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‘पुरस्कार’ कहानी के आधार पर मधूलिका का चरित्र

मधूलिका कमी कोशल के प्रति अपने अनुराग की ओर झुकती है तो कभी प्रेम का वह पक्ष प्रबल हो जाता है जो अरुण से संबंधित है। द्वंद्व की स्थिति अरुण के प्रति प्रेम को लेकर भी है। मगध का राजकुमार अरुण प्रथम दर्शन में ही मघूलिका के प्रति आसक्त हो जाता है और उससे अपना प्रणय-भाव निवेदन कर देता है “मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ।' मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती लेकिन मघूलिका को अपनी हैसियत का ध्यान है| वह वर्ग भेद की खाई से परिचित है “राजकुमार! मैं कृषक बालिका हूँ। आप नंदन बिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीने वाली। आज मेरे स्नेह कौ भूमि पर मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुख से निकज हुँ। मेरा उपहास न करो |

यह उद्धरण बताता है कि प्रणय का प्रार्थी अरुण उसी वर्ग का है, जिसने मधूलिका की 'स्नेह की भूमि' को छीन लिया है। अतः उस वर्ग के व्यक्ति के प्रति विकर्षण स्वभाविक है। इसलिए मधूलिका अरुण के प्रति कठोर बनती है। प्रसाद की कहानियों में विकर्षण से आकर्षण और घृणा से प्रेम की जुगलबंदी प्राय: मिलती है। 'मधूलिका सामंत वर्ग” से, उसकी मानसिकता से घृणा करती है, लेकिन अरुण एक युवा के रूप में उसे अच्छा लगता है। अतः: उसका तिरस्कार करके वह स्वयं भी कम आहत नहीं होती - “चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्न किरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मूधलिका निष्ठुर प्रहार करके क्‍या स्कयं आहत नहीं हुई उसके हृदय में टीस-सी होने लगी ।”

मधूलिका के हृदय की यह 'टीस' स्थाई पीड़ा बन जाती है। घोर अमाव का जीवन जीते हुए इस पीड़ा का नुकीलापन बढ़ जाता है। उसका मन कई बार पश्चाताप करता है कि उसने सौभाग्य का तिरस्कार क्‍यों कर दिया। यहाँ उसकी अपनी वास्तविक स्थिति-नियति, उसके सुख-स्वप्न से टकराती है। उसका हद, उसका असमंजस शौध्य . एक किनारा पा जाता है। उसे लगता है कि यह राजकुमार की प्रतीक्षा कर रही है, उसे प्रेम करने लगी है। कहानीकार ने उसकी व्यग्रता और भावनात्मक उतार-चढ़ाव को बहुत सलीके से बयान किया है।

“आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लाटा लेने के लिए विकल थी। असहाय दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यधित और अधीर कर दिया था। मगध की प्रसाद माला के वैभव का काल्पनिक चित्र, उन सूखेडंठलों के रंध्रों से नीचे नम में - बिजली के आलोक में नाचता हुआ दिखाई देने लया।”

मधूलिका एक सरल हृदय, मेहनती तरुणी है, जो अपने खेतों में काम करके अपने जीने भर के लिए अनाज उगाती है। वह अपनी इस स्थिति से संतुष्ट है। उसके मन में राजसी वैभव के प्रति कोई लगाव भी दिखाई नहीं देता। अपने कर्तव्य को वह भली भांति जानती है। इसलिए राजाज्ञा की वह अवहेलना नहीं करती बल्कि राजा द्वारा ली गई उसकी भूमि के बदले में दिए जा रहे मूल्य को भी वह स्वीकार करती है। वैभव या पैसे के प्रति उसके मन में कोई लाभ नहीं है, यह जानते हुए भी कि मुद्रा और भूमि के बिना उसके लिए जीवन कठिन हो जाएगा। अभाव का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने देश के प्रति प्रेम की भावना उसके लिए सर्वोपरी हो जाती है।

