संबंधी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के
इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है।
तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को
अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना
की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के
कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा
सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य
बहुमुख प्रतिभा के पंडित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा
एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमश: जैमिनीय न््यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रंथों की
रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल
में हिंदू संस्कृति के आदि ग्रंथ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों
का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य
पुस्तकें लिखी गई।
बौद्ध, जैन तथा ब्राहमण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर
के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि
उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। विजयनगर की
कला धार्मिक प्रवृत्तियों के कारण जटिल हो गई। मंदिरों के विशाल गोपुरम् तथा
सुंदर, खचित स्तंभयुक्त मंडप इस
युग की विशेषता हैं। विजयनगर शैली की वास्तुकला के नमूने उसके मंदिरों में आज भी
शासकों की कीर्ति का गान कर रहे हैं।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box