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भारतेन्दु युगीन नाटक

 भारतेन्दु से पूर्व नाटक के नाम पर मिलने वाली रचनाएँ एक तो बहुत कम हैं, दूसरे सच्चे अर्थों में वे नाटक हैं भी नहीं। इस युग से पहले नाट्य रचना के अनुकूल स्थितियाँ भी नहीं थीं। भारतेन्दु ने 'कालचक्र' में एक दृष्टि से ठीक ही नोट किया - 'हिन्दी में प्रथम नाटक-नहुष नाटक (1859), तथा द्वितीय नाटक शकुन्तला (1863 ) तथा तृतीय-विद्यासुन्दर (1871) 1'' (भारतेन्दु समग्र: पृष्ठ 780) इन तीन नाटकों में से दो नाटक अनुवाद हैं। राजा लक्ष्मणसिंह कृत 'शकुन्तला' कालिदास के अभिन्नानशाकुल्ततानाटकम्‌' का अनुवाद है और विद्यासुन्दर' स्वयं भारतेन्दु के द्वारा बंगला से अनूदित है। भारतेन्दु ने एक अंग्रेजी से, एक बंगला से और पाँच संस्कृत से नाटकों के अनुवाद किये और दस मौलिक नाटक लिखे। उनके अनूदित नाटकों में मुद्राराक्षत', पुनरचित नाटकों के अनुवाद में 'हरिएचन्द्र' और मौलिक नाटकों में 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति', श्रीचन्द्रावली', 'भारतदुर्दशा', और 'अन्धेर नगरी' को विशेष ख्याति मिली। उन्होंने अपने कुछ नाटकों में यदि अपनी प्रेम और भक्ति की भावनाओं को अभिव्यक्त किया तो अन्य अधिकांश नाटकों में अपने समकालीन समाज, धर्म, राजनीति, प्रशासन, न्याय व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की समस्याओं को उजागर किया है। इन समस्याओं को उजागर करने में उनका सबसे बड़ा अस्त्र है हास्य और व्यंग्य। 'अंधेर नगरी के अन्त में भहन्त द्वारा कही गयी इन पंक्तियों से तीखा कटाक्ष अंग्रेजी शासन पर और क्या हो सकता है :

जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजान समाज।

ते ऐसहि आपुष्टि नसे, जैसे चौपटराज, ”' (भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ 536)

भारतेन्दु ने अपने नाटकों के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य नाटयशैलियों के उप्युक्त तत्त्व लेकर एक नयी नाटयशैली का निर्माण किया था। उनके नाटकों के केन्द्र में नाट्यवस्तु, नाट्यशिल्प और जीवन दृष्टि संबंधी प्रयोगशीलता और प्रगतिशीलता दोनों विद्यमान हैं। उन्होंने अपने नाटक रंगमंच के लिए लिखे थे। वे स्वयं रंगमंच पर सक्रिय थे। इसलिए उनके 'अंधेर नगरी” जैसे नाटक आज भी सफलतापूर्वक मंचित होते हैं।

भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों में से ठा. जगमोहनलिंह को छोड़कर बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, देवकीनन्दन तिवारी, अम्बिका दत्त व्यास इत्यादि सभी ले नाटक लिखे। भारतेन्दु युग के नाटककारों में से भारतेन्दु के अतिरिक्त तीन नाटककार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- लाला श्रीनिवासदा्त, प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी | लाला श्रीनिवासदास ने प्रह्लाद चरित्र', 'तपता संवरण', 'रणधीर- प्रेममोहिनी' और संयोगिता स्वयंवर' - इन चार नाटकों की रचना की। इनमें से 'रणधीर-प्रेममोहिनी” उनका सर्वोत्तम अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय होने वाला नाटक है। अंग्रेजी नाट्यशैली में लिखी गयी यह दु:खान्त प्रेंमकथा है, जिस पर रीतिकालीन श्रृंगारलीलाओं का स्पष्ट प्रभाव है। 

आज इस कृति का महत्व मात्र ऐतिहासिक है। प्रतापनारायण मिश्र ने 'हमीर हठ', 'भारत दुर्दशा”, 'कलिकौतुक रूपकमगो-संकट ', 'संगीत शाकुन्तल', 'कलिप्रभाव नाटक”, जुआरी-खुआरी” इत्यादि अनेक नाटकों की रचना की। उनके-नाटक युगीन चिन्ताओं को व्यक्त करने के साथ-साथ शिल्पगत प्रयोगशीलता की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं। राधाचरण गोस्वामी ने सती चन्द्रावली', 'अमरसिंह राढौर' और 'सुदामा” जैसे ऐतिहासिक-पौराणिक नाटक लिखे, जो सामान्य कोटि के हैं, किन्तु नाटककार के रूप में उनका महत्व, उनके प्रहसनों के कारण है। बूढ़े मुँह मुँहासे', तन-मन-धन गुसाईंजी के अर्पण”, 'भंग-तंरग”, 'लोग देखें तमाशा” आदि प्रहसनों से उन्होंने अपने समकालीन जीवन के नकारात्मक पक्षों की जैसी धज्जियाँ उड़ाई हैं और जैसी दूरदर्शी प्रगतिशील दृष्टि का परिचय दिया है, वह भारतेन्दु युग में ही नहीं, बाद में भी कम ही नाटककारों में देखने को मिलती है।


भारतेन्दु युग में नाट्य-रचना और नाटय-प्रदर्शन का एक आन्दोलन ही उठ खड़ा हुआ था। एक साथ जितने नाटककार इस युग में नाट्य रचना में संलग्न थे, उतने पूरे हिन्दी साहित्य के किसी एक काल में नहीं थे। इसका कारण यह था कि साहित्य के माध्यम से समाज को बदलने का जैसा उत्साह इस काल के नाटकों में था वैसा हिन्दी साहित्य में फिर कभी दिखाई नहीं दिया। ये नाटककार समझते थे कि जनसाध ग़रण तक अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम नाटक है। यही कारण है कि जिस समग्रनता के साथ इस काल के नाटकों में समकालीन जीवन प्रतिबिम्बित हुआ है वैसी समग्रता के साथ और किसी काल के नाटकों में नहीं हुआ है।

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