भोली-भाली देशप्रेमी कृषक कन्या के रूप में मधूलिका की छवि हमारे सामने प्रकट होती है। दूसरी ओर अरुण जो एक सामंत है और सातप्राज्य को फैलाने की अपनी आकांक्षा को वह महत्वपूर्ण समझता है। जिसके लिए एक भोली-भाली कृषक कन्या का उपयोग करने में उसे कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती। प्रेम का प्रदर्शन करना, आश्वासन देना या विश्वास पैदा करना उसके संस्कार और स्वार्थ का अविमाज्य हिस्सा है। ऐसी स्थिति में अपने स्वार्थ के लिए मधूलिका का वह बड़ी चालाकी से उपयोग कर लेता है। इसके विपरीत मंधूलिका एक मेहनतकश मजदूर कृषक कन्या है। जो स्वमावतः सामंतवर्ग का तीरस्कार करती है। सामंतवादी सोच और प्रवृत्तियों का ही तो वह शिकार हुई है। एक शजा ने केवल अपनी परंपरा का निर्वाह करने हेतु उसके खेत को कुछ मुद्राओं के मूल्य के ऐवज में अपने अधिकार में ले लिया है। यहाँ पर कृषक समाज या व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा को कोई महत्व नहीं दिया गया। केवल राजाज्ञा को स्वीकार करना ही जनता का कर्तव्य बताया जाता है। मधूलिका द्वारा विरोध न करना यही दर्शाता है कि यदि वह विरोध करके अपनी भूमि बचाना चाहती, तो वह दंड पाती।

इससे भी महत्वपूर्ण है कि अपने देश या मातृभूमि के लिए असीम प्रेम में वह उसके समक्ष आने वाले कठोर भविष्य के प्रति भी उदासीन हो जाती है। उस समय केवल देशप्रेम और अपने कर्तव्य के प्रति उसका समर्पण महत्वपूर्ण है। जिस काल की यह कहानी है उस काल में राज्य के लिए प्राण देना या त्याग करना सहज प्रवृत्ति मानी जाती थी। जिसे ही स्वदेश-प्रेम या भक्ति कहा जाता रहा। लेकिन इसके पीछे के सत्य को कहीं भी उजागर न होने देने की कोशिश भी की जाती रही।

प्रसाद के संपूर्ण साहित्य में नारी का तेजस्वी, सकारात्मक और सबल रूप व्यक्त हुआ | श्रद्धा, देव-सेना, धरुवस्वामिनी, चंपा, मालविका आदि नारी पात्र पुरुष पात्रों की तुलना में अधिक सशक्त हैं। 'पुरस्कार' में भी कहानीकार ने मघूलिका के चरित्र को ही प्रयत्नपूर्वक संवारा है। उसी के द्वंद्दध,, उसी का स्वाभिमान और उसी का क्षोम संपूर्ण कहानी को आच्छादित किए हुए है। कहानी का चरमबिंदु उसी के निर्णय पर टिका है। मधूलिका को साहस और दृढ़ता विरासत में मिली है। इसी के बूते पर वह राजा की स्वर्ण मुद्राएँ उसी पर न्यौछावर कर देती है। राजा का अनुग्रह न स्वीकार करके वह दूसरे के खेतों में काम करके अपना जीवन-यापन करती है। कहानीकार दर्शाता है कि उसकी तेजस्विता के पीछे श्रम का ठोस आघार है और उसका सौंदर्य भी कठोर परिश्रम से निखरा है।

“कठोर परिश्रम से जो रूखा सूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कांति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी।”

अरुण के मोहपाश में वह कुछ देर के लिए उचित-अनुचित का भेद भूल जाती है, लेकिन उसका विवेक उसे शीघ्र ही सावधान कर देता है - “सिंहमित्र कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है” वह असहय वेदना से मर उठती है और सेनापति को अरुण के आक्रमण से अवगत करा देती है। कहानी के अंतिम हिस्से में हम देखते हैं कि वह बलिदान का साहस भी रखती है। अरुण के साथ ही प्राण दंड का पुरस्कार माँग कर वह, जैसे अरुण के साथ अपने विश्वासघात का प्रायश्चित कर रही है।

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